आश्चर्य का विषय है कि जहां नदियों का सबसे अधिक उपयोग किया जाता है और सबसे अधिक प्रदूषण है, वहां का प्रदूषण नहीं मापा जाता। इसे मापने के समय हम सबसे साफ़ और बहाव वाली जगह पहुँच जाते हैं। वहां के आंकड़ों पर हम प्रदूषण का स्तर बताते हैं...
महेंद्र पाण्डेय, वरिष्ठ लेखक
एनजीटी समय-समय पर कहता रहा है कि गंगा प्रदूषित होती जा रही है, या फिर गंगा पहले से अधिक प्रदूषित हो गयी है। 14 मई 2019 के फैसले में भी एनजीटी ने कहा है कि हरिद्वार से कोलकाता तक कहीं भी गंगा का पानी न तो नहाने लायक है और न ही मानव खपत लायक है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी समय-समय पर बताता है कि गंगा बहुत प्रदूषित है। सवाल यह है कि गंगा का प्रदूषण कोई देख भी रहा है या नहीं?
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) का पैमाना नदियों के प्रदूषण के लिए अजीब सा है। इसने देशभर की नदियों के अलग-अलग खण्डों के उपयोग के आधार पर प्रदूषण का पैमाना बनाया है। इस उपयोग के पांच वर्ग हैं – सीधे पीने लायक, नहाने लायक, साफ़ कर पीने लायक, जलीय जीवन के संवर्धन के लिए और सिंचाई के लिए।
इन सभी वर्ग के लिए कुल तीन या चार पैमाने हैं, जिनमें जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा, जैव-रासायनिक ऑक्सीजन मांग (बीओडी) और कॉलिफोर्म बैक्टीरिया महत्वपूर्ण हैं। घुलित ऑक्सीजन पानी में घुली हुए ऑक्सीजन की मात्र है, जो जलीय जीवों के लिए बहुत जरूरी है। बीओडी वह पैमाना है जिससे पता चलता है कि जल में मौजूद कार्बनिक प्रदूषण को नष्ट करने में कितने घुलित ऑक्सीजन की खपत होगी। नदी में बीओडी अधिक होने पर घुलित ऑक्सीजन की मात्र कम हो जाती है। कोलिफोर्म बैक्टीरिया वह समूह है जिसकी उपस्थिति मानव या मवेशियों के मल-मूत्र से प्रदूषण का संकेत देती है।
सीपीसीबी इन्ही पैरामीटरों के आधार पर 1970 के दशक से नदियों का प्रदूषण देख रहा है। उस समय नदियों में प्रदूषण का मुख्य स्त्रोत आबादी के बीच से निकला गंदा पानी ही था, कुछ जगहों पर उद्योग भी थे। खेतों में सिंचाई की सुविधाएं कम थीं और पर्यटन इतने बड़े पैमाने पर नहीं होता था। पर धीरे-धीरे विकास ने इन सभी चीजों को बदल दिया है।
खेतों में सिंचाई की सुविधाएं बढ़ने पर अब खेतों से पानी भी प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर नदियों तक पहुँचाने लगा है। उद्योगों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है। आबादी केवल बढ़ी ही नहीं है, बल्कि हमारा पूरा जीवन की तरह-तरह के रसायनों के अधीन हो गया है। सुबह से शाम तक हम लगातार रसायनों का उपयोग करते रहते हैं। अब तो रद्दी दवाएं, रसायन से बने पदार्थ और भी अनेक सामान हम नालियों में बहाने लगे हैं जो पहले बाजार में नहीं थीं। इसके अतिरिक्त जल आपूर्ति की सुविधा ने गंदे पानी की मात्रा को बढ़ाया है।
जाहिर है, आज गंदे पानी या फिर फिर नदियों में मिलाने वाले नालों में जितने रसायन और हानिकारक पदार्थ हैं वह पहले नहीं थे। आज तो नैनो-प्लास्टिक (प्लास्टिक के बहुत बारीक टुकड़े) भी नदियों में एक बड़ी समस्या बनकर उभरे हैं।
इन सबके बाद भी सीपीसीबी आज भी 1970 के दशक के पैरामीटरों से नदियों में प्रदूषण देख रहा है। इसके पास नदियों के पानी में कीटनाशकों, हैवी मेटल्स और दूसरे आधुनिक प्रदूषकों के आंकड़े ही नहीं हैं। समस्या यहीं नहीं ख़त्म होती है। सीपीसीबी ने जितने ऑटोमेटिक मोनिटरिंग उपकरण हैं उन्हें नदियों के बीच में स्थापित किया है, जहां नदी सबसे गहरी होती है और हमेशा पानी का बहाव बना रहता है।
जाहिर है यहाँ नदी सबसे साफ़ अवस्था में होगी। दूसरी तरफ, यदि आप नदियों के प्रदूषण को देखें तो यह हमेशा किनारे से मिलता है। नदी के उपयोग को भी देखें तो जलीय-जीवन संवर्धन को छोड़कर सभी उपयोग किनारे पर ही होते हैं, जहां सबसे अधिक प्रदूषण होता है।
यह एक आश्चर्य का विषय है कि जहां नदियों का सबसे अधिक उपयोग किया जाता है और सबसे अधिक प्रदूषण है वहां का प्रदूषण नहीं मापा जाता। इसे मापने के समय हम सबसे साफ़ और बहाव वाली जगह पहुँच जाते हैं। वहां के आंकड़ों पर हम प्रदूषण का स्तर बताते हैं। इससे स्पष्ट है कि नदियों के प्रदूषण के आंकड़ों की तुलना में किनारों का प्रदूषण बहुत अधिक होगा और जब हम नदियों के किनारे जाते हैं तब इसी प्रदूषण की चपेट में आते हैं।
सीपीसीबी के नदी प्रदूषण के आंकड़े केवल घरों से निकले प्रदूषण को बताते हैं, औद्योगिक प्रदूषण के नहीं। इसका कारण है, जितने पैरामीटर के आधार पर नदियों का प्रदूषण बताया जाता है वे सभी सामान्य प्रदूषण ही है। उद्योगों के बारे में यह बताया जाता है कि कितना गन्दा पानी निकल रहा है और इसमें कितना प्रदूषण है। उद्योगों से निकला प्रदूषण अधिकतर मामलों में एक लम्बी यात्रा तय कर किसी नाले में मिलता है और फिर नाला लम्बी दूरी तय कर नदियों में मिलता है।
पानी के बहाव के साथ-साथ प्रदूषण की मात्रा कम होती जाती है। इसीलिए उद्योगों के प्रदूषण का वास्तविक प्रभाव नदी पर क्या पड़ रहा है, वह किसी को पता नहीं चलता। यही हालत नालों की भी है, नाले के प्रदूषण से यह बताना कठिन है कि नाला नदी पर क्या प्रभाव डाल रहा है। यही कारण है कि हमें न तो प्रदूषण की सही जानकारी मिलती है और न ही प्रदूषण कम हो पाता है।