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दंगा पीड़ितों पर दोहरी मार, कोरोना वायरस की चपेट में आया दिल्ली का दंगा प्रभावित इलाका

Janjwar Team
28 March 2020 7:00 AM IST
दंगा पीड़ितों पर दोहरी मार, कोरोना वायरस की चपेट में आया दिल्ली का दंगा प्रभावित इलाका
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फिर कोरोना वायरस की महामारी भारत पहुंची तो शहरों, जिलों, राज्यों और अंत में पूरे देश को बंद कर दिया गया। इस महामारी ने उन लोगों के लिए भी राहत शिविरों को भी बंद कर दिया है जो अभी भी कहीं और रहने की जगह तलाश कर रहे थे....

जनज्वार। एक महीने पहले तक हारून अली के पास एक घर था जो पार्ट टाइम ड्राइवर का काम करते थे और बाकि जरूरतों को पूरा करने के लिए उनके पास स्टेशनरी की दुकान का अतिरिक्त स्त्रोत था। फिर उत्तर पूर्वी दिल्ली में बड़ी तादाद में दंगे भड़के। दंगाइयों की भीड़ ने अली और उनकी पत्नी के शिव विहार स्थित घर और सामान को नष्ट कर दिया तो उनके परिवार ने पड़ोसी इलाके ओल्ड मुस्तफाबाद के राहत शिविर में शरण मांगी।

फिर कोरोना वायरस की महामारी भारत पहुंची तो शहरों, जिलों, राज्यों और अंत में पूरे देश को बंद कर दिया गया। इस महामारी ने उन लोगों के लिए भी राहत शिविरों को भी बंद कर दिया जो अभी भी कहीं और रहने की तलाश कर रहे थे। अली और उनकी पत्नी (जो गर्भवती हैं और किसी समय उन्हें दिक्कत हो सकती हैं) ने उत्तर पूर्वी दिल्ली के मौजपुर में रिश्तेदारों के यहां शरण ली हुई है।

ब मौजपुर के केंद्र में ही कोरोना वायरस का मामला पाया गया है। बुधवार को अधिकारियों ने कहा कि मौजपुर में आम आदमी पार्टी सरकार द्वारा स्थापित मोहल्ला क्लिनिक या सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में एक डॉक्टर ने कोरोना वायरस का पॉजिटिव टेस्ट किया है। महिला और उनकी बेटी का टेस्ट पॉजिटिव आया है जिसके कारण अथॉरिटी ने 900 लोगों को क्वारंटीन में रखा है। बताया जा रहा है कि डॉक्टर को सऊदी अरब से लौटी एक महिला से वायरस मिला था और 12 मार्च को उन्होंने क्लिनिक का दौरा किया था। 12 से 18 मार्च के बीच क्लिनिक का दौरा करने वाले सभी लोगों को अलर्ट कर दिया गया है।

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ली और उनकी पत्नी, जो पिछले कुछ दिनों में ही मौजपुर आए थे, वो उस संख्या में नहीं हो सकते। लेकिन उत्तर पूर्वी दिल्ली के घनी आबादी वाले इलाकों में इस महामारी का तेजी से फैलने का खतरा है। अली के पास भले ही वायरस से लड़ने के लिए कुछ साधन हों लेकिन मौजपुर में रहने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है।

33 वर्षीय अली कहते हैं, एक आदमी के पास भले ही कुछ भी हो, वह रहने के लिए घर की तलाश तो करेगा। एक चाय खरीदने के लिए पांच दस रुपये की जरूरत होती है लेकिन मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। हालांकि मुआवजे के लिए आवेदन किया था लेकिन अभी तक कुछ भी नहीं मिला है। उन्हें कुछ राशन की बोरियों के साथ राहत शिविर में भेजा गया था।

ह पूछते हैं, स्टेशनरी सप्लाई के काम को हासिल करने के लिए उनके पास पैसे का कोई रास्ता नहीं है। दिल्ली में लॉकडाउन के दौरान मैं ड्राइवर का काम कैसे ढूंढ सकता हूं?

दुनियाभर में इस मानवीय संकटों की तरह दिल्ली हिंसा के पीड़ितों पर कोरोना वायरस की महामारी के प्रभाव दोगुना हो गए हैं। भारत में अभी इस बीमारी का सीधा खतरा है और उन लोगों के लिए तो अतिरिक्त आर्थिक संकट, विस्थापन और असुरक्षा है जो पहले ही सब कुछ खो चुके हैं।

रवरी में नागरिकता संशोधन अधिनियम पर चल रहे तनाव के बाद हिंसा भड़क गई। इसमें अधिकांश हमले उत्तर पूर्वी दिल्ली के मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ हुए। अंत में 53 लोग मारे गए थे। बड़ीं संख्या में लोगों के घरों और दुकानों को जला दिया गया जबकि अन्य में लूटपाट की गई।

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सके बाद जो सैकड़ों मुस्लिम परिवार अपने घरों से भाग गए थे, बाद में उन्होंने ओल्ड मुस्तफाबादद के ईदगाह में स्थापित एक अस्थायी शिविर में शरण ली। स्वयंसेवी समूहों और वक्फ बोर्ड (जो मुस्लिम संपत्तियों की देखरेख करते हैं) ने दिल्ली सरकार की मदद से इस शिविर को स्थापित किया था। यहां जो लोग अपना सब कुछ खो चुके थे उन्हें भोजन और कपड़े दिए गए थे। गैर-सरकारी संगठनों द्वारा कियोस्क ((छतरियों वाली छोटी इमारतें जो कि तब पहरा देने के काम आती होंगीं) स्थापित किए गए थे ताकि उन्हें दिल्ली सरकार को प्रस्तुत किए जाने वाले मुआवजे के फॉर्म भरने में मदद मिल सके।

शिविर के बारे में अनुमान लगाया गया है कि लगभग 1,000 लोग टेंट में एक साथ रहते थे, कपड़े और बिस्तर अक्सर बेमौसम बारिश में भीगे रहते थे। ईदगाह के बाड़े के बाहर सैकड़ों परिवारों को मोबाइल टॉयलेट का इस्तेमाल करना पड़ा। कोरोनोवायरस महामारी के भारत में फैलने के साथ यह संभावित बीमारी के आकर्षण का केंद्र बन गया। मोहम्मद शादाब कई हफ्तों तक शिविर में रहे थे, वह कहते हैं कि संभावित संक्रमण को रोकने के लिए उनके पास कोई साबुन या दवाएं नहीं थीं।

हफ्ते पहले ही परिवारों ने बाहर निकलना शुरु कर दिया था। जैसे ही प्रधानमंत्री मोदी ने 24 मार्च को राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा तो शेष परिवारों को भी शिविर को छोड़ने के लिए कहा गया था। मोहम्मद शादाब ने भी शिव विहार में अपना घर खोया था। वह कहते हैं, हमने कहा कि जबतक हमें मुआवजा नहीं मिलेगा, हम इसे नहीं छोड़ेंगे। तो उन्होंने हमसे कहा कि अगर आप ऐसा नहीं करोगे तो हम इस शिविर को समाप्त कर देंगे और तुम छोड़ दो।

शिव विहार में कमरे नष्ट होने के बाद शादाब भी बेघर हैं, उन्होंने मुआवजे के लिए अर्जी दायर की लेकिन हिंसा के बाद से उन्हें 2000 रुपये के अलावा कुछ भी नहीं मिला है। यहां तक दिल्ली सरकार द्वारा महामारी के चलते लॉकडाउन को सुनिश्चित करने के लिए मुआवजा अभियान चलाया गया है।

दिल्ली सरकार के एक अधिकारी ने अपनी पहचान न बताने की शर्त पर कहा कि प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा कई आवेदन दायर किए गए थे। कुछ एनजीओ के द्वारा दायर किए गए थे, कुछ अपने दम पर दायर किए गए थे। इसलिए हम उन सभी को प्रोसेस करने में सक्षम नहीं थे।

स अधिकारी ने कहा कि वायरस फैलने और उसके बाद लॉकडाउन की वजह से कानूनी टीम क्षेत्र का दौरा करने में सझम नहीं थी। कुछ लोगों को अंतरिम मुआवजा मिला था, जिन लोगों ने परिवार के किसी के किसी सदस्य को खो दिया था उन्हें दिल्ली सरकार से एक लाख रुपये मिलने थे, जिनके घर को जला दिया गया था उन्हें 20,000 रुपये मिलने थे।

ने कहा, हर कोई जिसने एक आवेदन दायर किया है उसे मुआवजा मिलेगा। अंतरिम मुआवजा पाने वाले हर किसी को यह निश्चित रूप से मिलेगा। लेकिन कोरोना वायरस के कारण इस अभियान को रोक दिया गया।

24 मार्च को मोदी द्वारा लॉकडाउन की घोषणा के तुरंत बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से जारी सर्कुलर में कहा गया कि कुछ सरकारी पुलिस, रक्षा और आवश्यक सेवाओं को छोड़कर सभी सरकारी कार्यालय बंद रहेंगे।

शादाब कुछ समय के लिए एक कमरे की तलाश में था और कुछ ही समय में एक जगह मिल गई। इस सप्ताह की शुरुआत में वह अपनी पत्नी सोनी और अपने दो बच्चों के साथ (तीन और 16 महीने की आयु के) शिव विहार वापस चले गए। उनके नए कमरे का किराया 3,000 रुपये है। शादाब कहते हैं कि उनके हाथ में अभी केवल 2,000 रुपये हैं और कोई पैसा नहीं है। उन्होंने जब शिविर छोड़ा था तो उन्हें लगभग 40 किलोग्राम सूखा राशन और 10 किलोग्राम आलू दिए गए थे।

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शिव विहार के कई मुस्लिम निवासी जो घरों से भाग गए थे, वे हिंदू-बहुल इलाके में वापस जाने से डरते हैं, जो रातोंरात दुश्मन हो गए थे। लेकिन जो शादाब दंगों से पहले जल निकासी कर्मचारी था और दिहाड़ी कमाता था, उसे काम ढूंढना की सबसे बड़ी चिंता है।

ईस अहमद को भी सबापुर का अपना घर छोड़ना पड़ा था , वह अब वहां वापस नहीं जा रहे हैं। उन्होंने मुस्तफाबाद में अपने घर से कुछ किलोमीटर दूर दिलशाद मस्जिद के पास 4,000 रुपये में दो छोटे कमरे लिए हैं जिसका किराया 4000 रुपये है। सोशल डिस्टेंशिंग के समय में परिवार के 11 सदस्यों को इन दो कमरों बंद किया गया है। 41 वर्षीय अहमद कहते हैं, 'क्या करना है, मेरे पास कोई विकल्प नहीं है। उन्होंने हमे 25,000 रुपये दिए लेकिन वह कुछ भी कवर नहीं करता है। '

दंगाइयों ने अहम के घर को जला दिया था जिसमें उनका स्कूटर और वॉशिंग मशीन भी थी। अममद की घड़ी की दुकान अच्छे से चल रही थी। अहमद बताते हैं कि उन्होंने उसे भी चला दिया। हम मदद मांग रहे हैं -यहां कोई पैसा नहीं लेकिन अभी तक कोई समाधान नहीं निकला है। एक बार यह बीमारी (कोरोना वायरस) चली जाए तो मैं अपनी दुकान फिर से शुरु करूंगा। यही मेरी योजना है।

(ये रिपोर्ट पहले स्क्रॉल डॉट इन में प्रकाशित की जा चुकी है। इसकी इस रिपोर्ट की लेखिका इप्शिता चौधरी हैं। हिंदी अनुवाद : निर्मलकांत)

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