Uttarakhand News: क्या मील का पत्थर साबित होगा उत्तराखण्ड की राजनीति में 'दलित कार्ड' का दुस्साहस ?
(कांग्रेस ने उत्तराखंड में दलित CM का कार्ड खेलकर अन्य दलों को पेशोपेश में डाल दिया है)
सलीम मलिक की रिपोर्ट
Uttarakhand News: (देहरादून)। राज्य में विधानसभा चुनाव (Assembly elections) निकट आते ही विभिन्न राजनैतिक दलों ने चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। चुनाव में यूँ तो कई राजनैतिक दल शिरकत करेंगे। लेकिन बड़े प्लेयर के तौर पर चुनाव कांग्रेस-भाजपा (Congress- BJP) के अलावा पहली बार राज्य की राजनीति में दस्तक दे रही आम आदमी पार्टी के इर्द-गिर्द की सम्पन्न होगा। आम आदमी पार्टी (Aam Admi Party) ने राज्य की राजनीति का परंपरागत 'ट्रैक डिस्टर्ब' कर मुफ्त योजनाओं (दिल्ली मॉडल) का पिटारा खोल प्रदेश के परंपरागत खिलाड़ियों (भाजपा-कांग्रेस) की पेशानी पर बल ला दिए हैं।
इसके बाद आम आदमी पार्टी से होड़ में प्रदेश की सत्ता व विपक्ष की ओर से आधे-अधूरे मन से हिचकिचाते हुए कुछ मुफ्त की घोषणाएं की गई हैं। लेकिन इन घोषणाओं के स्वर ही इतने कमजोर हैं कि इन्हें प्रदेश में केवल आम आदमी पार्टी की काट के तौर पर देखा जा रहा है। कहने और सुनने वाले, दोनो को इनकी सच्चाई पता है। लेकिन कांग्रेस ने जरा हटकर सवर्ण बहुल्य प्रदेश में दलित मुख्यमंत्री (Dalit CM) की ताजपोशी के मुददे को हवा देकर मास्टर स्ट्रोक खेल दिया है। कांग्रेस पार्टी के चुनाव प्रचार समिति (ChunavPrachar Samiti) के प्रभारी एवं पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत (Harish Rawat) ने "वह एक दलित को राज्य के मुख्यमंत्री के पद पर देखना चाहते हैं", कहकर प्रदेश में दलित अस्मिता की एक नई बहस को जन्म दे दिया है।
यह निर्विवाद व स्थापित सत्य है कि आम आदमी पार्टी अपेक्षाकृत शहरी पार्टी मानी जाती है। वर्तमान में भी उसका अधिकांश फोकस शहरी क्षेत्र (Town area) ही है। नई पार्टी होने के कारण दूरस्थ गांवों (Villages) में अभी पार्टी का झण्डा-डंडा तक नहीं पहुंच पाया है। लेकिन भाजपा की पहाड़ों के चप्पे-चप्पे पर सवर्ण मतदाताओं में अच्छी खासी पकड़ है। दलित जातियां भी इन्हीं के प्रभाव में मतदान करती हैं।
हालांकि, सवर्ण पर्वतीय लोगों में पलायन दर अधिक होने के कारण यहां इनकी संख्या लगातार घट तो रही है। लेकिन सांस्कृतिक (cultural) जुड़ाव के चलते उनकी यहां उपस्थिति और समाज में प्रभाव बना हुआ है। इस गणित को भाजपा भी जानती है। इसीलिए भाजपा (BJP) ने अपना फोकस तराई की सिक्ख व बंगाली आबादी को रिझाने पर फोकस किया हुआ है। पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन कर आया सवर्ण मतदाता भाजपा अपना परंपरागत मतदाता मानकर चलती ही है।
इसी राजनैतिक-सामाजिक (Political and Social) ताने-बाने के धरातलीय बिंदु से प्रस्थान कर कांग्रेस के हरीश रावत ने सुदूर पर्वतीय क्षेत्र में उपेक्षित पड़े व कमजोर बसपा (BSP) से निराश मैदानी क्षेत्र के दलित समुदाय को अपने पाले में करने के लिए दलित कार्ड खेल दिया है।
हरिद्वार जिले (Haridwar district) के लक्सर में जनसभा को संबोधित करते हुए हरीश रावत पंजाब में दलित को मुख्यमंत्री बनाने को उत्तर भारत में इतिहास रचने की संज्ञा देते हुए जब "इतिहास में ऐसे मौके बेहद कम देखने को मिले हैं जब ऐसी नजीर पेश की गई", के साथ "मैं भगवान और मां गंगा से प्रार्थना करता हूं कि मुझे मेरे जीते जी एक दलित के बेटे को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के तौर पर देखने का अवसर मिले। हम इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए काम करेंगे" जैसे शब्दों को जोड़ रहे थे तो वह मील के एक पत्थर (Mile stone) की बुनियाद रख रहे थे। कांग्रेस नेता ने इन शब्दों के साथ दलितों की अभी नहीं तो भविष्य में ही सही राज्य की बागडोर संभालने की दलित आकांक्षाओं को हवा देकर उन्हें मनोवैज्ञानिक (Psychological) रूप से कांग्रेस से जुड़े रहने की एक वजह दे दी है।
राज्य के शासन से मान्यता प्राप्त प्रथम पत्रकार श्यामलाल का कहना है कि सच्चाई यही है कि देश के मेहनतकश व हाशिये पर पड़े दलितों को आज जो कुछ मिला है वह केवल कांग्रेस की ही देन है। कांग्रेस ने ही बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर (BR Ambedkar) को इतना स्पेस मुहैया कराया कि तमाम अंतर्विरोधों के बाद भी अपने समाज को इतना कुछ दे सके। भारतीय जनता पार्टी घोषित तौर पर सवर्ण पुरुष संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की राजनैतिक शाखा होने के चलते खुलकर सवर्णों के हितों की पूर्ति करती है।
उन्होंने कहा, "इसके नेता दलितों के घर खाना खा लेंगे। उनके पैर धो देंगे। कमजोर छिटपुट पदों (संवैधानिक बाध्यता से इतर) पर दलितों की सजावटी नियुक्ति कर देंगे। लेकिन अधिकारसम्पन्न व दलितों के हित साधने वाले पदों पर दलितों को बैठाने से परहेज करते हैं। एक झटके में बिना किसी मांग के सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण देना हो या भाजपा के लालजी टण्डन द्वारा मायावती से राखी बंधवा-बंधवाकर बसपा को ही राजनैतिक तौर पर खत्म करना हो, इन सबमें भाजपा निपुण है। जबकि देश में राजनीति की पहली धारा कांग्रेस सभी वर्गों के हितों का ध्यान रखती चली आयी है।"
उन्होंने आगे कहा कि कांग्रेस की परंपरा में किसी एक का हक़ मारकर दूसरे को थमा देना नहीं है। कांग्रेस कार्यकाल में सभी जातियों व वर्गों को विकास में छिटपुट-छिटपुट उनकी आबादी के अनुपात में हिस्सा मिलता रहा है। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इस प्रक्रिया में हर जाति-वर्ग को लगता है कि कांग्रेस ने उन्हें क्या दिया ? कांग्रेस के कार्यकाल में "हमें क्या मिला ?" का जयघोष करने वालों के पास शिकायतें तो थी लेकिन एकछत्र कांग्रेस राज होने के कारण किसी से तुलना नहीं कर पाते थे।
आज नई भाजपा के सात साल के शासन को देखकर कांग्रेस से शिकायत करने वालों के लिए तुलना करने के लिए भाजपा मौजूद है। कांग्रेस से "सब कुछ" मांगने वाले अब इस सरकार में "जिसके पास जो पहले से है उसी की खैर मनाने को मजबूर" हैं। उत्तराखण्ड में भी यदि दलित मुख्यमंत्री बनने का कोई मौका आएगा तो यह करिश्मा भी कांग्रेस की छत्रछाया में हो सकता है।
राज्य के प्रख्यात दलित चिंतक व लेखक राजाराम विद्यार्थी के अनुसार राज्य के पर्वतीय क्षेत्र में दलितों का राजनैतिक प्रतिनिधित्व उतना ही पुराना है जितना देश में निर्वाचन प्रक्रिया। ताड़ीखेत (रानीखेत तहसील) विकास खण्ड के सवर्ण बहुल्य गांव बिल्लेख से सन 1952 में प्रेमराम ने ग्राम प्रधान बनकर तथा नैनीताल सुरक्षित सीट से खुशीराम ने विधायक बनकर प्रथम निर्वाचित दलित प्रतिनिधि होने का गौरव प्राप्त किया था। राज्य निर्माण से पूर्व व बाद में भी यहां दलित समाज के जनप्रतिनिधियों के उभार के बाद "दलित मुख्यमंत्री" दूर की कौड़ी है।
सवर्ण बहुल्य प्रदेश का मनोवैज्ञानिक मिथक इतना बड़ा था कि अच्छी-खासी तादात होते हुए भी दलित इस सपने के पूरा होने की खुद ही उम्मीद नहीं कर रहे थे। राज्य निर्माण के बाद की राजनैतिक स्थितियों को देंखे तो पहली निर्वाचित नारायणदत्त तिवारी की कांग्रेस सरकार के दौरान ही विधानसभा अध्यक्ष जैसा भारी-भरकम पद यशपाल आर्य को मिला था। मुख्यमंत्री तिवारी भले ही सवर्ण ब्राह्मण समाज के रहे हों लेकिन उनके राजनैतिक गुलदस्ते में हिन्दू-मुसलमान-सिक्ख-अगड़े-पिछड़े सभी समुदायों के फूल खिलते थे। उनके लंबे राजनैतिक कैरियर की सफलता के मूल में भी यही विविधता थी। उसके बाद भाजपा सरकार में दलितों का हिस्सा कैबिनेट/राज्य मंत्री (कांग्रेस में भी यही) तक सीमित रहा।
वर्तमान तक भाजपा सरकार में राज्यपाल का पद ज़रूर एक दलित महिला के हिस्से आया, लेकिन वह उत्तराखण्ड से बाहर की थीं। वैसे भी यह ऐसा संवैधानिक पद है, जहां करने के लिए कुछ खास होता नहीं है। इसलिए यदि राज्य में दलित समाज का मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला तो निश्चित रूप से वह कांग्रेस में ही सम्भव है। एससी-एसटी एक्ट को खत्म करने का मंसूबा बनाकर सवर्ण हिंदुओं का तुष्टिकरण करने वाली भाजपा के राज में तो इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती।
वहीं उत्तराखण्ड कांग्रेस के प्रदेश महामंत्री व प्रदेश के प्रमुख दलित नेता किशोरीलाल का कहना है कि वैसे तो उत्तराखण्ड सवर्ण बहुल्य राज्य है। लेकिन सवर्ण ठाकुरों के बाद दलित इस प्रदेश की दूसरे (19%) नम्बर की महत्त्वपूर्ण आबादी है। सवर्ण ब्राह्मण व अल्पसंख्यक तीसरे चौथे नम्बर के आबादी समूह हैं। अभी तक प्रदेश में मुख्यमंत्री का पद ही ऐसा पद रहा है जो दलित समाज की पहुंच से दूर रहा है। कांग्रेस ने कैबिनेट मंत्री, राज्यसभा सांसद, विधानसभा अध्यक्ष (विधायक-सांसद के लिए सीट रिजर्व होने के कारण उसका उल्लेख नहीं) पदों तक बिना किसी संवैधानिक बाध्यता के भी दलित समाज को पहुंचाया है।
देश में 7643 जातियां निवास करती हैं। देश में व्याप्त सामाजिक सड़न को छोड़ दे तो लोकतंत्र में इन सभी जातियों व वर्गों का हिस्सा समान है। हर वर्ग को हर पद पर रहकर प्रतिनिधित्व करने का अधिकार प्राप्त है। कांग्रेस संविधान की इसी मूल भावना से राजनैतिक ऊर्जा लेती है। यही कांग्रेस की राजनीति का प्रस्थान बिंदु भी है। इसीलिए जब-जब देश में राजनैतिक समानता की बात होती है तो कांग्रेस का नाम एक बहुलतावादी राजनीति करने वाले दल के रूप में लिया जाता है।
देश के वंचित तबकों तक न्याय व संसाधनों में उनकी हिस्सेदारी के लिए कांग्रेस जानी जाती है। पंजाब का उदाहरण हमारे सामने है। जब दूसरे दल केवल कोरी घोषणाएं कर रहे हों तो ऐसी घोषणाओं को धरातल पर मूर्त रूप देकर धारा के विपरीत चलने का दुस्साहस कांग्रेस ही कर सकती है। कांग्रेस इतिहास रचने वाली पार्टी है। कांग्रेस की खींची लकीर के आस-पास भी दूसरे दल नहीं पहुंच पाते हैं। उत्तराखण्ड में भी मुख्यमंत्री पद पर दलित समाज का कोई व्यक्ति आसीन होगा तो वह कांग्रेस से ही आएगा।
बहरहाल, हरीश रावत का प्रदेश में दलित मुख्यमंत्री को देखने का सपना कब और कैसे, किन हालात में पूरा होगा, यह भविष्य के गर्भ में है। लेकिन आने वाले विधानसभा चुनाव के लिए प्रदेश में पहली बार दस्तक देनी वाली आम आदमी पार्टी ने अपनी मुफ्त योजनाओं की घोषणा से प्रदेश का परम्परागत पॉलिटिकल ट्रैक बदल दिया है तो हरीश रावत ने इस मास्टर स्ट्रोक से पैनल्टी कॉर्नर से फुटबॉल गोल पोस्ट में दागने की तैयारी कर ली है। युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के पीछे पूरी ताकत से खड़ी भाजपा बटालियन गोल होने से कैसे बचा पाएगी, यह देखना दिलचस्प होगा।