अमरनाथ आतंकी हमले के राजनीतिक 'सदुपयोग' की फिराक में भाजपा
अमरनाथ यात्रियों पर हुआ आतंकी हमला हो या कोई हमला, हमने हर बार देखा है कि राजनीतिक पार्टियों के लिए यह वोट संगठित करने का सर्वाधिक माकूल वक्त बन जाता है...
वीएन राय, पूर्व आईपीएस
लश्कर जो भी कहानी गढ़े, चाहे भारत की इंटेलिजेंस पर दोष मढ़े, थी यह शत प्रतिशत एक आतंकी कारगुजारी ही। षड्यंत्र से लेकर सुरक्षा चूक तक आप किसी भी कहानी में विश्वास करें, मूल सवाल से मुंह नहीं चुरा सकते-क्या गुजरात से आ रहे अमरनाथ यात्रियों पर हुआ हमला रोका जा सकता था? विशेषकर तब, क्योंकि इंटेलिजेंस ब्यूरो ने हमले की आशंका की चेतावनी जारी की हुयी थी।
एक पेशेवर पुलिसकर्मी की नजर से मेरी राय होगी कि ऐसे हमले का हो जाना तब भी संभव है। दरअसल, इंटेलिजेंस ब्यूरो की चेतावनी में कुछ भी नया नहीं है, वे साल दर साल ऐसी ही चेतावनी देते आये हैं।
केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने आधा सत्य बोला, ‘आतंकी को सिर्फ एक बार किस्मत वाला होना होता है जबकि सुरक्षा बलों को हर बार।’ दरअसल, सुरक्षा बलों को किस्मत नहीं,व्यापक रणनीति और प्रभावी युक्तियों की जरूरत होती है। सुरक्षा कवच इसलिए अभेद्य नहीं होता कि आपने उस पर कितने जिरह बख्तर चढ़ाये हैं, बल्कि इसलिए कि आपने उसके नाजुक आयामों को किस तरह सुरक्षा के दायरे में समेटा है। एक कछुए की चट्टानी पीठ की उसके नर्म पेट से तुलना कीजिये और मेरी बात का मर्म आपके जेहन में दर्ज हो जायेगा।
इस सवाल को एक और नजरिये से देख सकते हैं। क्या वजह है कि सन 2000 से 2002 तक लगातार तीन वर्ष तक अमरनाथ यात्रा पर आतंकी हमले हुए और उसके बाद अब जाकर 2017 में? मीडिया में कई विशेषज्ञों ने राय दी है कि सुरक्षा में कमियां रहीं। नया कुछ नहीं, एक बच्चा भी यही कहेगा। तो फिर क्या करें? यह सुझाव भी लगभग हर ओर से आ रहा है कि बन्दूक का जवाब बन्दूक से दिया जाये। यह और भी बचकानी बात हुयी; बन्दूक का जवाब तो बन्दूक से दिया ही जा रहा है, हमेशा से।
यहाँ कोई पहेली नहीं छिपी है। अमरनाथ यात्रा पर हमला एक तरह से कश्मीरियों के पेट पर लात मारने जैसा कदम है। अमूमन कोई भी आतंकी गिरोह जिसे वहां काम करना है, कश्मीरियों की सहानुभूति पूरी तरह गंवाना नहीं चाहेगा। तब भी, जैसा मैंने ऊपर कहा, है यह खालिस आतंकी हमला।अब इससे इनकार करना लश्कर की मजबूरी हो सकती है।
मैं श्रीनगर की उस ऐतिहासिक जनसभा में मौजूद था जब अटल बिहारी वाजपेयी ने बतौर प्रधानमन्त्री अपना मशहूर शांति जुमला ‘कश्मीरियत, जम्हूरियत, इंसानियत’ सार्वजनिक किया था। हालाँकि, गई रात राजभवन तक, जहाँ प्रधानमंत्री रुके थे, शहर में हुए धमाकों की आवाज सुनी जा सकती थी। उनके इस जुमले ने कश्मीरियों पर जादू सा काम किया।
मोरारजी देसाई के बाद पहली बार वाजपेयी काल में कश्मीर में निष्पक्ष चुनाव हुए थे। यहाँ तक कि पंडितों की घर वापसी भी हवा में रहती थी। स्वाभाविक था, पाकिस्तान इस रुझान को पलटने की हरसंभव कोशिश करता। 2000-2002 के अमरनाथ हमले उसकी इसी खीझ का असर थे।
वाजपेयी कालीन माहौल के ठीक उलट है 2017 का माहौल। और आश्चर्यजनक रूप से,इसलिए ही अब अमरनाथ हमले में अंधाधुंध आतंकी दिलचस्पी भी बनी होगी। विभिन्न कारकों के चलते, आज कश्मीरियों की नजर में मोदी सरकार, राज्य सरकार, सुरक्षा बल, अलगाववादी, सबकी साख रसातल में जाती देखी जा सकती है।
ऐसे में आतंकी दृष्टिकोण को समझा जा सकता है कि अमरनाथ यात्रा पर हमला कश्मीरी तनाव को और भड़काने में मददगार होगा। फिलहाल यात्रा के अर्थशास्त्र ने ऐसा होने नहीं दिया, यह अलग बात है।
आतंकी कश्मीर में अपना काम कर निकल लिए, लेकिन देश में चुनाव चक्र से बंधे राजनीतिक नेतृत्व और बिकाऊ मीडिया के लिए अपने मतलब का एजेंडा तय कर गए। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा यह अमरनाथ यात्रियों पर नहीं, गुजरातियों पर हमला है।
जी न्यूज के अनुसार भोलेनाथ के आशीर्वाद से मोदी सरकार ने आतंकियों से बदले की साइत निकाल रखी है। हम और किस हद तक हास्यास्पद हो सकते हैं?
कहीं जरूरी सवाल है,भारतीय समाज की साइत कैसी है? ड्राइवर सलीम त्वरित बुद्धि से हमले की शिकार बस को तेज रफ़्तार भगाते हुए समीपतम सुरक्षा चौकी में जा पहुंचा था और इसके लिए उसे चहुँतरफ़ा सराहना भी मिली। तब भी,हालाँकि, मानव कवच सूरमा मेजर गोगोई राष्ट्रवादी आख्यान के भक्त-चारण अपनी धुन में उस पर तब भी शैतानी उँगलियाँ उठाने से नहीं चूक रहे। विषाक्त राजनीतिक वातावरण में ऐसी उँगलियाँ या तो असीम नफरत के जोर से उठती हैं या खालिस राजनीतिक पैसे के दम पर।
नहीं, अमरनाथ यात्रियों पर हुए इस हमले में भाजपा का भी कोई पूर्व नियोजित राजनीतिक या साम्प्रदायिक षड्यंत्र नहीं हो सकता था। हमले की घात में लगे आतंकी दस्ते ने असुरक्षित यात्री बस पर अंधाधुंध गोलियां चलाईं,और कहा जाना चाहिए कि उन्होंने चालीस हजार अतिरिक्त केन्द्रीय बलों से सुदृढ़ किये गए सुरक्षा कवच को भेद दिया। यदि सामरिक युक्तियों में कमी हो तो ऐसा किसी भी शासन में हो सकता है, सिर्फ निरंतर कश्मीरियों का विश्वास खोते मोदी शासन में ही नहीं।
मोदी, वाजपेयी नहीं हैं। संदेह है कि वे कश्मीर में असंतोष, अलगाव और अतिवाद के वर्तमान बिगड़े माहौल में लोगों, सरकारों और सुरक्षा चक्र के बीच सामंजस्य का अनुकूल रणनीतिक माहौल बना सकेंगे।
(पूर्व आइपीएस वीएन राय सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ हैं। इन्हीं के नेतृत्व में समझौता ब्लास्ट मामले की जांच शुरू हुई थी।)