युवा कवि सौम्य मालवीय की कविता 'गंगो-जमन, क्या गया तुम्हारा?
गंगो-जमन, क्या गया तुम्हारा
जो जमन धीमे-धीमे जलावतन हुआ
और सिर्फ हर-हर गंगे रह गया,
क्या गया तुम्हारा?
तुम तो शाहजहानाबाद की ठण्डी गलियों में
अपने सप्ताही दौरे लगाते ही रहे
शाहिद का ग़ोश्त
असलम की बिरयानी
और अनवर का शीर-माल
'होम-डिलेवरी' पर
शहर की दूसरी तरफ़ मँगवाते ही रहे
'जश्ने-रेख़्ता' पे जाके उर्दू का सालाना कोटा ले आये
'सूफ़ियाना' में शख़्सियत पर रूहानी रोगन करा आये
इस्लामी इबादत की बारीकियों पर थीसिस भी लिख डाली
अपने विदेशी दोस्तों को कराई 'उन' इलाक़ों की सैर
घर पर रख लिया क़ुरआन का अंग्रेज़ी अनुवाद
और कोक स्टूडियो पर क़व्वालियाँ सुन झूम उठे!
क्या गया तुम्हारा?
ऊंची हाउसिंग सोसाइटी के
ऊपरी माले के अपने फ्लैट में
ढलती शाम के रंग और हिंदुस्तानी मौसिक़ी के
ज़ायके पर बात करते हुए
क्या कभी ध्यान से गुज़रा तुम्हारे
कि सुनते नहीं अज़ान की आवाज़ अब एक भी बार दिन में!
कि उतनी ऊँचाई से मंज़र शहर की बस्ती में
दूर-दूर तक नहीं रहे कोई
जो तुम्हारे ताने-बाने में कहीं
चंद धागों की तरह ही बस सकें!
तुम्हारे सहकर्मी को रहना पड़ा पुराने शहर की पुरानी बस्ती में
और तुमने नए इलाक़े की रासायनिक शुद्धता के अनुसार
ख़ुद को भी चतुराई से शुद्ध कर लिया!
क्या गया तुम्हारा?
जब दबी ज़बान में तुमने भी
'पब्लिक प्रॉपर्टी' को पहुँचने वाले नुक़्सान के लिए
'प्रदर्शनकारियों' को दोषी ठहराया
जब जान लिए जाने को बहाना बताया
और बहुत अफ़सोस ज़ाहिर किया
क़ुर्बान हुई जवानियों पर!
मज़हब तुम्हें राह का रोड़ा लगा
अपनी कॉस्मेटिक धर्मनिरपेक्षता में पहचान का हर रंग
तुम्हें ऊपर से ओढ़ा लगा
तुम अपने भी कहाँ हुए
साझी तहज़ीब के सुलझे हुए सौदागर!
गंगा से लेकर जमुना तक
रवि वर्मा से लेकर हुसैन तक
जो बिका सांस्कृतिक हो गया
तुम्हारे उदार मन का सांकेतिक हो गया
पर नंगे पैरों वो चित्रकार जब मुल्क़ से निकला
तो तुमने उसके तलवों का दर्द
क्या कभी अपने दिल पर महसूस किया?
क्या रंगों पर उतरे आसेब
तुमपर भी कभी उतरे?
गंगा के किनारे खप गए
जमुना का जी सूख गया
पर तुम्हारे साहित्यिक उत्सवों की रौनकें कहाँ गईं!
शायरी के मिज़ाज पर सालाना नशिस्तें कहाँ गईं!!
गंगो-जमन क्या गया तुम्हारा?
पर सोचो की क्या गया तुम्हारा!
जब तुम हिंदुस्तानियत का स्वाँग भरते रहे,
हवा में उभर आये ठिठके हुए जीने
शहर में पसर गईं
सुनसान और दहशत-आशोब सड़कें
भीड़, ज़र्द चेहरों और सन्न निगाहों की सूरत बन गई
एक मस्ज़िद आसमान के कैनवस से यूँ ही मिट गई
पुरानी एक आस दिल ही दिल में घुट गई
यमुना बदल गई जली हुई जीभ से नाले में
जिसमें वृन्दावन के मवेशियों की लाशें
और ख़याल की बंदिशें तैरती हैं!!
गंगो-जमन क्या गया तुम्हारा?
पर समझो तो, सब गया तुम्हारा
जब जमन धीमे-धीमे जलावतन हुआ
और वतन भी धीमे-धीमे बेवतन हुआ,
क्या कभी सोचा है
कि अहद की दुश्मनी से ज़्यादा
जमन को मुसलसल तुम्हारी
नादान दोस्ती से ख़तरा था?
पुख़्ता अहसासों की ज़रुरत को
तुम्हारे दिल की
नींद-भरी नरमी से खतरा था?