बीते 8 नवंबर को स्थानीय अखबारों में खबर आई कि 'जर्जर दीवार गिर जाने से उसमें दबकर एक 10 वर्षीय दलित बच्ची की मौत हो गई'। यह खबर एक सामान्य घटना की सूचना दे रही थी, बावजूद इस घटना ने मुझे आकर्षित किया और मैं जा पहुंचा बाधाडीह गांव...
विशद कुमार
झारखंड के बोकारो जिला मुख्यालय से मात्र पांच कि.मी. दूर और चास प्रखंड मख्यालय से मात्र चार कि.मी. दूर बोकारो-धनबाद 4-लेन एनएच—23 के तेलगरिया से कोयलांचल झरिया की ओर जाने वाली सड़क किनारे बसा है बाधाडीह-निचितपुर पंचायत। इस पंचायत का एक टोला है डोम टोला। टोकरी बुनकर और दैनिक मजदूरी करके अपना जीवन बसर करने वाले यहां बसते हैं अति दलित समझी जाने वाली डोम जाति के लगभग 16 घर के लोग।
पिछले 8 नवंबर को स्थानीय अखबारों में खबर आई कि, 'जर्जर दीवार गिर जाने से उसमें दब एक 10 वर्षीया दलित बच्ची की मौत हो गई'। यह खबर एक सामान्य घटना की सूचना दे रही थी, बावजूद इस घटना ने मुझे आकर्षित किया और मैं जा पहुंचा बाधाडीह गांव। गांव के कई लोगों से घटना के बारे में मिली जानकारी के बाद जब मैं सड़क के किनारे बसे बाधाडीह के इस डोम टोला पहुंचा, तो मुझे चमचमाती सड़क इस डोम टोला को मुंह चिढ़ाती लगी, गोया वह इतरा कर कह रही हो कि 'तुमसे तो ज्यादा खुबसूरत मैं हूं, देखो मुझपर कितनी न्योछावर हैं सरकारें।'
सड़क किनारे ही पंचायत कोटा से निर्मित एक पानी की टंकी थी, जिसका निर्माण शायद कमीशन खोरी के कारण हुआ हो। क्योंकि इस टोले में विकास की तस्वीर का यही एक जीता—जागता प्रमाण दिखा था।
मैंने सड़क किनारे मोटर साईकिल खड़ी की और उस पानी की टंकी के पास खड़ी महिलाओं की ओर मुखातिब हो पूछा — 'दीवार से दबकर जो बच्ची ..... ' मेरा सवाल पूरा हो उसके पहले ही वें बगल की जमीन पर बिछी चादर पर लेटी एक औरत की ओर इशारा करते हुए बोल पड़ीं — 'वो है उसकी मां।'
शायद उसने भी मेरे सवाल के साथ साथ उन महिलाओं के जवाब को सुन भी लिया था, वह तुरंत उठ बैठी।
मैंने पूछा — 'आपका नाम?'
'चंद्रमुखी देवी।'
'पति का नाम?'
'स्व. मनोज कालिंदी।' उसके बोलने के पहले ही पास खड़ा एक 20—22 साल का लड़का बोल पड़ा। मेरे सवाल पर उसने बताया कि कालिंदी डोम जाति में आता है।
'ओह! कितने दिन हुए मनोज की मौत के?'
'करीब सात साल।' मेरे सवाल का इस बार जवाब चंद्रमुखी ने ही दिया था। उसकी आवाज भर्राई हुई थी।
चंद्रमुखी ने पति के बारे में बताया कि वह काफी दिनों तक बीमार था, इलाज के अभाव में उसकी मौत हो गई थी।
पति की मौत के बाद सहारा के नाम पर दो बेटियां रूपा कुमारी 10 वर्ष और पूजा कुमारी 12 वर्ष थीं। जिसमें एक बेटी रूपा कुमारी की मौत पिछले 7 नवंबर को दीवार गिरने से उसके मलवे में दबकर हो गई। इस घटना में पड़ोस की आठ वर्षीया रेशमा का हाथ टूट गया और चार वर्षीय प्रेम की गर्दन में गंभीर चोट आई। वे बच्चे दीवार की बगल में खेल रहे थे।
'दीवार कितनी पुरानी थी?' के जवाब में चंद्रमुखी ने बताया कि दो ढाई साल पहले वह और उसकी बेटियों ने इधर—उधर से ईंट मांग कर मिट्टी-गारा से जुड़ाई करके किसी तरह दीवार खड़ी कर पाई थी। क्योंकि पहले मिट्टी की दीवार थी जो बरसात के पानी से टूट-टूट कर गिर रही थी।
मैंने साफ देखा कि गिरी हुई दीवार के मलवे की ईंट में मिट्टी लगी हुई थी। छत के नाम पर प्लास्टिक की चादर फैली हुई थी। जो सरकार की जनाकांक्षी योजनाओं की पोल खोलती साफ नजर आ रही थी। प्रधानमंत्री आवास योजना का ढपोरशंखी नारा व घोषणाओं 'बनते घर, पूरे होते सपने' व 'एक करोड़ घरों का निर्माण' की कलई खुलती यहां साफ दिख रही थी।
मुझे लगा 'एक करोड़ घरों का निर्माण' में शायद ऐसे दलितों का हिस्सा नहीं है। मेरे इस संसय का जवाब चास प्रखंड के बीडीओ संजय शांडिल्य से मिल गया, जब मैंने उनसे यहां से लौटने के बाद इस दलित टोले के दलितों को प्रधानमंत्री आवास नहीं मिलने के कारण पर सवाल किया तो उन्होंने बताया कि '2011 के सामाजिक आर्थिक एवं जातीय जनगणना में इनका नाम शामिल नहीं है, अत: इसी कारण इन्हें इसका लाभ नहीं मिल पाया है।'
टोले के लोगों की उत्सुकता मेरी ओर बढ़ गई थी, शायद वे लोग मुझे सरकारी मुलाजिम समझ रहे थे। मुझे उन्हें समझाना पड़ा कि मैं एक पत्रकार हूं, मैं केवल आपकी समस्या लिखूंगा।
जमा हुई भीड़ से मैंने पूछा— 'इंदिरा गांधी आवास या प्रधानमंत्री आवास यहां किसी को मिला है?'
'नहीं बाबू।' एक स्वर में सभी बोल पड़े।
'इसके लिए आवेदन दिया है आपलोगों ने कभी?'
'मुखिया को दिया है, लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ।' सबने बताया।
'आपलोग यहां कितने दिनों से रह रहे हो?'
'कई पीढ़ी से हैं। वो देखिए अंग्रेज लोगों का बनाया हुआ घर, हमारे पूर्वज उसी समय से यहां रह रहे हैं।' एक युवक ने एक कंदरा नुमा ढांचा की ओर इशारा किया जिसमें तीन कंदरे थे, जिसके एक कंदरे में किसी ने बिना दरवाजा का घोंसला बना लिया था। हम उसे घोंसला इसलिए कह रहे हैं क्योंकि उसमें कहीं से इंसान के रहने का संकेत नहीं हो रहा था। वह सचमुच अंग्रेजों का निर्माण था, मगर मेरे लाख दिमाग खपाने के बाद भी मेरी समझ में नहीं आया कि अंग्रेजों ने उसे किस मकसद से बनाया था। वह पुल की तरह दोनों तरफ से खुला था।
मैंने चंद्रमुखी की ओर मुड़कर पूछा — 'आपका राशन कार्ड है?'
'नहीं बाबू।' उसने करूण भाव में बताया।
'आपको विधवा पेंशन मिलता है?'
इस बार भी उसने 'ना' में जवाब दिया।
'आधार कार्ड और वोटर कार्ड है?'
'हां है।'
'मतलब आपलोग वोट देते हो?'
'हां।' इस बार वहां खड़े सभी ने एक स्वर में कहा।
'आयुष्मान भारत का कार्ड है?'
'नहीं बाबू, कुछ भी नहीं है।' दो—तीन लोग एक साथ बोल पड़े।
पास खड़े युवक से पूछा — 'आपका नाम क्या है?'
'जी, राजू।'
'आप कितने पढ़े हो?'
'स्कूल ही नहीं गया तो पढ़ेंगे कहां से ।' उसका जवाब था, उसने यह भी बताया कि यहां कोई पढ़ा—लिखा नहीं है।
'क्या करते हो?'
'हाजिरी (दैनिक मजदूरी) का काम।'
'यहां कोई सरकारी नौकरी में है?'
'नहीं।' रोजगार के बारे में पूछे जाने पर उसने आगे बताया कि 'हमारे बाप—दादा टोकरी वगैरह बनाकर, उसे बेचकर रोजी—रोटी चलाते थे। आज भी कुछ लोग बाप—दादा वाला भी काम करते हैं। हमलोग हाजिरी का काम करके किसी तरह बाल बच्चा पाल रहे हैं। सरकार की तरफ से कोई सुविधा नहीं है।' वह कातर स्वर व शिकायती लहजे में बोलता चला गया, जैसे उसे पता हो कि सरकारी योजनाएं उनके लिए ही बनी हैं, मगर उसपर किसी दूसरे ने अधिकार जमा लिया है।
पास खड़े दूसरे युवक से पूछा — 'आपका नाम क्या है?'
'डबलू।'
'कितने पढ़े हो?'
'स्कूल ही नहीं गया तो कहां से पढ़ेंगे।'
'क्या करते हो?'
'हाजिरी का काम।'
'यहां राशन कार्ड कितने लोगों के पास है?' मेरे सवाल पर एक महिला ने जवाब दिया — 'किसी के पास नहीं है।'
'यहां बुढ़े लोग कितने हैं?'
'पांच—सात लोग है।' अबकि राजू ने जवाब दिया।
'उन्हें तो वृद्वा पेंशन मिलता होगा?'
'किसी को नहीं मिलता है सर।'
'तो उनका भरण पोषण कैसे होता है?'
'कुछ लोग भीख मांगकर खाते हैं तो कुछ लोग कोई हल्का—फुल्का काम वाम कर लेते हैं।' राजू के जवाब पर मैं आवाक रह गया।
बोकारो इस्पात नगरी से मात्र छ:—सात कि.मी. दूर बसा इस गांव के लोग किस युग में जी रहे हैं! जबकि इस गांव से मात्र तीन—चार कि.मी. दूरी पर वेदांता लिमिटेड का 45 लाख टन उत्पादन क्षमता वाला स्टील प्लांट भी है।
जब मैंने बीडीओ से राशन कार्ड पर सवाल किया तो उनका जवाब था — 'इस बारे मे आपूर्ति पदाधिकारी ही कुछ कह सकते हैं।' आपूर्ति पदाधिकारी से बात इसलिए नहीं हो पाई कि उनका मोबाइल लगातार बंद रहा था।
वहां की दशा देखने के मेरे जेहन में दुष्यंत कुमार की पंक्ति स्वत: कौध गई।
कहां तो तय था चरागां हर घर के लिए,
कहां चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।
दूसरी तरफ आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री की यह पंक्ति भी ताजा हो गई
''उपर उपर पी जाते हैं, जो पीने वाले हैं,
कहते—ऐसे ही जीते हैं, जो जीने वाले हैं!''
शायद आज भी हम उसी लोकतांत्रिक ढांचे के साथ खड़े हैं, जिसको महल में तब्दील करने का सपना आजादी के बाद हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने तैयार किया था, इस लोकतांत्रिक ढांचे में जनाकांक्षाओं को ध्यान में रखकर जिन—जिन योजनाओं की ईंट उन्होंने जोड़ी थी, उस ईंट का यदा—कदा एकाध टूकड़ा ही उन तक पहुंच पाया है, जिनके लिए वे योजनाएं बनी थीं।
जबकि दूसरी तरफ इन ईंटों के टूकड़ों को समाज का चतुर चालाक तबका आपस में बांटता चला गया है।