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आंदोलन

कोरोना में 500 करोड़ चंदा देने वाले बिरला ग्रुप के अपने 900 मजदूर भुखमरी के कगार पर

Prema Negi
8 April 2020 1:12 PM GMT
कोरोना में 500 करोड़ चंदा देने वाले बिरला ग्रुप के अपने 900 मजदूर भुखमरी के कगार पर
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श्रमिक अब दबी जुबान में यह बात भी कहने लगे हैं कि जो कंपनी कोरोना के नाम पर 500 करोड़ का दान दे सकती है, क्या वो अपने वर्षों पुराने श्रमिकों की जायज मांग नही मान सकती...

संजय रावत और अंकित तिवारी की रिपोर्ट

जनज्वार। दुनिया के लिए महामारी घोषित की गयी COVID-19 यानी कोरोना से लड़ने के लिए बहुत से लोगों ने आर्थिक सहयोग दिया है। इनमें एक नाम बिरला ग्रुप का भी है। निश्चित तौर पर बिरला ग्रुप के इस कदम की सराहना की जानी चाहिए, मगर यहां बिरला की चर्चा का कारण है उसकी सेंचुरी मिल में पिछले दो दशक से बदहाली में जी रहे मजदूर, जो मालिकान से अपना ​अधिकार मांग रहे हैं। लगभग 933 मजदूर अपनी मांगों को लेकर लंबे समय से संघर्षरत हैं।

पूंजीपतियों और श्रमिकों के बीच अधिकारों की लड़ाई कोई नई बात नहीं है, श्रम और संघर्ष की लंबी दास्तानों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। हर दौर में पूंजीपतियों ने जहाँ नए-नए तरीकों से श्रमिकों को हल्कान किया है, वहीं श्रमिकों ने भी संघर्ष की अपनी रणनीति को समृद्ध किया है। ऐसा ही एक मामला है बिरला ग्रुप की सेंचुरी मिल में श्रमिकों और मिल मालिक के बीच अपने अपने अस्तित्व की लड़ाई का है, जहाँ पिछले 8 वर्षों से श्रमिक बदहाली में जी रहे हैं।

कंपनी मैनेजमेंट का कहना है कि कुछ मजदूरों को छोड़कर सभी को पूरा वेतन मिल रहा है, मगर सच इसके उलट है। ठेके पर जो मजदूर हैं उनको कुछ भी नहीं मिल रहा है। वे अपनी जीविका किसी तरह चला रहे हैं। नाउम्मीदी में बड़ी संख्या में तो यहां से मजदूर पलायन भी कर चुके हैं।

गौरतलब है कि सेंचुरी मिल 17 अक्टूबर 2017 से से बंद है, जिसके बाद कामगारों को 6 महीने तक वेतन नहीं दिया गया, मगर बाद में आंदोलन करने के वजह से न्यायालय ने मिल मालिकान को मजदूरों को वेतन देने के लिए मजबूर किया। मगर इनमें से भी ठेके पर जो मजदूर थे, उन्हें कुछ नहीं मिला और न अब मिल रहा है।

ध्य प्रदेश में इंदौर-मुम्बई हाइवे पर कसरावध तहसील के गांव सतरती में एक जगह है खरगौन। यहाँ बिरला ग्रुप के कुमार मंगलम बिड़ला का एक बढ़ा उद्योग स्थापित है, जिसका नाम है 'सेंचुरी यार्न एंड डेनिम टेक्सटाइल लिमिटेड' 84 एकड़ भूमि पर इस उद्योग की स्थापना वर्ष 1993 में की गई। बेहतरीन उत्पादन और गुणवत्ता के चलते मिल ने जहाँ नए कीर्तिमान स्थापित किए, वहीं शोषण के चलते श्रमिकों के एक के बाद एक 4 यूनियनें अस्तित्व में आ गई।

गभग 18 साल (1993 से 2011) तक छुटपुट संघर्षों के बावजूद मिल में उत्पादन सुचारू रूप से चलता रहा, पर उद्योगों में तकनीकी क्रांति के चलते कुमार मंगलम बिड़ला के लालच ने संवेदनहीनता का नया मॉडल पेश किया, परिणामस्वरूप वर्ष 2012 में नया एग्रीमेंट हुआ, जिसका एक ही मकसद था, बड़े पैमाने पर श्रमिकों की छंटनी। इसमें लिखा गया कि किसी भी श्रमिक को देशभर में बिरला समूह के किसी भी उद्योग में स्थानांतरित किया जा सकता है, पर उस नए काम को सीखने तक श्रमिक को कोई पारश्रमिक नहीं मिलेगा।

मतौर पर श्रमिकों और मिल प्रबंधन के बीच इस तरह के एग्रीमेंट तीन- तीन साल में होते हैं, पर यहां यूनियन न होने की वजह से पहला एग्रीमेंट ही वर्ष 1999-2000 में यानी उत्पादन के 6 वर्ष बाद पहली बार तीन साल के लिए हुआ, फिर यूनियनों द्वारा मिल प्रबंधन की चाटुकारिता के चलते 5-5 साल में होने लगा।

श्रमिकों का आरोप है कि इस एग्रीमेंट की तैयारियां मिल प्रबंधन द्वारा काफी पहले शुरू कर दी गयी थीं, जिसके तहत स्थानीय प्रशासन, श्रम विभाग और दिल्ली के गलियरों में विचरने वाले जीवों के साथ गुप्त मंत्रणा कर ही श्रमिक विरोधी कदम बढ़ाया गया। इसके पश्चात् यूनियनों को विश्वास में लेकर, श्रमिकों को डरा-धमकाकर और जबर्दस्ती हस्ताक्षर लेकर छटनी का काम शुरू हुआ। इस कवायद में करीब 70 प्रतिशत श्रमिकों से जबरन हस्ताक्षर ले लिए गए।

हां उल्लेखनीय है कि इन सभी कार्यों की रणनीति बनाने के लिए अनिल दुबे को मिल का मैनेजर नियुक्त किया गया। ये हज़रत एडवोकेट होने के साथ पेशेवर कूटनीतिज्ञ माने जाते हैं, जिन्हें देशभर के पूंजीपति अपनी कम्पनी में अवैध छंटनी के लिए नियुक्त करते हैं। बताया जाता है कि इनकी नियुक्ति के बाद ही पहले कदम के तौर पर वर्ष 2012 का एग्रीमेंट अमल में लाया गया, लेकिन दूसरे कदम ने तो सभी को हैरत में डाल दिया। जिस कदम से श्रमिक हैरान थे वह था 'सेंचरी यार्न एन्ड डेनिस टेक्सटाइल लिमिटेड' को कोलकाता की 'वेयरइट ग्लोबल' को बेच देने का।

स बात के आम होते ही मिल के 930 श्रमिक ही नहीं 100 से अधिक कर्मचारी भी मिल के अंदर ही सत्याग्रह पर बैठ मिल प्रबंधन का विरोध करने लगे। यहां ये भी साफ नजर आने लगा कि किस तरह श्रमिक यूनियनों ने दबाव, डर और संशय का माहौल बनाकर श्रमिकों के एक बड़े हिस्से को स्वैच्छिक सेवानिवृत्त लेकर मिल छोड़ने पर मजबूर किया। जो डटे रहे अब उन पर रिजाइन के लिए दबाव बनाया जाने लगा।

न श्रमिकों को कहा गया कि वे खुद रिजाइन करें, वरना झूठे केस में पुलिस उठाकर ले जाएगी। इसके लिए बाकायदा श्रमिकों के शैक्षिक व नागरिकता के दस्तावेजों को झुठला कर कार्यवाहियां शुरू की गयीं, जिसके परिणामस्वरूप करीब 300 श्रमिकों को मात्र 1.5 लाख रुपए दे कर बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।

ब जनज्वार ने मिल के मैनेजर अनिल दुबे से श्रमिक आंदोलन की वजह पूछी तो उनका कहना था कि श्रमिक 1 रुपये में मिल खरीद खुद चलाने की मांग कर रहे हैं। वहीं श्रमिकों के साथ कर्मचारियों की बात पर उन्होंने कहा सिर्फ श्रमिक ही आंदोलन कर रहे हैं। वहीं मिल बंदी और वेतन की बात पर अनिल दुबे कहते हैं, मिल खुली है पर उत्पादन नहीं हो रहा, पर हम श्रमिकों को वेतन दे रहे हैं।

हीं कुछ श्रमिकों को मात्र डेढ़ डेढ़ लाख रुपये वीआरएस थमाकर निकाले जाने की बात को उन्होंने झुठला दिया, कहा कि ये सब आरोप झूठे हैं।

हीं इतने लंबे समय से संघर्षरत श्रमिकों का कहना है कि अप्रैल 2017 से ही मिल मैनेजमेंट की हमें बाहर निकालने का योजना पर काम शुरू हो गया था, इसलिए दो-तीन महीने के अंदर ही लगभग 300 मजदूरों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।

जदूर नेता कहते हैं, अकस्मात हुई इन अप्रत्याशित घटनाओं से हम सब श्रमिक हतप्रभ थे, पर खुद को संयत कर घटनाक्रम पर पुनर्विचार किया तो पाया कि करीब 426 करोड़ कीमत की मिल दूसरी कंपनी को दो-ढ़ाई करोड़ में कैसे बेच सकते हैं।

ये भी साफ हुआ कि सरपंच से लेकर दिल्ली के गलियारों में घूमने वाले सभी तो मिल प्रबंधन के हाथों बिक चुके हैं। ऐसे में श्रमिकों के अधिकारों की लड़ाई सीमित शक्ति के साथ कैसे लड़ी जा सकती है। ऐसी सूरत में श्रमिकों को अपने राज्य और देश में चल रहे आंदोलन और उसके जनपक्षधर नेता याद आने लगे और यहीं से संघर्ष की एक नयी रणनीति बनी।

स रणनीति के तहत अन्ना हजारे या मेधा पाटेकर को अपना नेता चुन आंदोलन का मन बनाया गया। अंततः सैकड़ों की संख्या में श्रमिक ट्रक और मोटरसाइकिलों में मेधा पाटेकर के घर पहुंचे और उन्हें स्थिति से अवगत कराया। मेधा पाटकर ने कुछ दिनों में अपनी स्थिति साफ करने का आश्वासन दिया और फिर कुछ दिन बाद आंदोलन में भागीदारी के लिए राजी हो गई।

संघर्षरत मजदूर कहते हैं हमारा जो संघर्ष 2017 से चल रहा है और मेधा पाटकर के आने के बाद इसने आंदोलन का रूप ले लिया, जो अभी तक जारी है और हमारी मंजिल मिलने तक जारी रहेगा।

र्मदा बचाओ आंदोलन की नेता, लेखिका और पर्यावरणविद मेधा पाटेकर के आंदोलन की कमान संभालने से सेंचुरी मिल प्रबंधन सदमे में तो आया, पर उसने यह जाहिर नहीं होने दिया। मेधा ने पहले तो सभी यूनियनों (क्रमशः ए टैक, इंटैक, बी एम एस और स्वतंत्र श्रमिक एकता परिषद) को साथ ले कर आंदोलन चलाने का मन बनाया। पर वाम, भाजपा और कांग्रेस की यूनियनें श्रमिक विरोधी गतिविधियों में ही लगी रहीं।

मेधा पाटकर और मिल प्रबंधन के बीच मजदूर हितों के लिए शांति वार्ता हुई, फिर मिल प्रबंधन ने एक चाल चली जिसमें तीन में से कोई एक शर्त पर श्रमिकों को राजी होना था। वो शर्तें कुछ यूं थी- पहली श्रमिक स्वैच्छिक सेवानिवृत्त लेकर मिल को अलविदा कहें। दूसरी, बेची गई कंपनी 'वेयरइट गोलोबल' में नए सिरे से नौकरी करें और तीसरी, सेंचुरी मिल प्रबंधन घाटे में चल रही मिल को संवैधानिक तरीके से मिल श्रमिकों को ही दे दे और श्रमिक उसे खुद ही संचालित कर मुनाफा कमाएं।

श्रमिक पहली दो शर्तों को तो नकार गए, पर तीसरी शर्त भी उनके बस की कहाँ थी, मगर मेधा पाटेकर ने तीसरी शर्त पर हामी भर दी। देशभर के चुनिंदा एक्सपर्ट बुलाए गए, जिन्होंने कहा कि मिल मुनाफे में चलाई जा सकती है, पर 50 करोड़ का इन्वेस्टमेंट करना होगा।

श्रमिक आंदोलनकारियों को मेधा ने कई व्यावहारिक तरीके सुझाए जिस पर श्रमिक मिल चलाने को राजी हो गए। कंपनी को मामला अपने हाथ से खिसकता हुआ दिखाई देने लगा। श्रमिकों को संवैधानिक हल चाहिए था और मिल प्रबंधन को हर हाल में छंटनी। मामला कोर्ट पहुंचा, कई ट्रिब्यूनल ट्रायल चले।

ब कंपनी ने श्रमिक आंदोलन के जायज होने पर ही सवाल खड़ा कर दिया, लेकिन कानूनी आधार पर कंपनी न केवल न्यायाधिकरण में बल्कि अपील याचिका दाखिल करने के बाद मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में भी हार गई। न्यायाधिकरण यानी ट्रिब्यूनल को यह मानना पड़ा कि यह सेंचुरी मिल का फर्ज बनता है कि वह कर्मचारियों को नियमित वेतन दे।

ज भी सेंचुरी मिल बंद है, लेकिन वेतन लेने के साथ ही श्रमिक संघर्ष की राह पर हैं। इस बीच बहुत कुछ अभूतपर्व हुआ, यह तो तय ही है कि ये लड़ाई अब किसी संवैधानिक निष्कर्ष पर पहुंचे बिना रुकने वाली नही है। अभी तो देशव्यापी लॉकडाउन की वजह से युद्ध विराम चल रहा है।

श्रमिकों के आंदोलन पर जब जनज्वार ने आंदोलनकारी नेता सुखेन्द्र मड़ैया से बात की तो उन्होंने बताया कि बेहतर उत्पादन शायद इसलिए मिल मालिकान और प्रबंधन को पसंद नहीं आया कि इसमें अन्य उत्पादों के मुकाबले ज्यादा श्रमिक लगते हैं, इसलिए इसे बंद कर सीमेंट उत्पादन की योजना बनायी जा रही है, इसीलिए हमारे 300 से भी ज्यादा मजदूर साथियों से जबरन डरा—धमका कर जबरदस्ती साइन करा लिए गए थे और डेढ़ लाख रुपया देकर भगा दिया गया।

श्रमिकों के साथ—साथ कर्मचारियों के आंदोलन में शामिल होने की बात पर सुखेंद्र मड़ैया कहते हैं कि मिल के 45 प्रतिशत कर्मचारी आंदोलन में शामिल हैं जिनके स्टाम्प कोर्ट में उन्हीं की मर्जी से लगे हैं।

मिल बंदी और वेतन पर सुखेंद्र मड़ैया कहते हैं, वेतन तो मिल रहा है पर उत्पादन ठप है। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि मिल प्रबंधन किसी को अंदर नहीं जाने दे रहा। हमारा तो नारा ही यही था कि काम दो फिर वेतन दो।

हरहाल श्रमिकों की इस लड़ाई में कई जनपक्षधर नेताओं ने भी साथ दिया है। किसान नेता योगेंद्र यादव से जब हमने इस सिलसिले में बात की तो उनका कहना था, श्रमिकों का आंदोलन बेहतरीन कार्यप्रणाली को दर्शाता है, यदि श्रमिकों द्वारा मिल संचालित करने वाली बात तय हो जाती तो देश में यह नए तरह का मॉडल विकसित हो जाता, जहां श्रमिक ही उस मिल के मालिक होते जहां वो वर्षों से उत्पादन करते हुए आ रहे हैं।

आंदोलन की मुख्य नेता मेधा पाटेकर से जब इस बारे में बात की तो उनका कहना था, सारी यूनियनें मिल कर लड़ती तो और बेहतर परिणाम आते, पर हमें तो इन यूनियनों ने ही धोखा दिया। अभी तक मज़बूत आंदोलन के कारण फैसले श्रमिकों के हित में ही आये हैं और मिल प्रबंधन को मुंह की खानी पड़ी है।

न्होंने कहा कोर्ट के फैसले में मिल द्वारा अन्य को बेचे जाने को शेम अग्रीमेंट बताया गया है। श्रमिक अब दबी जुबान में यह बात भी कहने लगे हैं कि जो कंपनी कोरोना के नाम पर 500 करोड़ का दान दे सकती है, क्या वो अपने वर्षों पुराने श्रमिकों की जायज मांग नही मान सकती। वो यह भी कहते हैं कि हमें इस बात से क​तई ऐतराज नहीं है कि इसे तकनीकी रूप से समृद्ध किया जाये।

श्रमिकों की इतनी सी ही मांग है कि प्रबंधन तकनीकी सुधार के बहाने अवैध रूप से छंटनी ना करे। इस मिल में केवल मध्य प्रदेश के श्रमिक-कर्मचारी ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र आदि राज्यों के लोग भी कार्यरत हैं।

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