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जनज्वार विशेष

सांप्रदायिकता के 'कोठे' पर कब नहीं गए नीतीश, जो हो रहा है 'विधवा विलाप'

Janjwar Team
31 July 2017 1:52 PM GMT
सांप्रदायिकता के कोठे पर कब नहीं गए नीतीश, जो हो रहा है विधवा विलाप
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भाजपा खुली साम्प्रदायिक राजनीति करती है तो कांग्रेस व दूसरे दल छुपकर साम्प्रदायिक राजनीति करने की माहिर खिलाड़ी हैं...

मुनीष कुमार, स्वतंत्र पत्रकार

26 जुलाई को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया। नीतीश कुमार द्वारा भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने पर देश के विपक्षी दल व सोशल मीडिया पर आयी प्रतिक्रिया से ऐसा लगता है कि जैसे देश में कोई पहाड़ टूट पड़ा है। नीतीश कुमार के इस कदम को भाजपा की साम्प्रदायिकता के खिलाफ जारी लड़ाई को कमजोर पड़ने के रुप में देखा जा रहा है।

नीतीश के इस कदम को धर्मनिरपेक्ष राजनीति करने वाले लोग 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए मोदी के खिलाफ बन रहे महागठबंधन को कमजोर करने के रूप में भी देख रहे है। बहस चल रही है कि भ्रष्टाचार व लींचिंग (भीड़ द्वारा की जा रहीं हत्याओं) में भ्रष्टाचार छोटी चीज है। लींचिंग करने वाली भाजपा के साथ नीतीश कुमार को नहीं जाना चाहिए।

नीतीश कुमार का भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाना कोई नई बात नहीं है। वे तो 1999 से लेकर 2013 तक भाजपा के साथ ही रहे हैं। वे अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार में रेल मंत्री व कृषी मंत्री रह चुके हैं। उनकी ही पार्टी के नेता शरद यादव राजग सरकार में श्रम मंत्री रह चुके हैं। 2005 से नीतीश कुमार 2013 तक बिहार की सरकार भाजपा के साथ मिलकर चला चुके हैं। ऐसे में नीतीश कुमार द्वारा भाजपा से मिलकर पुनः सरकार बनाने पर चिल्ल-पौं मचाना कोरी मूर्खता से ज्यादा कुछ नहीं है।

दरअसल नीतीश कुमार अवसरवादी राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं। वे मौका आते ही पाला बदल लेते हैं। सत्ता के जोड़-तोड़ में भाजपा को साम्प्रदायिक बताने के तीर भी उनके तरकश में हैं तो चारा घोटाला के आरोपी लालू प्रसाद के साथ 20 माह तक सत्ता चलाने के बाद, लालू व उसके परिवार को भ्रष्ट बताकर, भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष के इंजीनियर भी हैं।

देश का विपक्ष जो स्वयं को धर्मनिरपेक्ष राजनीति का ठेकेदार मानता है, देश का सबसे बड़ा अवसरवादी है। यदि आज देश में साम्प्रदायिकता की बिष बेल पनपी है और मोदी का फासीवादी राज कायम हुआ है तो इसमें इन कथित धर्मनिरपेश दलों की भी कम बड़ी भूमिका नहीं है।

इमरजेंसी के बाद 1977 में कांग्रेस विरोध के नाम पर गैर कांग्रेसी विपक्ष दलों द्वारा भारतीय जनसंघ (भाजपा का पूर्ववर्ती संगठन) के साथ जनता पार्टी बनाई थी तथा मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी देश की गद्दी पर काबिज हुयी थी। तब सत्ता पाने के लिए विपक्ष को साम्प्रदायिक भारतीय जनंसघ से कोई आपत्ति नहीं हुयी थी। अटल विहारी वाजपेयी व लाल कृष्ण आडवाणी उस सरकार में मंत्री थे। जनता पार्टी की सरकार 3 वर्ष भी नहीं चल पायी और वह कांग्रेस का ही दूसरा संस्करण साबित हुयी।

राजीव गांधी द्वारा किए गये बोफोर्स घोटाले व भ्रष्टाचार के सवाल के खिलाफ गैर कांग्रेसी विपक्ष एक बार पुनः एकजुट हुआ और बीपी सिंह के नेतृत्व में 1989 में संयुक्त मोर्चा की सरकार अस्तित्व में आयी। कांग्रेस विरोध के नाम पर अस्तित्व में आयी इस सरकार की खास बात ये थी कि इस कथित धर्मनिरपेक्ष सरकार को देश के नामधारी कम्युनिस्ट तथा भाजपा, दोनों ने एक साथ समर्थन दिया हुआ था।

ये वो दौर था जब देश में भाजपा का राम मंदिर आंदोलन जोरों पर था। उस समय संयुक्त मोर्चा व मोर्चे में शामिल लालू यादव को इस साम्प्रदायिक भाजपा से समर्थन लेने में कोई परहेज नहीं था। संयुक्त मोर्चे की सरकार दो साल भी नहीं चल पायी और भाजपा द्वारा समर्थन वापस लेने के कारण गिर गयी थी।

सच्चाई यह है कि कुर्सी ही भारतीय राजनीति की विचारधारा बन चुकी है। जनता को अलग-अलग नामों व झंडों के साथ दिखाई देने वाले इस सत्ता पक्ष व विपक्ष के बीच खिंची हुयी विचारधारात्मक विभाजक रेखा इतनी महीन व कमजोर है कि उसे लांघने में किसी भी दल या नेता को बिल्कुल भी वक्त नहीं लगता।

भाजपा को साम्प्रदायिक बताने वाले नेता, रातोंरात पाला बदलकर भगवा चोला धारण कर भाजपा में चले जाते हैं। वहीं कट्टर भाजपा नेता को पार्टी छोड़कर दूसरे दलों में शामिल होने के लिए बिल्कुल भी संकोच नहीं होता।

2001 में ममता बनर्जी वाजपेयी के नेतृन्व वाली एनडीए सरकार में रेल मंत्री के पद पर विराजमान थी, वहीं आजकल भाजपा को साम्प्रदायिक बताकर ‘भाजपा भारत छोड़ो’ का नारा दे रही हैं।

भाजपा खुली साम्प्रदायिक राजनीति करती है तो कांग्रेस व दूसरे दल छुपकर साम्प्रदायिक राजनीति करने की माहिर खिलाड़ी हैं। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के सिख विरोधी दंगों को देश आज तक भूला नहीं है। इन दंगों के बाद राजीव गांधी 425 लोकसभा सीटों के साथ प्रचंड बहुमत बहुमत से प्रधानमंत्री बने थे। 80 के दशक में भागलपुर, मेरठ, मुरादाबाद आदि दंगे कांग्रेस शासन की ही देन थे।

कांग्रेस आज जो स्वयं को धर्मनिरपेक्षता व विपक्षी एकता का सिरमौर बता रही है। 1980 में चौधरी चरण सिंह की केन्द्र सरकार कांग्रेस ने ही गिराई थी। 1996-1997 में कांग्रेस के समर्थन से चल रही संयुक्त मोर्चा सरकार गिराकर भाजपा के केन्द्र में काबिज होने का रास्ता कांग्रेस ने ही प्रशस्त किया था।

हमारे देश का राजनीति तंत्र इस तरह से विकसित किया गया है जिसमें एक बार वोट देने के बाद जनता के हाथ 5 साल तक के लिए काट दिये जाते हैं। जनता द्वारा चुने गये नेता व दल अपनी मनमानी करने लगते हैं। जनता के सेवक की जगह जनता का मालिक बन शासन चलाते हैं।

जनता 5 साल में एक बार इन्हें गद्दी तक पहुंचा तो सकती है परन्तु इन्हें गद्दी से उतारने की ताकत जनता के हाथ में नहीं है। देश का संविधान चुने हुये सांसदों व विधायकों को वापस बुलाने का अधिकार जनता को नहीं देता है।

यही कारण है कि नीतीश कुमार जैसे लोग मनमानी करने लगते हैं। यही कारण है कि देश की राजनीति अवसरवाद, जाति, धर्म, क्षेत्र का बोलवाला है।

(मुनीष कुमार स्वतंत्र पत्रकार एवं समाजवादी लोक मंच के सहसंयोजक हैं।)

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