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4 हजार सैनिक, 18 घंटे का सर्च आॅपरेशन पर नहीं मिला एक भी आतंकवादी
1989 के बाद पहली बार चला ऐसा आॅपरेशन, लोग खौफ के साये में
खतरनाक बात यह है कि बंदूकों के मुकाबले पत्थर फेंक रही 12 से 18 वर्ष के कश्मीरी युवाओं की इस नई पीढ़ी में सबसे ज्यादा विद्यार्थी हैं और भाड़े के पत्थरबाज अब पुरानी कहानी बन चुकी है...
जम्मू—कश्मीर से आई.डी. खजूरिया की रिपोर्ट
जम्मू के अखनूर में तैनात लेफ्टिनेंट उमर फैयाज की 10 मई को कश्मीर के शोपियां में आतंकियों ने हत्या कर दी थी। फैयाज की 10 मई को उस समय हत्या कर दी गयी थी जब वह एक शादी में शामिल होने अपने शोपियां गए थे। लेफ्टिनेंट फैयाज कुलगाम के रहने वाले थे।
लेफ्टिनेंट की हत्या के बाद से फिर एक बार जवाबी कार्रवाई और आतंकियों को मटियामेट कर देने की कसमें भारतीय सरकारी मशीनरियां खाने लगी हैं। अगर आप कश्मीर की थोड़ी जानकारी रखते हैं और आतंकी घटनाओं और पीड़ित कश्मीरी अवाम के प्रदर्शनों से वाकिफ हैं तो जवाबी कार्रवाई की कसमें बहुत मामूली किस्म का चुटकुला जान पड़ेंगी जिसको सुनकर न हंसना आता है न रोना।
जैसे कि अब और नहीं, ईंट से ईंट बजा देंगे, पाकिस्तान के दस सिर लाएंगे, एक—एक आतंकियों का सफाया होकर रहेगा, आदि—इत्यादि।
पर किसी भी सरकारी मशीनरी को इस बात की चिंता नहीं है कि जम्मू—कश्मीर में पिछले 27 वर्षों से चल रही लाशों की खेती कब बंद होगी, कब जनाजे उठने थमेंगे और कब वहां के नागरिक अमन और चैन की जिंदगी से बावस्ता हो पाएंगे?
क्या इस सवाल के बारे में सोचे बिना सरकार जवानों की हत्या और प्रतिहत्या का सिलसिला रोक पाएगी? कैसे वह देश की सुरक्षा में तैनात जवानों को गलत राजनीतिक रणनीति और सांप्रदायिक संतुष्टता के दोजख से बचाएगी? पहली फिक्र अवाम की किए बगैर कोई हल निकल पाएगा?
मेरा मानना है, नहीं। पर सरकार ऐसा नहीं सोच पाती। सेना प्रमुख बिपिन रावत बयान देते हैं कि हथियार आतंकियों से निपट लेंगे। मानो हथियार आकाश में चलेंगे और आतंकवाद पर कोई हवाई निशाना होगा। बिपिन रावत की उसी जिद का नतीजा था कि शोपियां के 25 गांवों में 4 मई को 4 हजार सेना के जवानों ने सर्च आॅपरेशन किया। इसके अलावा हेलीकॉप्टर भी गांव के ऊपर दिन भर मंडराते रहे।
दिनभर चले 4 हजार सैनिकों के आॅपेरशन में पूरे दिन और देर रात तक घर के लोग बाहर सड़कों पर पड़े रहे। उनके अनाजों, कपड़ों और सामानों को सेना ने तहस—नहस कर दिया। आप इसे सर्च आॅपरेशन की सामान्य प्रक्रिया भी कह सकते हैं? पर कश्मीर की आवाम नहीं कह सकती।
बाजारू मीडिया में इस सर्च आॅपेरशन के बारे में ऐसे प्रचारित किया गया मानो किसी दुश्मन देश पर हमला हुआ हो। मीडिया विजय गीत गाती रही पर एक पंक्ति का सच आपको नहीं बताया।
आइए हम यहां बता देते हैं...
मीडिया ने यह नहीं बताया कि जिस सर्च आॅपरेशन ने 1990 के बाद जैसे हालात मानने को कश्मीरी जनता को बाध्य कर दिया है, उस 4000 सैनिकों वाले आॅपरेशन में एक आतंकी नहीं मिला। हजारों सैनिकों की फौज फाटा, कुत्तों का रेला और हेलीकॉप्टर मिलकर एक आतंकवादी नहीं पकड़ सके पर महीनों और वर्षों में खरीदे—बनाए सामानों और घरों को सेना ने जरूर तोड़—फोड़ कर दिया, अनाज और भोजन सामग्री को लगभग बर्बाद कर दिया।
इसकी भरपाई देश को किस रूप में करनी पड़ती है? जनता के असहयोग के रूप में। उदाहरण आपके सामने है। एक कश्मीरी नौजवान मर जाए तो सड़कों पर कश्मीर उमड़ पड़ता है, लेकिन उसी कश्मीर का एक सैनिक, वह भी मुसमलान उमर फैयाज मारा गया तो नजदीकी रिश्तेदारों, कुछ ग्रामीणों और मीडिया वालों को छोड़ आम लोग नहीं आए?
न आना अपने आप में संदेश है, विग्रह है, सत्याग्रह है और साथ ही सबसे बढ़कर असहयोग है। इस जन असहयोग से सेना की बंदूक कैसे निपट पाएगी। अक्टूबर 2016 में बुरहान बानी के मारे जाने से पहले तक इतने व्यापक विरोध प्रदर्शन होने बंद हो गए थे। पर सरकार नहीं चेती। उसने शांति और वार्ता की सभी संभावनाओं को एक तरफ से नकार दिया।
उसी नकार का घातक परिणाम हमारे सामने आ रहा है। कश्मीर के प्रदर्शनकारियों में सबसे बड़ी तादाद 12—13 साल से लेकर 17—18 वर्ष के बच्चों की है, जिनके अंदर यह भावना नए सिरे से भर रही है कि भारत हमारा देश नहीं है। ये सेना हमारी नहीं है। पुलिस और फौज भारत के लिए काम करती है और हमारे निर्दोष लोगों को मारती है। ये युवाओं की ऐसी नई पीढ़ी है जिसको मौत से कोई डर नहीं, गोलियों का कोई भय नहीं।
आप ठंडे दिल से सोचिए कि इन भावनाओं को निकालने और भारत के प्रति प्रेम व भरोसा पनपाने के काम बंदूकें आएंगी या वार्ताएं और शांति का पथ।
पर सरकार को शांतिपथ पर बढ़ने में कोई दिलचस्पी नहीं है। सरकारों की एकतरफा सैद्धांतिक समझ और गैर जिम्मेदाराना व्यवहार ने आज जम्मू—कश्मीर को बर्बादी के कगार पर लाकर रख दिया है। यहां लाखों कब्रें बन चुकी हैं। पिछले 27 सालों में हजारों गुमशुदा नौजवानों की तलाश, हजारों बेवा औरतों की दर्द भरी कहानियॉं जन्नत-ए-कश्मीर के लिए मौलिक सवाल बन चुका है।
अमूमन देखा गया है कि हमारे राजनेता हमेशा की तरह सिद्धांत को व्यवहार में उतारने की बात करते रहे, मगर बातचीत के बजाय दबाव व वोटों की राजनीति पर कश्मीर की बली चढाई जाती रही। चुनाव जीतने वाले कहते रहे कि एक सिर के बजाये 10 सिर लाने होंगे। बातचीत आतंकी से नहीं होनी चाहिए। सत्ता में बैठे हुए लोग डरते रहे और बंदूक की तादाद बढ़ाते रहे।
मगर इस तरफ कोई ध्यान ही नहीं दिया कि काले कानूनों व सुरक्षा बलों का दबाव एक नई नस्ल बना चुका है, जिसको मौत से कोई डर नहीं है। पिछले साल जुलाई माह से लगातार नौजवान कुर्बानियां देते जा रहे हैं और भारतीय सेनाओं के जवान भी शहीद हो रहे हैं।
बॉर्डर पर रोज़ गोलीबारी से आम जनता त्रस्त है और उनके जानमाल का नुकसान हो रही है, फसलें तबाह हो रही हैं। दूसरी तरफ कश्मीरी जनता का रुख देखकर लगता है कि इन सब कार्रवाइयों से वह उनका हौसला पस्त होने वाला नहीं है, न ही वे इस दबाव की नीति के आगे घुटने टेकेंगे।
at Saturday, May 13, 2017