Begin typing your search above and press return to search.
जनज्वार विशेष

भांड मीडिया को गोदी में खिलाने का प्रयोग सालों से कर रहा था राम रहीम

Prema Negi
12 Jan 2019 1:33 PM IST
भांड मीडिया को गोदी में खिलाने का प्रयोग सालों से कर रहा था राम रहीम
x

दुख मीडिया की भांडगिरी को लेकर ज्यादा रहा कि वे इतने बेगैरत होते गए कि अपने साथी पत्रकार की मौत को जैकपॉट डील के रूप में लंबे समय तक कैश करवाते रहे। इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया ने समान रूप में डेरा से माल कमाया, गिफ्ट खाये और चिरौरी की....

वीरेंद्र भाटिया की टिप्पणी

21 नवंबर 2002 को रामचंद्र छ्त्रपति की देह को जब श्मशान ले जाया जा रहा था, एक पत्रकार की हत्या पर पूरा शहर आंदोलित था उस वक्त। देखते ही देखते पूरे प्रदेश की भावनाएं एक हुईं कि कलम को कत्ल करने वालों को सजा मिलनी चाहिए। और उस समय प्रदेश का लगभग प्रत्येक आम और खास आदमी कह रहा था कि राम रहीम को सजा मिलनी चाहिए।

वह साल दरअसल डेरामुखी के खत्म हो जाने का साल था, लेकिन उस साल डेरा मुखी का पुनर्जन्म हुआ। उस दिन डेरा में एक ऐसे आदमी का उदय हुआ, जिसने संत की खाल में दुबक कर अभय दान लिया और उस अभय दान को अमरता का प्रतीक मान लिया। संत होना दरअसल उत्तरदायित्व ओढ़ना है, संत होना यानी खाल ओढ़ना नहीं है कि भीतर भेड़िया कुलांचे मारता रहे और बाहर आप संत दिखते रहें।

डेरा मुखी का दूसरा जन्म इस लिहाज से भी हुआ कि कुछ चुस्त चालाक और मौका परस्त लोगों के हाथ बड़ी कमजोरी लग गयी और चुस्त चालाक लोगों की भूख डेरा मुखी के लिए एक से एक मौके और अभयदान बनती गयी। इन चुस्त चालाक लोगों में नेता सबसे अग्रणी रहे और मीडिया के भांड लोग भी आगे रहे। आप भूलते हैं कि मीडिया का गोदी युग 2014 से शुरू हुआ।

मीडिया को गोदी खिलाने का प्रयोग डेरा मुखी कब से कर रहा था। दुख मीडिया की भांडगिरी को लेकर ज्यादा रहा कि वे इतने बेगैरत होते गए कि अपने साथी पत्रकार की मौत को जैकपॉट डील के रूप में लंबे समय तक कैश करवाते रहे। इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया ने समान रूप में डेरा से माल कमाया, गिफ्ट खाये और चिरौरी की।

लगातार डेरा मुखी के आतंक, पाखंड और लूट पर आंख मूंदे रहे। उन्होंने अदालत के सामने बरसों भीड़ जमा करने को कभी खबर नहीं बनाया, लेकिन डेरा मुखी के सफाई कार्यक्रम को बड़े अक्षरों में खबर बनाया। उन्होंने डेरा के मर रहे श्रद्धालुओं, नपुंसक हो रहे श्रद्धालुओं की आह को कभी खबर नहीं बनाया, उन्होंने डेरा के छोटे-छोटे सेवा कामों को भी बड़ा करके दिखाया। उन्होंने यह खबर तक दबाई कि पंचकूला में मरने वाले साधुओं में भी नपुंसक साधु मिले, जबकि वे डेरा की गुफा तक जाने के तमाम दावे करते पाए गए।

संबंधित खबर : पत्रकार रामचंद्र छत्रपति हत्या मामले में बलात्कारी बाबा राम रहीम दोषी करार

भांडगिरी मीडिया का काम रहा और इस भांडगिरी ने 2002 से 2018 तक मीडिया में कोई विमर्श नही उठने दिया, कोई विमर्श पैदा नहीं किया कि पत्रकारिता के लिए आवाज उठाने वाले अगर जघन्य तरीके से कत्ल कर दिए जाएं तो उनकी लड़ाई क्या परिवार की निजी लड़ाई तक सीमित कर दी जाए? लेकिन कटु सत्य यही है कि छत्रपति की बड़ी लड़ाई को बाद में छ्त्रपति के परिवार की कानूनी लड़ाई तक सीमित कर दिया गया। आज अंशुल छत्रपति को बधाईयों का तांता लगा है, लेकिन 16 साल तक उन्हीं के मित्र, पत्रकार और यही बधाई देने वाले लोग कहते पाए गए कि "की खट लया छ्त्रपति ने, मुफ्त च मारेया गया।"

भविष्य इतिहास की गलतियों से सबक लेकर सुधारा जाता है। क्या अब भी कोई योजना मीडिया के पास है कि फिर किसी अंशुल छ्त्रपति को इतनी बड़ी लड़ाई निजी लड़ाई के रूप में लड़ने को बाध्य न होना पड़े।

(वीरेंदर भाटिया रामचंद्र छ्त्रपति के अखबार 'पूरा सच' के स्तम्भ लेखक रहे हैं।)

Next Story

विविध