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जनज्वार विशेष

लक्ष्मी देवी नहीं डायन है : मुंशी प्रेमचंद

Prema Negi
25 Oct 2019 12:57 PM IST
लक्ष्मी देवी नहीं डायन है : मुंशी प्रेमचंद
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आज धनतेरस है, पूरे देश में यह त्यौहार हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसमें हिंदुओं में पूजनीय देवी लक्ष्मी की पूजा की जाती है। जहां पूरा देश आज लक्ष्मी की पूजा करेगा, वहीं सुप्रसिद्ध लेखक मुंशी प्रेमचंद के लक्ष्मी के कुछ और ही विचार थे। उन्होंने लिखा है, लक्ष्मी घर की देवी नहीं डायन है...

ब तक संपत्ति मानव समाज के संगठन का आधार है, संसार में अंतरराष्ट्रीयता का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। राष्ट्र-राष्ट्र की, भाई-भाई की स्त्री पुरुष की लड़ाई का कारण यही संपत्ति है, जितनी मूर्खता और अज्ञानता है उसका मूल रहस्य यही विष की गांठ है। जब तक संपत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार रहेगा, तब तक मानव समाज का उद्धार नहीं हो सकता।

जदूरों के काम का समय घटाइए, बेकारों को गुजारा दीजिए, जमीदारों और पूंजीपतियों के अधिकारों को घटाइए, मजदूरों और किसानों के स्वत्वों को बढ़ाइए, सिक्कों का मूल्य घटाइए, इस तरह की चाहे जितने सुधार आप करें, लेकिन यह जीर्ण दीवार इस तरह के टीपटाप से नहीं खड़ी रह सकती। इससे नए सिरे से गिराकर उठाना होगा। संसार आदिकाल से लक्ष्मी की पूजा करता चला आता है, लेकिन संसार का जितना कल्याण लक्ष्मी ने किया है, उतना शैतान ने नहीं किया। यह देवी नहीं डायन है।

संपत्ति ने मनुष्य को क्रीतदास बना लिया है। उसकी सारी मानसिक, आत्मिक और दैहिक शक्ति केवल संपत्ति के संचय में बीत जाती है। मरते दम भी हमें यही हसरत रहती है कि हाय इस संपत्ति का क्या हाल होगा। हम संपत्ति के लिए जीते हैं, उसी के लिए मरते हैं, हम विद्वान बनते हैं संपत्ति के लिए, गेरूए के वस्त्र धारण करते हैं संपत्ति के लिए। घी में आलू मिलाकर हम क्यों बेचते हैं? दूध में पानी क्यों मिलाते हैं? भाँति-भाँति के वैज्ञानिक हिंसा-यंत्र क्यों बनाते हैं? वेश्याएं क्यों बनती हैं और डाके क्यों पड़ते हैं? इसका एकमात्र कारण संपत्ति है। जब तक संपत्तिहीन समाज का संगठन ना होगा,जब तक संपत्ति-व्यक्तिवाद का अंत न होगा, संसार को शांति न मिलेगी।

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कुछ लोग समाज के इस आदर्श को वर्गवाद या 'क्लास वार' कहकर उसका अपने मन में भीषण रूप खड़ा कर लिया करते हैं। जिनके पास धन है, जो लक्ष्मी-पुत्र हैं, जो बड़ी-बड़ी कंपनियों के मालिक हैं, वे इसे हौवा समझ कर आंखें बंद करके गला फाड़कर चिल्ला पड़ते हैं। लेकिन शांत मन से देखा जाए तो असंपत्तिवाद के शरण में आकर उन्हें भी वे शांति और विश्राम प्राप्त होगा, जिसके लिए वे संतों और संन्यासियों की सेवा किया करते हैं, और फिर भी वह उस उनके हाथ नहीं आती।

क्या वे अपने भाइयों से, अपनी ही स्त्री से सशंक नहीं रहते? क्या वे अपनी ही छाया से चौंक नहीं पड़ते? यह करोड़ों का ढेर उनके किस काम आता है? वे कुंभकर्ण का पेट लेकर भी उसे अंदर नहीं भर सकते। ऐन्द्रिक भोग की भी सीमा है। इसके सिवा कि उनके अहंकार को यह संतोष हो कि उनके पास एक करोड़ जमा हैं, और तो उन्हें कोई सुख नहीं है। क्या ऐसे समाज में रहना उनके असह्य होगा, जहाँ उनका कोई शत्रु न होगा, जहाँ उन्हें किसी के सामने नाक रगड़ने की जरूरत न होगी, जहां उन्हें छल कपट के व्यवहार से मुक्ति होगी, जहां उनके कुटुम्बवाले उनके मरने की राह न देखते होंगे, जहां वे विष के भय के बगैर भोजन कर सकेंगे? क्या यह अवस्था उनके लिए असह्य होगी?...

बेशक उनके पास बड़े-बड़े महल और नौकर-चाकर हाथी घोड़े न होंगे, लेकिन यह चिंता, संदेह और संघर्ष भी तो ना होगा।

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मुंशी प्रेमचंद की जीवनी 'कलम का सिपाही' के एक अंश में अमृत राय लिखते हैं, 'सम्पत्तिहीन, श्रेणीहीन, समष्टिमूलक समाज के विरुद्ध कोई युक्ति, कोई तर्क सुनने के लिए मुंशीजी तैयार नहीं है, सब झूठे तर्क हैं संपति को बनाए रखने के :

"कुछ लोगों को संदेह होता है कि व्यक्तिगत स्वार्थ के बिना मनुष्य में प्रेरक शक्ति कहाँ से आये। फिर विद्या, कला और विज्ञान की उन्नति कैसे होगी? क्या गोसाई तुलसीदास ने रामायण इसलिए लिखा था कि उस पर उन्हें रायल्टी मिलेगी? आज भी हम हजारों आदमियों को देखते हैं जो उपदेशक है, लेखक हैं, कवि हैं, शिक्षक है, केवल इसलिए कि इससे उन्हें मानसिक संतोष मिलता है। अभी हम व्यक्ति की परिस्थिति से अपने को अलग नहीं कर सकते, इसलिए ऐसी शंकायें हमारे मन में उठती हैं। समष्टि कल्पना के उदय होते ही यह स्वार्थ चेतना स्वयं संस्कृत हो जाएगी।

सांप्रदायिकता और 'संस्कृति' के उलझे हुए, संघर्षपूर्ण प्रश्न पर विचार करते हुए मुंशी प्रेमचंद ने 15 जनवरी 1934 के 'जागरण' में लिखा था, 'हिंदू अपनी संस्कृति को क़यामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक आपनी-अपनी संस्कृति को अभी भी अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गए हैं कि अब न कहीं मुस्लिम संस्कृति है न कहीं हिंदू संस्कृति, न कोई अन्य संस्कृति, अब संसार में केवल एक संस्कृति हैं, और वह है आर्थिक संस्कृति, मगर हम आज भी हिंदू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं, हालाँकि संस्कृति का धर्म से कोई संबंध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है, लेकिन ईसाई संस्कृति और मुस्लिम या हिंदू संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं है..."

(अमृत राय द्वारा लिखी गई मुंशी प्रेमचंद की जीवनी 'कलम के सिपाही' का अंश।)

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