जनज्वार, अहमदाबाद। गुजरात के दलित नेता जिग्नेश मेवाणी ने चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया है। उनका यह फैसला चुनाव से मात्र 12 दिन पहले आया है। वहीं गुजरात कांग्रेस के सबसे बड़े सहयोगी हार्दिक पटेल जिस संगठन के मुखिया हैं, उसने अभी गठबंधन के लिए वोट मांगना भी नहीं शुरू किया है।
ऐसे में सवाल ये है कि चुनाव होने में उंगली पर बचे दिनों के बावजूद राजनीतिक जम्हाई लेने की मुद्रा में पड़े कांग्रेस के ये दोनों सहयोगी कांग्रेस को हराने आए हैं या जिताने? यहां तक कि जिग्नेश मेवानी, हार्दिक पटेल और राहुल गांधी ये तीनों एक साथ एक मंच पर ढंग से कभी दिखे भी नहीं।
यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि सीट और तैयारियों को लेकर ऐसा एक प्रयोग यूपी में इसी वर्ष हो चुका है और उसमें भाजपा डंके की चोट पर जलवे के साथ सफल रही है। योगी आदित्यनाथ की सरकार ने जो प्रचंड बहुत हासिल किया, बाकि विश्लेषणों को अगर जस का तस छोड़ भी दें तो उसमें 'प्रचंड' का गौरव सीधे तौर पर कांग्रेस और सपा गठबंधन ने अपनी कमजोरियों के कारण उपहार में दिया।
बीते यूपी विधानसभा चुनाव में सपा और कांग्रेस गठबंधन एक साथ चुनाव मैदान में था। लेकिन करीब 50 सीटों पर पर्चा दाखिला के दिन तक गठबंधन के प्रत्याशी को नहीं पता था कि वहां से सपा लड़ रही है या कांग्रेस? दोनों दलों के लोगों ने कई सीटों पर पर्चा दाखिल किया।
पर संदेहों का यह सिलसिला यहीं नहीं रूका और दर्जनों ऐसी सीटें रहीं जहां पर्चा दाखिल किए हुए प्रत्याशी से पार्टी ने पर्चा वापस ले लिया, जो कैंडिडेट साल—दो साल चुनाव में लगा था उसका पत्ता कट गया। स्थिति ये हुई कि कई सीटों पर कांग्रेस और सपा दोनों दलों के प्रत्याशी उतरे और कुछ जगहों पर दोनों दलों के प्रत्याशी बागी होकर रंजीश में भाजपा के साथ खड़े हो गए।
ये तो यूपी चुनाव में कांग्रेस—सपा गठबंधन का एक सिलसिला था। विवादों का दूसरा सिलसिला भाजपा ने मैनेज किया था जिसे चाचा—भतीजा—पिता विवाद का सम्मान मिला। अखिलेश और शिवपाल यादव के झगड़े चुनाव के दिन तक खत्म नहीं हुए थे और अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव ने कभी इस चुनाव में सपा को गंभीरता से लिया ही नहीं।
उत्तर प्रदेश में उपजी इन राजनीतिक स्थितियों ने सपा—कांग्रेस गठबंधन को कहीं का न छोड़ा और गठबंधन को 403 विधानसभा सीटों में से 100 सीटें हाथ नहीं लगीं। गुजरात में भाजपा के 22 साल से लगातार सत्ताधारी बने रहने को छोड़ दें तो गुजरात कांग्रेस के गठबंधन की स्थितियां कमोबेश यूपी जैसी ही हैं।
चुनाव के 12 दिन पहले कांग्रेस के एक सहयोगी संगठन राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच 'आरडीएएम' के अध्यक्ष जिग्नेश मेवाणी विधानसभा लड़ने की घोषणा करते हैं। वह भी उस सीट से करते हैं जहां कांग्रेस अपना प्रत्याशी घोषित कर चुकी है और वह सीट कांग्रेस के लिए मजबूत मानी जा रही है।
जिग्नेश मेवाणी गुजरात के बनासकंठा जिले की वड़गांव सीट से चुनाव लड़ेंगे। पर उनकी इस घोषणा से कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ गई हैं। वड़गांव सीट पर कांग्रेस के मनिभाई वाघेला पहले से मैदान में हैं और वो कांग्रेस की पकड़ रही है।
कल 27 दिसंबर को जिग्नेश मेवाणी ने गैर भाजपाई दलों से अपने खिलाफ उम्मीदवार न उतारने की अपील की. इस अपील पर सबसे पहले आप ने प्रतिक्रिया देते हुए फैसला किया है कि वह वड़गांव से अपना कोई विधायक प्रत्याशी नहीं उतारेगी। पर कांग्रेस सांसत में फंस गयी है। जिग्नेश मेवानी को साथ लाने के बाद उसकी हालत सांप—छुछुंदर की हो गयी है।
जिग्नेश का कहना है कि आंदोलनकारी साथियों और युवाओं की चाहत थी कि हम इस बार फासीवादी भाजपाइयों का सड़क के साथ-साथ चुनाव में भी मुक़ाबला करें और दबे-कुचले तबक़ों की आवाज बनकर विधानसभा जाएं. इस सीट पर करीब 15 प्रतिशत अनुसूचित जाति और 25 प्रतिशत मुस्लिम वोटर हैं। यही वजह है कि यह कांग्रेस की परंपरागत सीट रही है, जबकि अहमदाबाद शहर के रहने वाले जिग्नेश अब इस सीट पर लड़ने की घोषणा कर चुके हैं।
दूसरे सहयोगी हार्दिक पटेल के संगठन पास 'पाटीदार अनामत संघर्ष समिति' के लोग कल से भाजपा को वोट नहीं देने का प्रचार कर रहे हैं, लेकिन वह कांग्रेस के पक्ष में खुलकर सामने नहीं आ रहे। दूसरी तरफ तमाम सीटों पर संगठन के इच्छा वाले प्रत्याशी नहीं खड़े करने की वजह से प्रचार नहीं कर रहे हैं।
जिग्नेश, हार्दिक पटेल और कांग्रेस के बीच सीटों को लेकर लगातार तनातनी जारी है, कार्यकर्ता तोड़फोड़, पार्टी छोड़कर जाने और विरोध में प्रचार करने के काम में जुट रहे हैं। ऐसे में सवाल ये है कि कहीं कांग्रेस के इन दोनों सहयोगियों के दबाव में फंसी कांग्रेस को जनता कमजोर न मान ले, क्योंकि जनता चोर को वोट भले दे दे, कमजोर को नहीं देती है।