भाषणों से नहीं चीड़ हटा चौड़ी पत्ती के पेड़ लगाने से बचेंगे पहाड़ के जंगल
जब तक चीड़ की जगह चौड़ी पत्तियों के पौधे नहीं लगाए जाते, तब तक पहाड़ के जंगल इसी तरह जलते रहेंगे, जंगल बचाने के लिए जंगलों से चीड़ की लकड़ी आधारित उद्योग और कारखाने लगाने की है जरूरत, जिससे एक प्रक्रिया में चीड़ के पेड़ खत्म कर दूसरे पेड़ लगें जंगलों में...
आइए पढ़ते हैं वरिष्ठ पत्रकार चंद्रशेखर जोशी को कि वे क्यों कह रहे हैं भाषण देना छोड़ो, धन की बर्बादी की जुर्रत नहीं, असली कारण समझो और उसे दूर करो...
उत्तराखंड का आधे से अधिक भूभाग जंगलों से घिरा है। पहले जंगलों में आग की घटनाएं कम होती थीं। ग्रामीण जंगलों पर निर्भर थे तो अपनी सुविधा के अनुरूप वनों को पालते थे। लोग कंटीली झाड़ियों को जला कर घास के लायक स्थान तैयार करते थे। इसके बाद भी आग नहीं फैलती थी।
बरसात शुरू होते ही जंगल मुलायम घास से हरे-भरे हो जाते थे। चौड़ी पत्तियों के पेड़ों पर आग जल्द नहीं लगती। अब जंगलों से कोई घास भी नहीं लाता, इसके बाद भी सैकड़ों हेक्टेयर जंगल हर साल भस्म हो जाते हैं।
करीब चार दशक से पहाड़ों में चीड़ के पेड़ बेतरतीब फैल रहे हैं। यह नुकीली पत्तियों वाला पेड़ ज्वलनशील लीसे से भरपूर है। एक समय में लीसे की उपयोगिता थी तो ठेकेदारों ने खूब लीसा निकाला। अब टरपनटाइन उद्योग चौपट हो चुका है, इसलिए लीसे का धंधा भी खत्म हो गया है।
चीड़ के पेड़ों पर हल्की सी आग कैरोसिन से भी जल्दी सुलगती है। इस पेड़ ने चौड़ी पत्तियों के पेड़ों की पैदावार ही खत्म कर दी है। चीड़ के पत्ते धरती पर इस कदर जमा हो जाते हैं कि कोई अन्य पेड़ उग ही नहीं सकता।
चीड़ की उपयोगिता के लिए पहाड़ों में कोई उद्योग नहीं हैं। दूर तराई-भावर में लगे उद्योगों तक इसकी लकड़ी पहुंचाना भी कठिन है, उस पर वन विभाग के अजीब नियमों से कोई व्यक्ति अपनी जमीन पर उगे पेड़ को भी नहीं काट सकता। उद्योगों ने आसपास के किसानों से पापुलर और यूकेलिप्टिस के पेड़ उगवा लिए हैं। अब चीड़ की बजाए इन्हीं पेड़ों से लकड़ी की जरूरत पूरी की जाती है।
चीड़ मजबूत इमारती लकड़ी भी नहीं है, लेकिन फर्नीचर के लिए यह बेहद उपयोगी है। पीले और लाल रंग की इस लकड़ी का प्राकृतिक रंग लोगों को बहुत भाता है। समस्या यह है कि पर्वतीय क्षेत्रों में फर्नीचर तैयार करने के लिए भी कारखाने नहीं हैं। सरकारी तौर पर चीड़ की लकड़ी के उपयोग के लिए कोई प्रयास नहीं किए जाते, व्यक्तिगत रूप से इन पेड़ों को काटना किसी के बस की बात नहीं। जंगल पालने के लिए वन महकमा कुछ न भी करे तो पेड़ काटना बड़ा अपराध है।
15 जून के बाद मानसून शुरू होते ही सरकारी विभाग और गैर सरकारी संगठन पौधारोपण अभियान चलाते हैं। इनमें नेताओं की गजब सक्रियता रहती है। हर साल लगने वाले हजारों पौधों को चीड़ के जंगल निगल जाते हैं। नुकीली पत्तियां होने की वजह से यह पेड़ धरती की नमी को वायुमंडल में पहुंचा देते हैं, बाकी कसर इनकी पत्तियां पूरी कर देती हैं। पत्तियों का घना जाल किसी अन्य पौधे को जमीन से ऊपर सिर नहीं उठाने देता।
चीड़ की वंशावली बहुत तेजी से फैलती है। यह पक्षियों के भरोसे भी नहीं रहता। इस पेड़ के फूलों के पराग हवा में भारी धुंध फैलाते हुए दूसरे पेड़ के पुष्प तक स्वयं ही पहुंच जाते हैं। इस पुष्पों को कीट-पतंगों को अपनी ओर आकर्षित करने की जरूरत भी नहीं होती, इसलिए ये ज्यादा खूबसूरत भी नहीं होते।
लसलसे प्रोटीन के कण मधुमक्खी और बम्बल मक्खी को भी आकर्षित नहीं कर पाते। कहा जाए तो चीड़ के पुष्प विओला और सालविया प्रजातियों के आसपास के हैं। इनका पराग कीट-पतंगों के लिए भी ज्यादा उपयोगी नहीं है।
गर्मी शुरू होते ही इन घने जंगलों में स्वत: भी आग की चिंगारी पैदा हो सकती है। रातोंरात सैकड़ों हेक्टेयर जंगल राख होने से वायुमंडल में कार्बन की इतनी अधिकता हो जाती है कि कई दिनों तक धुंध नहीं हटती। तापमान और राख बढ़ने से जंगलों के जल स्रोत खत्म होने लगे हैं।
जब तक चीड़ के पेड़ों के स्थान पर चौड़ी पत्तियों के पौधे नहीं लगाए जाते तब तक इस समस्या से निजात पाना संभव नहीं है। इसके लिए इन इलाकों में चीड़ की लकड़ी आधारित उद्योग और कारखाने लगाने की जरूरत है।