पुराने आदर्श सड़ चुके हैं और ऐसे आदर्शवादियों का दिमाग बहुत पहले से ही राजनीतिक पार्टियों और मुनाफाखोरों के पास रेहन पर है, मगर दिखाई पिछले कुछ सालों में बहुत साफ देने लगा है...
राग दरबारी
देश में हर उस पत्रकार की चर्चा है जो किसी न किसी राजनीतिक पार्टी की बोली उठा रहा है। जो नहीं उठा रहा है, केवल पत्रकारिता कर रहा है, उसकी कोई चर्चा नहीं है, उनका कोई नामलेवा नहीं है, वह ट्रेंड नहीं करता, वह ट्रोल नहीं होता और उस पर जनमत नहीं बनता। उनके नाम पर धरना प्रदर्शन नहीं होते, वे देश में आदर्श के रूप में चर्चा नहीं पाते।
मेरा मानना है इस स्थिति की गहन पड़ताल की जानी चाहिए और सोचा जाना चाहिए कि पत्रकारिता का यह दलगत आदर्श क्यों पत्रकारिता और उसके उच्चतर शिखर तक पहुंचने का आजमाया नुस्खा बनता जा रहा है।
पहले जो पत्रकार पार्टियों की दलाली करते थे, या उनकी बोली में बात करते थे या उनके मनमुताबिक खबरें प्लांट करते थे, वह कमजोर और खराब पत्रकार माने जाते थे। माना जाता था कि उनमें पत्रकारीय क्षमता नहीं है। आज आप तभी ढंग के पत्रकार हैं, पत्रकारिता में महत्व वाले मनई हैं, जब आप मोदी या लालू के साथ हैं, आप केजरीवाल या ममता के चहेते हैं। तभी वे और उनके हजारो कार्यकर्ता आपकी खबरों को ट्वीट करेंगे, तभी आप ट्रेंड करेंगे और तभी आप देश के चर्चित पत्रकार बनेंगे।
याद कीजिए कुछ वर्ष पहले तक अगर किसी पत्रकार का सार्वजनिक गान कोई पार्टी करने लगती थी तो उसके लिखे या बोले का महत्व कम हो जाता था। उसको लोग 'बयान' कहा करते थे। पर आज स्थितियां उलट गयीं हैं।
आप देखेंगे कि मोदी और उनकी पार्टी के मंत्री—संत्री—जंत्री दिनभर सबसे बड़े मुनाफाखोर मीडिया घरानों में टाइम्स नॉउ, जी न्यूज, इंडिया टीवी, टीओआइ, दैनिक जागरण आदि की खबरें शेयर करते रहते हैं। ट्रेंड कराने का ठेका लेते हैं। गाहे—बगाहे मोदी खुद किसी भक्त पत्रकार या संपादक को महान बोल देते हैं। उसके बाद वह पत्रकार और मीडिया एकाएक देश का पहले नंबर का पत्रकार हो जाता है।
इसी तरह छोटी पार्टियों में सबसे पहले आम आदमी पार्टी का उदाहरण देखें। इनके पास एनडीटीवी, स्क्रॉल, द वायर, जनता का रिपोर्टर जैसी टीवी और वेबसाइट्स का ठेका है। दिनभर में आम आदमी पार्टी के लोग इन वेबसाइट्स और एनडीटीवी को जितनी बार शेयर करते हैं, उतनी बार तो इन संस्थानों में काम करने वाले पत्रकार भी नहीं करते होंगे।
किसी राजनीतिक पार्टी के अच्छा काम करने पर या उसकी कुछ पहलकदमियों पर सकारात्मक रुख मीडिया का रहता है, लेकिन आजकल यह चैनल और वेबसाइट्स वाले ऐसा क्या करते हैं कि पार्टी नेताओं को उनके ठेके के अंतर्गत चलने वाली मीडिया मुखपत्र लगने लगती हैं, वह सुबह—शाम दूसरी पार्टी वालों को चिढ़ाते हुए उनका लिंक शेयर करते हैं। और यह ट्रेंड बड़ी मुनाफाखोर मीडिया से लेकर छोटे और खुद को प्रगतिशील कहने वाले सभी में बराबर रूप से मौजूद है।
भाजपा प्रवक्ता फारिग होते ही जी न्यूज या दूसरी भक्त मीडिया को शेयर करते हैं तो आप के नेता स्नान करने से ठीक पहले एनडीटीवी, यूथ की आवाज, जनता का रिपोर्टर या द वायर को शेयर करना नहीं भूलते। गुफाओं में से भूत और आसमान से अप्सराएं खोज लाने वाली भक्त मीडिया को ही भाजपा के खिलाफ खोजे स्टोरी नहीं मिलती, बल्कि यहीं से बैठे—बैठे ट्रंप की एक—एक बारीकियां निकालने वाले प्रगतिशीलों को भी आप की गड़बड़ियों की कोई कहानी लिखने योग्य नहीं जान पड़ती।
इसी तरह मुंह में चांदी का चम्मच लिए पैदा होने वाले होने वाले बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी अपनी 'ठकुरसुहाती' में लगी ऐसी वेबसाइट्स को ट्वीट करने लगे हैं जिनका नाम उनके पापा से भी पूछ लो तो कहेंगे, 'हांय बुरबक।'
इन दिनों लालू प्रसाद और उनका परिवार संकट में है तो कुछ वेबसाइट्स और चैनल वालों ने अब लालू को बचाने का ठेका ले लिया है। इनमें से कुछ अपने मन से तो कुछ ने पेड तरीके से ठेका उठाया है। इनमें एक तीसरे तरीके के भी हैं, जिन्होंने अपनी जाति के नेता को बचाने का ठेका ले लिया है, वे लगे हुए हैं कि कैसे दूसरों के भ्रष्टाचार के गिनाकर लालू यादव के भ्रष्टाचार को एक 'हल्का—फुल्का' भ्रष्टाचार बताएं।
कहा जा सकता है कि इन दिनों अच्छी पत्रकारिता का कंपटीशन नहीं, बल्कि पार्टियों के सामने अच्छा प्रोजेक्ट होने का कंपटीशन चल रहा है। पत्रकारिता का बहुतायत पार्टियों का संवदिया हो चुका है, वह जनता के अच्छे बुरे से पहले अपनी पक्षधर पार्टियों की चिंता करता है।
मौजूदा पत्रकारिता के आदर्श पत्रकारिता की पूरी पीढ़ी को एक ऐसी पत्रकारिता की ओर ढकेल रहे हैं, जो जनता की जुबान बनने की बजाए, पार्टियों और पूंजीपतियों की झंडाबरदार बनती जा रही है।
इसकी नहीं तो उसकी बन कर रहे, अंबानी की न हुई तो टाटा की बनकर रहे, मोदी के न हुई तो केजरीवाल की बनकर रहे, केजरीवाल की होने से रह गयी तो लालू की ही बने, लेकिन किसी न किसी के अंगने में नाचे जरूर, घुंघरू पैर में बांधे जरूर, की सोच से बाहर निकालना होगा। क्योंकि यह पत्रकारिता नहीं है, यह पार्टीबंदी है।