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राष्ट्रीय

जब न्यायपालिका भी निराश करती है तो आदिवासी नक्सल बनने के लिए मजबूर हो जाते हैं ?

Janjwar Desk
9 April 2021 12:04 PM IST
जब न्यायपालिका भी निराश करती है तो आदिवासी नक्सल बनने के लिए मजबूर हो जाते हैं ?
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भारत में नक्सली हिंसा की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से हुई जिससे इस आंदोलन को इसका नाम मिला। हालांकि इस विद्रोह को तो पुलिस ने कुचल दिया लेकिन उसके बाद के दशकों में मध्य और पूर्वी भारत के कई हिस्सों में नक्सली गुटों का प्रभाव बढ़ा है.....

वरिष्ठ पत्रकार दिनकर कुमार का विश्लेषण

छत्तीसगढ़ के बीजापुर में तीन अप्रैल की सुबह 11 बजे से शाम 4 बजे तक नक्सलियों और सुरक्षा बल के बीच मुठभेड़ हुई और इस मुठभेड़ में 22 जवान शहीद हो गए। 22 लोगों की मौत ने एक बार फिर नक्सली हिंसा की गंभीरता का अहसास कराया है। लेकिन इस समस्या की गहरी जड़े हैं जो लगभग साठ साल पुरानी हैं। नक्सली हवा से पैदा नहीं होते। जब जल-जंगल-जमीन के अधिकारों से मूल निवासियों को वंचित किया जाता है और अदालतें भी अत्याचारियों का साथ देने लगती है तब गरीब आदिवासी नक्सल बनने के लिए मजबूर होते हैं।

भारत में नक्सली हिंसा की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से हुई जिससे इस आंदोलन को इसका नाम मिला। हालांकि इस विद्रोह को तो पुलिस ने कुचल दिया लेकिन उसके बाद के दशकों में मध्य और पूर्वी भारत के कई हिस्सों में नक्सली गुटों का प्रभाव बढ़ा है। इनमें झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश जैसे राज्य शामिल हैं।

इन दशकों में सुरक्षा बल और नक्सलियों के बीच कई मुठभेड़ों हुई हैं जिनमें सैकड़ों लोग मारे गए हैं। माना जाता है कि भारत के कुल छह सौ से ज्यादा जिलों में से एक तिहाई नक्सलवादी समस्या से जूझ रहे हैं। विश्लेषक मानते हैं कि नक्सलवादियों की सफलता की वजह उन्हें स्थानीय स्तर पर मिलने वाला समर्थन है।

नक्सलियों का कहना है कि वो उन आदिवासियों और गरीबों के लिए लड़ रहे हैं जिन्हें सरकार ने दशकों से अनदेखा किया है। माओवादियों का दावा है कि वो जमीन के अधिकार और संसाधनों के वितरण के संघर्ष में स्थानीय सरोकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। माओवादी अंततः 'एक कम्युनिस्ट समाज' की स्थापना करना चाहते हैं, हालांकि उनका प्रभाव आदिवासी इलाकों और जंगलों तक ही सीमित है।

शहरी इलाकों में उन्हें आम तौर पर हिंसक और चरमपंथी माना जाता है। सरकार इस बात को लेकर पशोपेश का शिकार दिखती है कि उनसे निपटने के लिए सेना को तैनात किया जाए या नहीं।

आदिवासियों के हितों से जुड़े मामलों पर फैसले सुनाने वाले उच्चतम न्यायालय के परस्पर विरोधी रुख से हम अनुमान लगा सकते हैं कि किस तरह न्याय से वंचित कर अदालतें आदिवासियों को बंदूक उठाने के लिए मजबूर कर रही हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने 24 मार्च 2014 को कहा था कि आदिवासियों से ताकतवरों को ज़मीन का अवैध हस्तांतरण उनको नक्सलवाद की ओर मोड़ने के लिए मजबूर कर रहा है। झारखंड में आदिवासियों से भूमि हड़पने के मामले पर विचार करत हुए न्यायमूर्ति के एस राधाकृष्णन और विक्रमजीत सेन की खंडपीठ ने कहा कि अगर राज्य और अदालतों से सुरक्षा नहीं मिली तो ऐसे अत्याचार के चलते लोग नक्सली बनने के लिए मजबूर होते रहेंगे।

"आदिवासियों को अपनी भूमि से वंचित होने के लिए मजबूर किया जा रहा है और लोग नक्सली बन रहे हैं। क्या हम मूक दर्शक बने रहेंगे? ये सभी शक्तिशाली लोग हैं जो उनसे जमीन छीनने के लिए सब कुछ कर रहे हैं।"

अदालत एक रमेश कुमार राही की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें अवैध रूप से आदिवासी भूमि हस्तांतरण का आरोप लगाया गया था। आरोपियों में से एक झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन के पुत्र हेमंत सोरेन शामिल थे।

राही के वकील सुभ्रो सान्याल ने दावा किया था कि राज्य भर में भूमि हस्तांतरण में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी हुई थी और छोटानागपुर किरायेदारी अधिनियम का उल्लंघन करते हुए आदिवासी भूमि को हस्तांतरित किया जा रहा था। उन्होंने कहा कि अधिनियम ने यह निर्धारित किया है कि एक आदिवासी व्यक्ति अपनी जमीन केवल दूसरे आदिवासी को हस्तांतरित कर सकता है, जो उसी जिले का निवासी है।

यह बताते हुए कि सोरेन का मामला केवल एक दृष्टांत था, लेकिन याचिकाकर्ता ऐसे सभी विवादास्पद स्थानांतरण पर रोक चाहता था, सान्याल ने कहा कि वर्तमान मामले में, सोरेन ने 2007 में धनबाद जिले में एक जमीन खरीदी थी, जबकि नामांकन पत्र में उन्होंने खुद को बोकारो जिले का एक निवासी दिखाया था। वकील ने कहा कि याचिकाकर्ता ने उपायुक्त (डीसी) को बार-बार लिखा कि वे इस तरह के गलत कामों के बारे में पूछताछ करें, पर कोई फायदा नहीं हुआ।

सरकार की ओर से पेश एजी वाहनवती ने हालांकि याचिका का विरोध किया और झारखंड उच्च न्यायालय के आदेश का हवाला दिया, जिसके तहत राही की जनहित याचिका को "निजी हित याचिका" होने के कारण खारिज कर दिया गया था। अदालत ने हालांकि भूमि हस्तांतरण की जांच करने का फैसला किया और डीसी को आदेश दिया कि वह एक रिपोर्ट दर्ज करें।

सुप्रीम कोर्ट ने तब ये माना था कि जमीन से अलग किए जाने की वजह से आदिवासी नक्सली बनने को बाध्य हो सकते हैं। लेकिन साल 2019 में इसी सुप्रीम कोर्ट ने 11 लाख से अधिक आदिवासियों को जंगल की जमीन से बेदखल करने आदेश दिया।

13 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ ने एक एनजीओ की याचिका पर सुनवाई करते हुए 11 लाख से अधिक आदिवासियों को जमीन से बेदखल करने का आदेश दे दिया। इस आदेश की वजह से करीब 20 राज्यों के आदिवासियों और जंगल में रहने वाले अन्य लोग प्रभावित होंगे।

सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला इस वजह से भी आया क्योंकि केंद्र सरकार आदिवासियों और वनवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए बने एक कानून का बचाव नहीं कर सकी। एनजीओ की तरफ से जो याचिका दायर गई थी उसमें ये मांग थी कि वे सभी जिनके पारंपरिक वनभूमि पर दावे कानून के तहत खारिज हो जाते हैं, उन्हें राज्य सरकारों द्वारा निष्कासित कर दिया जाना चाहिए।

आसान भाषा में कहे तो आदिवासियों से उन जमीनों का सबूत मांगा गया जिसपर वो रहते आए हैं। कानून, दस्तावेज की भाषा न समझने वाले आदिवासी कहां से सबूत दें ? अदालत में मोदी सरकार पर उन आदिवासियों के प्रतिनिधित्व की जिम्मेदारी थी, जिसे निभाने में सरकार असफल साबित हुई।

केंद्र सरकार को अपने सुप्रीम कोर्ट में अपने ही कानून के समर्थन में दलील पेश करनी थी, जो सरकार नहीं कर पाई। सरकार को जिस कानून का बचाव करना था वो कानून है 'वन अधिकार कानून' जिसे संसद ने वर्ष 2006 में पारित किया गया था। इस कानून को फॉरेस्ट एक्ट 2006 कहा जाता है। इस कानून के मुताबिक इन जंगलों में किसी भी गतिविधि को तब तक नहीं किया जाना चाहिए जब तक कि व्यक्ति और समुदाय के दावों का निपटारा नहीं हो जाता।

साथ ही आदिवासी और वनवासियों के लिए काम करने वाली एक संस्था 'अभियान फॉर सर्वाइवल एंड डिग्निटी' का आरोप है कि सुनवाई के समय केंद्र सरकार का वकील कोर्ट में मौजूद ही नहीं था। इस मामले में केंद्र सरकार की भूमिका बेहद ही गैरजिम्मेदाराना, दोषपूर्ण और संदिग्ध नजर आती है। साफ लगता है कि सरकार ने अपनी आदिवासी-विरोधी कार्पोरेट नीतियों को विस्तार देने के लिए ऐसा किया।

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