Uttarakhand Election 2022: उत्तराखंड विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेश में बढ़ती बेरोज़गारी पर बात भी जरूरी
Uttarakhand Election 2022: उत्तराखंड विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेश में बढ़ती बेरोज़गारी पर बात भी जरूरी
उत्तराखंड हिमांशु जोशी की रिपोर्ट
Uttarakhand Election 2022: एक फेसबुक पेज़ था, उत्तराखंड से जुड़ा हुआ। धर्म पर बड़ी जबरदस्त बहस छिड़ी हुई थी, मैं वहां पांच मिनट बिताने के बाद ही पेज़ से बाहर निकल गया। वहां खुद में नफ़रत समेटे ज्यादातर युवा थे। दिल्ली दंगो के बाद मन बड़ा व्यथित था कि कहां आईटी हब घोषित होता देश धर्म पर लड़ने लगा और उत्तराखंड में अपने भाई-बहनों के भी ऐसे विचार देख मानो रूह कांप गई।
कारण पर नज़र डालें तो खाली पड़े हुए और ऊपर से वाट्सएप यूनिवर्सिटी में डूबे युवाओं से इससे ज्यादा क्या उम्मीद करी जा सकती है, मैं चाहता हूं कि उत्तराखंड विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेश में बढ़ती बेरोज़गारी पर बात की जाए। चुनावी मौसम में युवाओं को भी चाहिए कि वह जाति, धर्म से जुड़े भरमाने वाले मुद्दों को छोड़ अपने असल मुद्दे बेरोज़गारी पर सरकार से बात करें। खुद का भी अच्छा करें और देश को भी आगे ले कर जाएं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के बेरोजगारी के आंकड़ों का विश्लेषण करने से पता चला है कि यूपी, पंजाब, गोवा और उत्तराखंड में दिसंबर 2021 के दौरान नौकरी पेशा लोगों की कुल संख्या पांच साल पहले से भी कम थी।
इन आंकड़ों के सामने आने के बाद और बिहार में रेलवे अभ्यर्थियों के आंदोलन के बाद से उत्तराखंड में भी विधानसभा चुनावों से पहले बेरोज़गारी एक बड़ा मुद्दा बन कर सामने आया है। कांग्रेस ने बेरोजगारी को लेकर भाजपा के विरोध में अभियान छेड़ दिया है। पार्टी को उम्मीद है कि इस पर उसे विधानसभा चुनाव में मतदाताओं का समर्थन मिलेगा।
कोरोना की वज़ह से और अधिक बढ़ी बेरोज़गारी
कोरोना के बाद वापस आए प्रवासियों की वज़ह से प्रदेश में बेरोज़गारी और भी अधिक बढ़ गई है। ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग, उत्तराखंड पौड़ी द्वारा जून 2021 में दिए गए आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में पहली लहर के दौरान सितंबर 2020 तक 3,57,536 प्रवासी वापस लौटे थे, जिसमें से सितंबर अंत तक 1,04,849 प्रवासी पुनः वापस चले गए।
जो प्रवासी प्रदेश में रहे अगर उनके रोज़गार पर नज़र दौड़ाएं तो उनमें से 38 प्रतिशत की आजीविका का मुख्य स्रोत मनरेगा था। जिसका बजट इस बार के बजट में केन्द्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने कम कर दिया है। कृषि, बागबानी और पशुपालन को आजीविका के तौर पर 33 प्रतिशत लोगों ने अपनाया और स्वरोज़गार अपनाने वाले प्रवासियों का प्रतिशत 12 था। आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि प्रवासियों द्वारा प्रच्छन्न बेरोजगारी या छुपी हुई बेरोज़गारी की गई थी।
जो रोज़गार में थे उनके क्या हाल
संगीत की शिक्षा प्राप्त करे देहरादून निवासी राहुल थापा कोरोना काल से पहले एक नामी स्कूल में संगीत सिखाते थे, कोरोना की वज़ह से स्कूल बंद होने पर वह ज़ोमेटो में डिलीवरी का काम करने लगे। कहने को रोज़गार के नाम पर और बेरोज़गारी के अवसाद से दूर रहने के लिए राहुल के पास नौकरी तो है पर महंगाई के इस दौर में उनके पास महीने के दस हज़ार रुपए ही बचते हैं जो एक बेहतर भविष्य के लिए नाकाफ़ी हैं। यही हाल मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के विधानसभा क्षेत्र खटीमा में रहने वाले विजय राणा के भी हैं, जो अमेज़न में डिलीवरी का काम करते हैं।
खटीमा के ही रहने वाले भास्कर चौसाली लॉकडाउन से पहले दिल्ली के चाणक्यपुरी में एक होटल में कार्य करते थे। अब उन्होंने अपने गांव में ही एक फ़ास्ट फूड रेस्टोरेंट खोला है। भास्कर कहते हैं कि गांव में इतना काम है कि मुझे अपने साथ दो-तीन सहयोगियों की आवश्यकता है लेकिन गांव में मनमाफ़िक काम भी नही किया जा सकता क्योंकि लोग खुद के काम से ज्यादा दूसरों के कामों पर ज्यादा ध्यान देते हैं। शहर की तेज़ जिंदगी में तो पड़ोसियों के नाम तक नही पता होते।
प्रदेशवासियों के रोज़गार की उम्मीद पंतनगर सिडकुल के हालात
प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी की वज़ह से पंतनगर में सिडकुल की स्थापना हुई थी। शुरू में दी गई सब्सिडी की वज़ह से बहुत से कम्पनियों ने सिडकुल में अपना डेरा डाल था, पर अब कोरोना की वज़ह और सब्सिडी समाप्त होने के बाद से बहुत सी कम्पनियां या तो वापस चले गई हैं या उन्होंने कर्मचारियों की छंटनी शुरू कर दी है। जैसे बहुराष्ट्रीय कंपनी एचपी इंडिया द्वारा अपना प्लांट अचानक बंद कर दिया गया था।
यूट्यूब चैनल 'अनसुनी आवाज़' चलाने वाले रुद्रपुर निवासी वरिष्ठ पत्रकार रूपेश कुमार बताते हैं कि सिडकुल के शुरुआती दौर में लगभग 450 कम्पनी रजिस्टर थी पर उसमें से लगभग 30 प्रतिशत के प्लॉट अब भी खाली हैं। अभी मात्र 150 प्लांटों में काम चल रहा है, उनमें भी अधिकतर कम्पनियां बड़ी कम्पनियों की वेंडर हैं। सिडकुल से उत्तराखंड के युवाओं को रोज़गार तो मिला नही ,ऊपर से पंतनगर यूनिवर्सिटी की हज़ारों एकड़ की खेती वाली भूमि भी बेकार हो गई।
अल्मोड़ा निवासी ललित नैनवाल कहते हैं कि मेरा वोट उस पार्टी को जो उत्तराखंड से पलायन को रोक सकें और कम कर सके। जो युवा पीढ़ी के दर्द को पहचान सकें। उत्तराखंड में रोजगार के लिये सिडकुल और कम्पनियां बहुत हैं पर फिर भी पलायन क्यों कम नही हो पा रहा हैं। अपने राज्य में रोजगार होने के बावजूद भी उत्तराखंड का युवा वर्ग यहां काम नही करना चाहता है क्योंकि यहां कम्पनियों का मानदेय 8 से 10 हजार रुपये है ,इतनी कम सैलरी में क्या हो पाता है। आज भी उत्तराखंड के युवा वर्ग को 18-20 हज़ार कमाने के लिये दूसरे राज्यों को पलायन करना पड़ता है, ऐसा क्यों!
क्या यहां की सरकारें यहां की कम्पनियों द्वारा दिया जाने वाला मानदेय तय नही कर सकती हैं! अगर उत्तराखंड के सिडकुलों में 18 से 20 हजार रुपये मानदेय सरकार तय कर देती है तो उत्तराखण्ड से पलायन खुद कम होना शुरू हो जाएगा, आने वाली सरकार इस बारे में सोचे।
क्या है समाधान
उत्तराखंड में बेरोज़गारी के सवाल पर फ़िल्म और पत्रकारिता जगत से जुड़े पौड़ी निवासी गौरव नौडियाल कहते हैं कि सरकार ने रोज़गार की जगह पुल बनाने और सड़कें चमकाने को प्राथमिकता में रखा। प्रदेश के सारे बज़ट को कंस्ट्रक्शन में डाल दिया गया। इको-टूरिज्म से प्रदेश में नौकरियां लाई जा सकती थी पर उसके लिए योजनाएं बनानी होंगी, मूलभूत ढांचे तैयार करने होंगे, वर्कशॉप के ज़रिए स्किल्ड लोग तैयार करने होंगे।
उत्तराखंड कांग्रेस के फेसबुक पेज़ में हरीश रावत लिखते हैं
#हमने_किया_है_आगे_भी_करके_दिखाएंगे
#जय_जैविकता
जीवन के लक्ष्य होते हैं, मेरे अवशेष जीवन का लक्ष्य अब उत्तराखंड और #उत्तराखंडियत है, अब उसमें मैंने एक और लक्ष्य जोड़ दिया है जैविक उत्तराखंड, राज्य के आर्थिक उन्नयन के लिए जैविकता मिशन आवश्यक है और जैविकता के लिए खाद बनाओ का नारा गांव-गांव गूंजना आवश्यक है। सरकार आएगी आपके गाय-भैंस का गोबर, कांग्रेस की सरकार खरीदेगी, वर्मी कंपोस्ट बनायेगी उसमें गांव के इर्द-गिर्द का सारे झाड़-झंकार से वर्मी कंपोस्ट बनेगा। राज्य के प्रत्येक गांव में एक वर्मी कंपोस्ट प्रतिनिधि का चयन कर, उसे प्रशिक्षित कर वर्मी कंपोस्ट को एक बड़े व्यवसाय के रूप में विकसित करेंगे। मैंने कहा था न कि "मेरा गांव-मेरा रोजगार", उस नारे का यह एक कदम है ।
जय हिंद, जय उत्तराखंड, जय उत्तराखंडियत, जय जैविकता।
उत्तराखंड के केबर्स गांव में कोरोना के बाद बिगड़ी भारतीय अर्थव्यवस्था के चलते गांव के 18 से 25 साल तक के करीब 55 लड़के घर पर हैं। इनमें से कई लॉकडाउन से पहले शहरों में काम करते थे, लेकिन अब वो खाली हैं। ग्राम प्रधान कैलाश सिंह रावत पास गांव में रोज़गार पैदा करने के कुछ उपाय हैं जो रोज़गार को लेकर शोर मचाने वालों को ध्यान से सुनने चाहिए। वह कहते हैं कि गांव के खाली पड़े हुए घरों को रहने लायक बनाकर 'विलेज टूरिज्म' की दिशा में बढ़ा जा सकता है। साइटसीइंग, बर्ड वॉचिंग और फॉरेस्ट वॉक के साथ ही परफॉर्मिंग आर्ट को आय के साधन के रूप में विकसित कर सकते हैं। इकॉनमी का सस्टेनेबल मॉडल तैयार करना होगा, जिससे गांव में ही रोजगार सृजित हो सके।