किसी तरह के पेड़-पौधे को लगाने के लिये गांव में साल भर हरेला का इंतजार किया जाता था। इस परम्परा से यह भी पता चलता है कि हमारे त्योहार पर्यावरण संरक्षण के त्योहार भी हैं। बढ़ते शहरीकरण के कारण हालांकि अब पेड़-पौधे लगाने की परम्परा हर साल कम होती जा रही है, जिससे त्योहार से जुड़ी पर्यावरण संवर्धन की परम्परा पर खतरा मँडरा रहा है...
जगमोहन रौतेला, वरिष्ठ पत्रकार
भाबर के गांवों को भी अब शहरीकरण की हवा लग गयी है। चाल व चरित्र के हिसाब से गांव पूरी तरह शहर में बदल गये हैं। यही कारण है कि पहले की अपेक्षा गांवों में भी लोग शहरों की तरह ही अब अपने तक सीमित रहने लगे हैं। इसका असर आपसी मेल मिलाप व सुख-दुख की भागीदारी पर पड़ रहा है।
लोगों की आत्ममुग्धता के शिकार त्योहार हो रहे हैं। मुझे याद है कि बचपन में जब कोई भी त्योहार मनाया जाता था तो पूरे गांव में दो-चार दिन पहले से ही एक उल्लास का वातावरण रहता था। त्योहार के दिन तो पूरे गांव में एक-दूसरे के यहां त्योहार के पकवान पहुँचाने की चहल-पहल रहती थी। अब यह परम्परा खत्म होने के कगार पर पहुँच गयी है।
श्रावण महीने की संक्रांति को मनाये जाने वाला हरेला त्योहार भी अब लोगों की आत्ममुग्धता का शिकार हो रहा है। पहले हरेले के दिन पूरे गांव में एक उल्लास का माहौल रहता था। हरेले से पहले धान की रोपाई पूरी तरह से खत्म हो जाती थी। इसके बाद लगभग दो महीने तक गांव में लोग आराम से रहते थे, क्योंकि खेती-बाड़ी का कोई काम नहीं होता था।
भाबर में घरों की बसासत गांव में बीच में होती थी। घर के दोनों ओर खेत होते थे। घर के बराबर में ही पूरे गांव के लिये कच्ची सड़क होती थी, जिसे भौली कहते थे। दोनों ओर अलग-अलग फसल बोयी जाती थी। उन दिनों आमतौर पर कुछ गांवों में एक ओर धान तो दूसरी ओर मक्का बोयी जाती थी। मक्का कटने के बाद उसमें सरसों बोयी जाती थी और उसके बाद गेहूँ की फसल होती थी।
जिस ओर धान लगाया जाता था वहां धान के कटने के बाद सीधे गेहूँ बोया जाता था। भाबर के कुछ गांवों में गन्ना भी लगाया जाता था। जहां गन्ना लगता था वहां मक्का नहीं बोते थे, क्योंकि गन्ने की फसल पूरे बारह महीने की होती है। अगली बार फिर फसल चक्र बदल जाता था। जहां पिछली बार धान लगाया था, वहां अगली बार मक्का बोया जाता था। इससे मिट्टी में फसल के अनुसार खनिज-लवणों की कमी नहीं होती थी।
फसलों का चक्र बदलते रहने से खेत से खरपतवार भी नष्ट हो जाते थे। रोपाई लगाने के लिये खेत तैयार करते समय खेत में उगी खरपतवार सड़ जाती थी, जो हरी खाद का काम धान की फसल के लिये करती थी। रोपाई लगाना खेती के कार्य में सबसे ज्यादा मेहनती काम है।
इसी वजह से रोपाई लगाने के बाद मनाया जाने वाला हरेला त्योहार लोगों को रोपाई की थकान के बाद एक नयी ताजगी भी देता था। उन दिनों मनोरंजन के दूसरे कोई साधन न होने से भी शायद त्योहारों की अपनी एक अलग महत्ता थी। बच्चों को तो हरेले के त्योहार का विशेष तौर पर इंतजार रहता था, क्योंकि गर्मियों की लम्बी छुट्टी के बाद 9 जुलाई को स्कूल खुलते थे, तो उसके लगभग एक हफ्ते बाद ही स्कूल की वह पहली छुट्टी होती थी।
उन दिनों 21 मई को स्कूल बंद होते थे और 9 जुलाई को खुलते थे। शिक्षा का नया सत्र भी आजकल की तरह अप्रैल से शुरू न होकर 9 जुलाई से ही शुरू होता था। दूसरा त्योहार के दिन कई तरह के पकवान भी खाने को मिलते थे। जिनमें खीर, पूरी, ककड़ी का रायता, बड़ा और सेल मुख्य होते थे। अमा (दादी) व ईजा (मां) घर में चावल की खूब गाढ़ी खीर बनाते थी। ईजा उसमें किसमिस, काजू व इलायची भी डालती थी, जिसकी वजह से बचपन में घर की खीर का वह स्वाद आज भी मुँह में है।
हरेले के दिन हम बच्चों को सवेरे जल्दी उठकर नहाना भी पड़ता था। अमा ही नहाने व पूजा-पाठ के बाद हरेले को काटती थी। बाद में ईजा के पास यह जिम्मेदारी आयी। हरेला काटने के बाद अमा सभी के सिर में हरेला चढ़ाती थी। उससे पहले पिठ्या लगाती थी। उसके बाद हम अमा को ढोग देते थे। इसके बाद शुरू होता था अड़ोस-पड़ोस में हरेला देने का सिलसिला, जिसमें हरेले के साथ पूरी व एक कटोरे में खीर जरूर होती थी।
आस-पड़ोस में हरेला दने की जिम्मेदारी बच्चों की होती थी। इस दिन किसी न किसी फल-फूल का पेड़ लगाने की लोक परम्परा कुमाऊं में है। माना जाता है कि हरेले के दिन लगाया गया पेड़-पौधा सूखता नहीं है, बल्कि बड़ा होकर फल, फूल , ईंधन व चारे आदि की जरुरतें पूरी करता है। हम बच्चे भी जहां हरेला देने जाते वहां से कोई न कोई फल-फूल का पौधा या उसकी टहनी जरुर लाते।
परिवार के सयाने भी इस बात को कहते थे कि हरेले के दिन फलां फल का पेड़ लगाना या फलां फूल की टहनी ले कर आना। मतलब ये कि किसी तरह के पेड़-पौधे को लगाने के लिये गांव में साल भर हरेला का इंतजार किया जाता था। इस परम्परा से यह भी पता चलता है कि हमारे त्योहार पर्यावरण संरक्षण के त्योहार भी हैं। बढ़ते शहरीकरण के कारण हालांकि अब पेड़-पौधे लगाने की परम्परा हर साल कम होती जा रही है, जिससे त्योहार से जुड़ी पर्यावरण संवर्धन की परम्परा पर खतरा मँडरा रहा है।
हरेले का त्योहार मनाने की तैयारी दस दिन पहले से ही हो जाती है। कुछ स्थानों पर नौ व ग्यारह दिन पहले यह तैयारी होती है। आषाढ़ महीने के आठ, नौ या दस दिन शेष रहने के दिन घर की सयानी महिलायें व्रत रखकर पूजा इत्यादि करने के बाद रिंगाल की छोटी सी गोल टोकरी की लिपाई-पुताई कर उसमें साफ-सुथरी मिट्टी भरती हैं। उसके बाद विषम संख्या में खरीब की अनाज के दाने मिलाये जाते हैं। यह संख्या पांच, सात, नौ में होती है।
अनाज के दानों में धान, तिल, मक्का, जौ, उड़द, लोबिया, सरसों आदि होते हैं। इसके बाद प्रत्येक दिन हरेले में पूजा के बाद गंगाजल छिड़का जाता है। इस कार्य को परिवार के बड़े-बुजुर्ग ही करते हैं। हरेला बोने के आठवें या नवें दिन कुछ स्थानों में डिकारे बनाने की भी परम्परा है। जिसमें गेरु (लाल मिट्टी) से शिव-पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, नंदी यानी कि शिव परिवार की प्रतिमाएँ प्रतीक स्वरूप बनाई जाती हैं, जिसके बाद इनकी पूजा की जाती है। इसे हरकालिका पूजन कहा जाता है। उसके बाद नवें या दसवें दिन अर्थात् सावन के पहले दिन (संक्रांति को) पूजा-अर्चना के बाद मंत्रोच्चार के साथ सम्पूर्ण हरेले की कटाई की जाती है।
उल्लेखनीय है कि सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में सौरपक्षीय पंचांग लागू होता है। इसी कारण यहां संक्रांति के दिन से नए महीने की शुरुआत होती है, जबकि मैदानी क्षेत्रों में चंद्र पक्षीय पंचांच लागू होने से वहां नया महीना पूर्णिमा के दिन से शुरू होता है। इसी कारण से उत्तराखण्ड में सावन (श्रावण मास) का महीना संक्रांति (हरेले के त्योहार) से प्रारम्भ होता है। इसके बाद परिवार के सभी सदस्य अपने से छोटों के सिर में हरेले के तिनणों को निम्न आशीष के साथ रखते हैं -
"जी रैया जागि रैया, य दिन, य बार, य मांस भ्यटनै रैया
बाघ जैसि ताकत ऐजौ, स्याव जैसि बुद्धि है जौ
काव जैसि नजर है जौ, दूब जैस् पौलि जया
अकास जस उच्च है जया, धरति जस फैल जया
गंग में पांणि रुँण तक, हिमालक ह्यूँ गलन तक जी रया
सिल पिसीं भात खाया, जांठ टेकी भ्यार जाया
दुनि मै खूब नाम है जौ, सदा सुखि रैया
जी रैया जागि रैया...
जिसे हरेला चढ़ाया जाता है उसे जमीन में बैठना पड़ता है। इसके बाद सयाने लोग हरेले के कुछ तिनणों को पकड़ कर उसे सबसे पहले पांव में छुवाते हैं, उसके बाद घुटनों को फिर कंधे को और आखिर में सिर में रखते हैं। ऐसा तीन या पांच बार किया जाता है। ऐसा करते समय ही "जी रैया जागि रैया" के आशीर्वचन बोले जाते हैं।
नौकरी या व्यवसाय के कारण घर से दूर रहने वाले लोग हरेले के त्योहार पर घर अवश्य जाते हैं, जो किन्हीं कारण से घर नहीं जा पाते उन्हें डाक से या किसी परिचित के माध्यम से अक्षत व रौली के साथ हरेला भेजा जाता है, ताकि वह अपने कुल व ईष्ट देवता को याद करके हरेले को आशीर्वाद के रूप में अपने व अपने बच्चों के सिर में रख सकें।
हरेले का त्योहार उन युवाओं के लिये विशेष महत्व रखता है, जो घर-परिवार से दूर सीमा पर विषम परिस्थितियों में देश की रक्षा में लगे रहते हैं। डाक द्वारा जब हरेला उन सैनिकों के पास पहुँचता है तो वे खुद को भावनात्मक रुप से घर में ही महसूस करते हैं और घर-परिवार व गांव के सभी लोगों की सुख समृद्धि की कामना के साथ हरेला अपने सिर में रखते हैं।
हरेले का त्योहार पारिवारिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि सामूहिक रूप से मेले के रूप में भी मनाया जाता है। इस दिन अल्मोड़ा जिले में शिव की तपस्थली जागेश्वर धाम , कुमाऊं की प्राचीन राजधानी चम्पावत के गौरल चौड़, भीमताल के मल्लीताल स्थित रामलीला मैदान, बिनसर आदि स्थानों में परम्परागत रूप से भव्य मेले लगते हैं।
भीमताल में हरेले के दिन से एक हफ्ते का मेला लगता है। इस मेले के लिए परम्परानुसार सबसे पहला निमंत्रण भोलेनाथ शिव व बजरंगबलि को दिया जाता है, जिसके लिए निमंत्रण पत्रों में इनका नाम लिखकर रामलीला मैदान के मंदिरों में चढ़ाया जाता है। मान्यता है कि ऐसा करने से पूरे वर्ष क्षेत्र में भगवान की छत्रछाया बनी रहती है।
जागेश्वर धाम में तो सावन के पूरे महीने ही महादेव का जलाभिषेक किया जाता है। प्रत्येक सोमवार को यहां लोगों की ज्यादा भीड़ रहती है। सावन के महीने देश के कोने-कोने से हजारों श्रद्धालु आकर जागेश्वर धाम के दर्शन करते हैं। इस दिन से सूर्य का दक्षिणायन भी प्रारम्भ होता है, जिसके कारण कुमाऊं में हरेले के त्यौहार को उत्तरायणी (मकर संक्रांति) की तरह ही महत्व दिया जाता है।
(जगमोहन रौतेला जनसरोकारों से जुड़े स्वतंत्र पत्रकार हैं।)