सप्ताह का कविता में आज पढ़िए हिंदी के वरिष्ठ कवि विष्णु खरे की कविताएं
जिस तरह निराला ने कविता को छंदों से मुक्त किया, केदारनाथ सिंह ने उदात्तता से मुक्त किया, उसी तरह एक हद तक रघुवीर सहाय ने और ज्यादा समर्थ ढंग से विष्णु खरे ने उसे करुणा की अकर्मण्य लय से मुक्त किया है और कविता को अस्तित्व के संकट से बचा कवियों की बड़ी दुनिया के लिए नया प्रवेश द्वार खोल दिया है।
केदार जी के यहाँ करुणा की जगह अगर खुशी दिखाई देती है, रघुवीर सहाय के यहाँ अगम्य-अवध्य आतंक, तो खरे के यहाँ क्षोभ और यथार्थ का स्वीकार मिलता है।
रघुवीर सहाय की कविता जहाँ महानगर केंद्रित है और ‘मैं’ पन के बोझ से दबी है, वहाँ खरे की कविता महानगर से तो अपने पात्रों को उठाती है पर जब कविता पूरी होती है तो महानगर की जगह कविता में उठा विषय अस्तित्वमान हो उठता है। महानगर गौण होकर गायब-सा हो जाता है।
यहाँ महत्त्वपूर्ण यह है कि इसके लिए ना तो उन्हें केदार जी की तरह मात्र स्मृतियों के सहारे रहना पड़ता है, ना वे संदर्भों का आधुनिक कवियों की तरह चौंकाने वाले ढंग से इस्तेमाल की प्रचलित चालाकी दिखलाते हैं, बल्कि विषयवस्तु से ऐसा गहरा लगाव (एंगेजमेंट) या प्रतिबद्धता वहाँ दिखती है कि एक दर्शक या प्रस्तुतकर्ता के रूप में कवि गायब-सा हो जाता है।
खरे की कुछ कविताओं को दुबारा पढ़ने की हिम्मत नहीं पड़ती। ‘आग’ एक ऐसी ही कविता है। जो रोज घटने वाली दहेज प्रताड़ना को लेकर है, पर उसे पढ़ते लगता है कि अगर ऐसी घटना घट रही है और आप उसे जान रहे हैं तो या तो इस आग को बुझाने की कोशिश कीजिए या इस मुद्दे को प्रसंग से बाहर कीजिए। ऐसी कविताएँ ‘कविता के लिए कविता’ की सुविधा से हमें वंचित करती हैं।
इस मामले में ये कविताएँ परंपरागत रूप से अच्छी कविता होने की बजाय बुरी कविताएँ साबित होती हैं। क्योंकि ये अपने कष्ट में आपकी हिस्सेदारी माँगती हैं। ये स्त्रियों के जलाए जाने की पीड़ा को उत्सवता में नहीं बदल डालती हैं- ‘उनकी हत्या की गई/ उन्होंने आत्महत्या नहीं की/ इस बात का महत्त्व और उत्सव/ कभी धूमिल नहीं होगा कविता में’ (ब्रूनो की बेटियाँ - आलोक धन्वा)
नामवर सिंह ने अच्छे आलोचक के बारे में कहीं लिखा था कि उसकी पहचान इससे होती है कि वह कविता की किन पंक्तियों को उद्धृत करता है। पर इस अर्थ में विष्णु खरे को अच्छा आलोचक शायद कभी नहीं मिल पाएगा। क्योंकि उनकी अधिकांश कविताएं भाषा संबंधी किसी भी रेटारिक, मुहावरे या पंक्तियों या पैरे को ज्यादा या कम प्रभावी बनाने के लिए किए गए चमत्कारों से मुक्त हैं।
इस संदर्भ में मुक्तिबोध की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं कि- ‘यह सबके अनुभव का विषय है कि मानसिक प्रतिक्रिया हमारे अंतर में गद्यभाषा को लेकर उतरती है, कृत्रिम ललित काव्य-भाषा में नहीं। फलतः नई कविता का पूरा विन्यास गद्यभाषा के अधिक निकट है।’ आइए पढ़ते हैं विष्णु खरे की कुछ कविताएं - कुमार मुकुल
तभी
सृष्टि के सारे प्राणियों का
अब तक का सारा दुःख
कितना होता होगा यह मैं
अपने वास्तविक और काल्पनिक दुखों से
थोड़ा-बहुत जानता लगता हूँ
और उन पर हुआ सारा अन्याय?
उसका निहायत नाकाफ़ी पैमाना
वे अन्याय हैं जो
मुझे लगता है मेरे साथ हुए
या कहा जाता है मैंने किए
कितने करोड़ों गुना वे दुःख और अन्याय
हर पल बढ़ते ही हुए
उन्हें महसूस करने का भरम
और ख़ुशफ़हमी पाले हुए
यह मस्तिष्क
आख़िर कितना ज़िन्दा रहता है
कोशिश करता हूँ कि
अंत तक उन्हें भूल न पाऊँ
मेरे बाद उन्हें महसूस करने का
गुमान करने वाला एक कम तो हो जाएगा
फिर भी वे मिटेंगे नहीं
इसीलिए अपने से कहता हूँ
तब तक भी कुछ करता तो रह।
संकल्प
सूअरों के सामने उसने बिखेरा सोना
गर्दभों के आगे परोसे पुरोडाश सहित छप्पन व्यंजन
चटाया श्वानों को हविष्य का दोना
कौओं उलूकों को वह अपूप देता था अपनी हथेली पर
उसने मधुपर्क-चषक भर-भर कर
किया शवभक्षियों का रसरंजन
सभी बहरूपिये थे सो उसने भी वही किया तय
जन्मान्धों के समक्ष करता वह मूक अभिनय
बधिरों की सभा में वह प्रायः गाता विभास
पंगुओं के सम्मुख बहुत नाचा वह सविनय
किए जिह्वाहीन विकलमस्तिष्कों को संकेत-भाषा सिखाने के प्रयास
केंचुओं से करवाया उसने सूर्य-नमस्कार का अभ्यास
बृहन्नलाओं में बाँटा शुद्ध शिलाजीत ला-लाकर
रोया वह जन-अरण्यों में जाकर
स्वयं को देखा जब भी उसने किए ऐसे जतन
उसे ही मुँह चिढ़ाता था उसका दर्पण
अन्दर झाँकने के लिए तब उसने झुका ली गर्दन
वहाँ कृतसंकल्प खड़े थे कुछ व्यग्र निर्मम जन।
उसाँस
कभी-कभी
जब उसे मालूम नहीं रहता कि
कोई उसे सुन रहा है
तो वह हौले से उसाँस में सिर्फ़
हे भगवन हे भगवन कहती है
वह नास्तिक नहीं लेकिन
तब वह ईश्वर को नहीं पुकार रही होती
उसके उस कहने में कोई शिक़वा नहीं होता
ज़िन्दगी भर उसके साथ जो हुआ
उसने जो सहा
ये दुहराए गए शब्द फ़क़त उसका खुलासा हैं।
बजाए-ग़ज़ल
(शमशेर से मुतास्सिर एक ज़ाती हिमाक़त)
जो न झेले हरेक वार सीने पर
हज़ार लानतें हों ऐसे जीने पर
दिले-मजलूम को रफ़ू न कर पाए
वो क्या फ़ख्र करे अपने ज़ख़्म सीने पर
नहाती मजदूरने पखारें ए़ड़ियाँ जिससे
वो ठीकरा भारी है हर नगीने पर
हर कोई निराला हो नहीं जाता
लाख कड़ी मारें पड़ें सीने पर
ताउम्र पोंछती रही है अपने पल्लू से
तमाम शाइरी कुर्बान उस पसीने पर
कहीं मुझसे उनका बदन न छिल जाए
दीवार से सट के वो यूँ चढ़ते हैं जीने पर
हमें गाड़ी बदलनी थी बीना में
चढ़ी हुई थी उतर पड़े बबीने पर
निकलने हैं जिससे झूठे बुतो-फ़तवे
क्यों हो ग़ारत उस ख़ूनी दफ़ीने पर
नाख़ुदाओ बाज़ आओ तकरारो-बग़ावत से
टूटा चाहते हैं बर्क़ो-तूफ़ाँ इस सफ़ीने पर
जो भूखों-बेघरों से उनके हक़ छीने
कभी रहम न हो उस निज़ामे-कमीने पर
बदन से उसके गमकता रहे है जो अब तक
मैं रहा मस्त उसी इत्र भीने-भीने पर
कहीं से किसी मुआवज़े की उमीद नहीं
ढूँढता हूँ नया पठान हर महीने पर।
नई रोशनी
अव्वल चाचा नेहरू आए
नई रोशनी वे ही लाए
इंदू बिटिया उनके बाद
नई रोशनी ज़िंदाबाद
हुए सहायक संजय भाई
नई रोशनी जबरन आई
फिर आए भैया राजीव
डाली नई रोशनी की नींव
आगे बढ़ीं सोनिया गाँधी
पीछे नई रोशनी की आँधी
सत्ता की वे नहीं लालची
मनमोहन उनके मशालची
राहुल ने तब तजा अनिश्चय
नई रोशनी की गूँजी जय
जब राहुल दुलहन लाएँगे
नई रोशनियाँ हम पाएँगे
बहन प्रियंका अलग सक्रिय हैं
वाड्रा जीजू सबके प्रिय हैं
ये ख़ुद तो हैं नई रोशनी
इनकी भी हैं कई रोशनी
यह जो पूरा ख़ानदान है
राष्ट्रीय रोशनीदान है
एकमात्र इसकी संतानें
नई रोशनी लाना जानें
क्या इसमें है अब भी कुछ शक़
नई रोशनी है इसका ही हक़
जब तक सूरज -चाँद रहेगा
यह न कभी भी माँद रहेगा
बीच-बीच में नई रोशनी के आए दीगर जादूगर
लेकिन इस अँधियारे को ही वे कर गए दुबारा दूभर
हर दफ़ा इसी कुनबे से गरचे है नई रोशनी सारी
फिर भी बार-बार यह अंधकार क्यों हो जाता है भारी?
उनकी ऐसी नई रोशनी में जीवन जीना पड़ता है
यह क्लेश कलेजे में ज़ंग लगे कीले-सा हर पल गड़ता है
क्या हमीं नहीं मिलकर खींचें अपने हाथों की रेखाएँ
पहचानें नित नई रोशनी सबकी, उसे ख़ुद लेकर आएँ?