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अटल बिहारी वाजपेयी यानी संघ का लोकतांत्रिक मुखौटा

Prema Negi
25 Dec 2018 5:51 PM GMT
अटल बिहारी वाजपेयी यानी संघ का लोकतांत्रिक मुखौटा
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अटल बिहारी वाजपेयी अपने राजनीतिक भाषणों में भले ही गाँधी को ज्यादा तरजीह दी हो, पर उनकी रचनाओं में सिर्फ गोडसे ही गोडसे है, गाँधी कहीं नहीं...

पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी को उनके जन्मदिवस पर कुछ यूं याद कर रहे हैं सुशील मानव

‘हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन, रग रग हिन्दू मेरा परिचय’ ये सांप्रदायिक पंक्तियां हैं भाजपा के सबसे उदार समझे जाने वाले चेहरे अटल बिहारी वाजपेयी की। महात्मा गाँधी की हत्या की साजिश में नाम आने और गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे से संघ के संबंध के खुलासे के बाद से भारतीय जनमानस में खलनायक की बन गई।

ऐसे में आरएसएस अपनी कट्टर सांप्रदायिक छवि के साथ भारतीय समाज और भारतीय राजनीति में आगे नहीं बढ़ सकती थी। संघ को आजाद भारत की सक्रिय राजनीति में एक ऐसे मुखौटे की तलाश थी जो अपनी उदार कट्टरता के साथ न सिर्फ जनसंघ (बाद में भाजपा) और संघ को लोकतांत्रिकता का जामा पहनाए।

‘हिंदू तन-मन’ से छद्म सेकुलरिज्म तक अटल बिहारी वाजपेयी का विकास दरअसल संघ के केचुली बदलकर समाज में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने का काल है। सीधे शब्दों में कहें तो अटल बिहारी वाजपेयी ही वो शख्स हैं जिसने अपनी उदार कट्टरता के बूते आरएसएस और भाजपा को छद्म लोकतांत्रिकता का जामा पहनाकर समाज में सांप्रदायिक विषाक्तता को शिव का प्रसाद बताकर बाँटा।

16 अगस्त को उनके देहांत के बाद उनकी कथित कविताओं की पंक्तियों को रातों-दिन हिंदी के अख़बारों और समाचार चैनलों ने इतनी बार और इतने तरीके से पाठ किया कि वो मरने के बाद रातोंरात महाकवि बन गए। तो उनकी कविता के बहाने उनके चाल चरित्र चेहरे का विश्लेषण करना ज़रूरी हो जाता है।

अटल बिहारी वाजपेयी दरअसल दक्षिणपंथ के बौद्धिक संवाहक बनकर संघ के हिंदुत्ववादी एजेंडे को समाज में ले जाने में कामयाब रहे। वो अपनी कविताओं में संघ की ऐतिहासिक चेतनाविहीन, तर्कहीन, तथ्यहीन कपोल-कल्पित बातों और बर्बरताओं का गौरवमयी आख्यान रचते रहे, जिसे पढ़कर संघ की नई पीढ़ी तैयार हुई जो न सिर्फ विचार और विवेकहीन थी बल्कि मूढ़ और हद दर्जे तक असहिष्णु और मरने-मारने पर आमादा।

अटल बिहारी वाजपेयी ने रोल मॉडल बनकर संघ के ब्राह्मणवादी नस्लवाद को न सिर्फ ग्लैमराइज किया बल्कि नई पीढ़ी के सामने संधान लक्ष्य की भाँति प्रस्तुत किया, जिसमें नस्लीय श्रेष्ठता का दंभ तो था ही साथ ही साथ देश को फिर से महान का मानक और ज़रूरी शर्त भी था। उनकी कविता ‘मैं अखिल विश्व का गुरु महान’ की पंक्तियाँ उनके ब्राह्मणवादी एजेंडे का बयान करती हैं-

“मैं अखिल विश्व का गुरू महान/ देता विद्या का अमर दान/ मैंने दिखलाया मुक्ति मार्ग/ मैंने सिखलाया ब्रह्म ज्ञान।/ मेरे वेदों का ज्ञान अमर/ मेरे वेदों की ज्योति प्रखर/”

आज समाज में गाय और बीफ को लेकर जिस चरह से मॉब लिंचिग की संस्कृति को देश और समाज पर थोप दिया गया है, उसके बीज अटल बिहारी की इस ‘धन्य तू विनोबा’ कविता में हैं- जिसमें वो विनोबा भावे के बहाने स्पष्ट कहते हैं कि जन की बाजी लगाकार भी गाय की जान बचाई जाए।

“जन की लगाय बाजी गाय की बचाई जान / धन्य तू विनोबा ! तेरी कीरति अमर है।''

आरएसएस को अपने प्रगतिगामी मंसूबों को देश पर थोपने के लिए एक चेतनाविहीन समाज की ज़रूरत रही है। इसके लिए संघ अपनी शाखाओं के जरिए लगातार समाज के एक बड़े हिस्से को विचारविहीन चेतनाविहीन बनाने में दशकों से लगा हुआ है। वो युवा शक्ति की ऊर्जा का प्रयोग विध्वंस में करना चाहता है। बाबरी मस्जिद, गुजरात दंगों से लोकर आज के बेहद सांप्रदायिक और असहिष्णु समय में अगर हम देखें तो पाएंगे कि गले में भगवा गमछा डाले युवा शक्ति अपनी अपार ऊर्जा को लगातार देश और समाज के विध्वंस में इस्तेमाल कर रही है।

संघ हमेशा से ऐसे युवाओं को तैयार करने में लगा रहा है जिनमें जोश तो हो पर होश न हो। ये काम मदिरा करती है। अटल बिहारी की मदिरा हरिवंश राय बच्चन की मदिरा से अलग है। बच्चन कहते हैं- ‘पीकर मदिरा मस्त हुआ तो प्यार किया क्या मदिरा से।’

अटल बिहारी वाजपेयी की ‘कवि आज सुना वह गान रे’ कविता का रूपक देखिए जिसमें उन्होंने जोश को मदिरा बताया है। अटल बिहारी वाजपेयी कहते हैं - ‘हम दीवाने आज जोश की— मदिरा पी उन्मत्त हुए।’ जोश की मदिरा पीकर उन्मत्त हुए लोगों की टोली थी वो जिसने बाबरी मस्जिद तोड़कर भारत देश को सांप्रदायिक आतंकवाद की अग्नि में आहुत कर दिया। बच्चन की ‘मदिरा’ जीवन की चेतना की बात करती है और अटल बिहारी की ‘मदिरा’ चेतनाविहीन होकर सांप्रदायिकता की हद तक उन्मत्त जाने कट्टरता की भावना से भरकर असहिष्णु हो जाने की।

‘अंतरद्वंद्व’ शीर्षक वाली निम्न पंक्तियाँ घोर सांप्रदायिक हैं। इन पंक्तियों में हिंदू धर्म को इस्लाम के बरअक्श रखकर शिव और शव का कांसेप्ट खड़ा किया गया है। बाबरी विध्वंस से एक दिन पहले लखनऊ में दिया उनका सांप्रदायिक भाषण भला कौन भूल सकता है। चौथी पंक्ति में अटल बिहारी वाजपेयी ने इस्लाम को विसंगति बताया है - “क्या सच है, क्या शिव, क्या सुंदर? / शव का अर्चन / शिव का वर्जन / कहूँ विसंगति या रूपांतर?”

अटल बिहारी का व्यक्तित्व और चरित्र बेहद जटिल था। ये जटिलता ही उनका अपना अर्जन थी जो उन्हें संघ से अलग करती हुई भी संघी बनाए हुए थी। वो कुँवारे होकर भी ब्रह्मचारी नहीं थे। उनके ही संगठन में उनसे वरिष्ठ रहे बलराज मधोक ने भी अपनी आत्मकथा में उनके यौन दुर्व्यवहारों का उल्लेख किया है। उनकी कविता ‘वैभव के अमिट चरण चिन्ह’ की इन पंक्तियों में आये रूपक और बिंब जबर्दस्ती थोपे हुए ब्रह्मचर्य से यौनकुंठित पुरुष की मनोद्गार हैं-

“सरिता की मँझधार में / अपराजित पौरुष की संपूर्ण/ उमंगों के साथ / जीवन की उत्ताल तरंगों से/ हँस-हँस कर क्रीड़ा करने वाले/ नैराश्य के भीषण भँवर को / कौतुक के साथ आलिंगन / आनन्द देता है।”

इतना ही नहीं ‘पुनः दिनकर चमकेगा’ कविता के एक रूपक में वो उनकी बलात्कारी मनोवृत्ति उजागर हो जाती है जब वो कहते हैं- “ चीर निशा का वक्ष / पुनः दिनकर चमकेगा।”

अटल बिहारी वाजपेयी में इतिहासबोध का घोर अभाव है। अपने बर्बर, रक्तपात और हिसंक इतिहास को गौरवशाली बताने वाला व्यक्ति कभी भी अपनी कौम और अपने देश को सही रास्ता नहीं दिखा सकता। संघ की राष्ट्रवाद की परिकल्पना दरअसल इसी इतिहासबोध हीनता से उपजी है। जो अपनी हर बर्बरता, लूटपात, बलात्कार और व्यापक जनसंहार को अधर्म पर धर्म की विजय बताकर जस्टीफाई करती है।

“हमारी विश्वविदित विजयों का इतिहास / अधर्म पर धर्म की जयगाथाओं से बना है/ हमारे राष्ट्र जीवन की कहानी / विशुद्ध राष्ट्रीयता की कहानी है।” अटल बिहारी की राष्ट्रीयता में स्त्री कहीं नहीं है। उनकी राष्ट्र-कल्पना में ‘भारत माता’ भी ‘राष्ट्रपुरुष’ में तब्दील हो जाती हैं। वो खुला ऐलान करते हैं कि यहाँ जो कुछ भी है सब हिंदू है और हिंदुत्व को बनाए रखने के लिए वो हिंदुत्ववादी जेहाद का आह्वान करते हुए कहते हैं कि इस देश का हर कंकर हर बिंदु हिंदुत्व से लबरेज है। हम जिएंगे तो इसके लिए हम मरेंगे तो इसके लिए।

‘भारत जमीन का टुकड़ा नहीं’ कविता देखिए - “भारत जमीन का टुकड़ा नहीं / जीता जागता राष्ट्रपुरुष है / यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है / यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है / इसका कंकर-कंकर शंकर है / इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है / हम जियेंगे तो इसके लिये / हम मरेंगे तो इसके लिए।

इसके अतिरिक्त दलित, वंचित और श्रमिक वर्ग भी उनकी रचनाओं में कहीं जगह नहीं पाता। उनके दो कविता संग्रहों में केवल एक कविता ‘आओ फिर से दिया जलाएँ’ में वो एक जगह नवदधीचियों से अपनी हड्डियाँ गलाने का आह्वान करते हैं। उनके पास दलितों वंचितों के उत्थान के लिए कोई विचार नहीं अलबत्ता वो उन्हें उलाहने देते हैं अपने जीवन ध्येय को अपने परिवार की परिवरिश और रोटी कपड़े के संघर्ष तक सिमटे रहने के लिए।

याद कीजिए बाबरी विध्वंस करने वाले अधिकांश कारसेवक पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखने वाले दधीचि थी जिनकी हड्डियों को विध्वंस का वज्र बनाने के लिए संघ-भाजपा द्वारा इस्तेमाल किया गया है। “आहुति बाकी यज्ञ अधूरा/ अपनों के विघ्नों ने घेरा/ अंतिम जय का वज्र बनाने/ नवदधीचि हड्डियाँ गलाएँ/ आओ फिर से दिया जलाएँ/”

पड़ोसी मुल्क़ पाकिस्तान को लेकर अटल बिहारी की नीतियां आरएसएस से अलग नहीं थी। अटल बिहारी वाजपेयी संघ की उस सोच को ही वहन कर रहे थे जो पाकितस्तान को फतह करके फिर से भारत में मिलाने के सपने देखती आई है। कारगिल युद्ध इसी का परिणाम था। उनके मंसूबों का खुलासा उनकी ये कविता करती है जिसका उन्वान है- ‘पंद्रह अगस्त की पुकार’।

“दिन दूर नहीं खंडित भारत को / पुन: अखंड बनाएँगे। /गिलगित से गारो पर्वत तक / आज़ादी पर्व मनाएँगे॥ /उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से / कमर कसें बलिदान करें। / जो पाया उसमें खो न जाएँ / जो खोया उसका ध्यान करें।”

अटल बिहारी वाजपेयी दोहरी बाते करते हैं। यहाँ तक कि उनके दो वाक्यों में घोर अंतर्विरोध होता है, जिसका मीडिया अपने अपने हिसाब से अर्थ निकाल लेती है। वो जब गुजरात दंगों के बाद प्रेस कान्फेंस करके कहते हैं कि- “गुजरात में मोदी को राजधर्म निभाना चाहिए और मुझे पूरा विश्वास है कि वो राजधर्म निभा रहे हैं।”

न सिर्फ दो वाक्यों में बल्कि अटल बिहारी वाजपेयी की कथनी और करनी में भी घोर विरोधाभास है। उनकी ‘हिरोशिमा की पीड़ा’ कविता को पढ़कर क्या कोई सोच सकते हैं कि इस कविता को लिखने वाले ने 1998 में पोखरण में परमाणु परीक्षण किया होगा।

“किसी रात को / मेरी नींद चानक उचट जाती है / आँख खुल जाती है / मैं सोचने लगता हूँ कि / जिन वैज्ञानिकों ने अणु अस्त्रों का / आविष्कार किया था / वे हिरोशिमा-नागासाकी के भीषण / नरसंहार के समाचार सुनकर / रात को कैसे सोए होंगे? / क्या उन्हें एक क्षण के लिए सही / ये अनुभूति नहीं हुई कि / उनके हाथों जो कुछ हुआ / अच्छा नहीं हुआ!/ यदि हुई, तो वक़्त उन्हें कटघरे में खड़ा नहीं करेगा / किन्तु यदि नहीं हुई तो इतिहास उन्हें / कभी माफ़ नहीं करेगा!”

दरअसल नरेंद्र मोदी ही अटल बिहारी वाजपेयी के असली राजनीतिक वारिस हैं। मोदी भी अपने राजनीतिक दुश्मनों को रास्ते से हटाने में उतनी ही महारथ हासिल है जितनी वाजपेयी को थी। बता दें कि अपने विरोधियों को कायदे से ठिकाने लगाया। दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी का रहस्यमयी मौत से वाजपेयी का राजनीतिक रास्ता निष्कंटक हुआ। बिल्कुल उसी तरह जैसे हारेन पांड्या की हत्या से मोदी का राजनीतिक रास्ता साफ हुआ था।

प्रोफ़ेसर बलराज मधोक चाहकर भी कुछ नहीं कर पाये और मुखालफ़त करने के कारण आडवाणी की तरह जबर्दस्ती हाशिये पर धकेल दिए गए और गुमनामी में ही मर गए। गोविंदाचार्य और कल्याण सिंह का पार्टी में कद बढ़ने लगा तो उन्हें बोनसाई बना दिया गया, बिल्कुल वैसे जैसे मोदी ने संजय जोशी का किया। आज अटल बिहारी की बोयी फसलों को ही मोदी काट रहे हैं।

अटल बिहारी वाजपेयी जहाँ अपना अलग व्यक्तित्व प्राप्त कर लेते हैं, वहाँ वो संघ से अलग खड़े दिखते हैं। वो संघी ब्राह्मण होकर भी मांस-मदिरा का सेवन करते हैं। वो संघ की सेवा में आजीवन अविवाहित रहने का वचन लेकर भी यौन अनुभूति प्राप्त करते हैं। प्यार करते हैं और अपनी प्रेमिका की बेटी को गोद लेते हैं।

अटल बिहारी वाजपेयी तमाम लोकलाज को परे रखकर अपनी प्रेमिका को सपरिवार अपने आवास पर रखते हैं। लेकिन ये विडंबना ही है कि वो प्रेम नहीं कर पाये। प्रेम उनकी कविता में कहीं भी नहीं दिखता, न ही मनुष्यता। वो चाहकर भी अपनी कविताओं में मनुष्य नहीं हो पाये, इसका एक कारण ये भी हो सकता है कि वो चाहकर भी किसी के प्रेमी नहीं बन पाये।

अटल बिहारी वाजपेयी अपने राजनीतिक भाषणों में भले ही गाँधी को ज्यादा तरजीह दी हो, पर उनकी रचनाओं में सिर्फ गोडसे ही गोडसे है, गाँधी कहीं नहीं।

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