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संस्कृति

टाँकती हूँ आकाश कुसुम बालों में

Janjwar Team
19 Jan 2018 10:26 PM GMT
टाँकती हूँ आकाश कुसुम बालों में
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'सप्ताह की कविता' में आज अनुराधा सिंह की कविताएं '

'मैं करती ही जाऊँगी कविता/ बरसात में धुले सफ़ेद मढ़ो पर/ स्कूल जाते हुए गुलाबी रिबन पर/साँवली लड़कियों और उनकी उपेक्षित इच्छाओं पर/ मैं चाँद पर कविता नहीं गाऊँगी/कि सुक्खी को फिर रोटी की याद आ जाएगी...' कविता का जन्‍म अक्‍सर एक सच्‍ची जिद से होता है। कहन की शैली भी पाठकों को खींचती है। अनुराधा सिंह की कविताएं अपनी सच्‍ची जिद और शैली से चौकाती हैं।

उनकी जिद सच को बंया करने की है, भूख के सच को, रोटी के सच को, मनुष्‍य होने के सच को। पर कविता में सच को उसके कई आयामों के साथ इस तरह रखना कि उसकी एक आकर्षक शैली भी मुकम्‍मल रहे, कठिन है। अनुराधा इस कठिनाई से बारहा पार पाती हैं। इसलिए वे चांद की सुंदरता के व्‍यामोह पर भूख को तरजीह दे पाती हैं। उनकी कविताएं बतलाती हैं कि इस संकटग्रस्‍त समय में कवि‍ता रचना सहज नहीं।

आंतरिक मनोभावों की अनुराधा की समझ गहरी है और इसके सहारे वे पारंपरिक शब्‍दों को नये अर्थ देने की सफल कोशिश करती हैं -'स्मृतिलोप बड़ा शस्त्र था/विसंगतियों विषमताओं अन्याय के विरुद्ध/ भूल जाना बड़ी शक्ति...'

अपने तथ्‍य और कथ्‍य से वे मनुष्‍य होने के झूठे दंभ को बार-बार खारजि करती हैं। अपने समय को पुनर्परिभाषित करने की क्षमता है अनुराधा में। सभ्‍य होने के ढोंग को वे तार-तार करती चलती हैं -'उन्हें नरभक्षी कहा/और भूसा भर दिया उनकी खाल में /वे क्या कहते होंगे मुझे अपनी बाघभाषा में...' बाजारू शक्तियां आज अपने सबसे रंगीन और क्रूर आवरणों में हमारे जमीर और विवेक को बारहा सुलाने में लगी हैं।

बाजार के सामने कवि भी निरूपाय है। बाजारू चिल्‍ल-पो से वह आंखें मूंद लेना चाहता है। इस शोरगुल में लड़ते-भिड़ते दम तोड़ने की जगह वह नींद में और बेख्‍याली में खुद को डुबोए रखना चाहता है। शायद उसे पता है कि नींद के बाद का जागरण हर बार अपने समय से लडने की नयी ताकत देता है। आइए पढते हैं अनुराधा सिंह की कविताएं -कुमार मुकुल

क्या सोचती होगी धरती
मैंने कबूतरों से सब कुछ छीन लिया
उनका जंगल
उनके पेड़
उनके घोंसले
उनके वंशज
यह आसमान जहाँ खड़ी होकर
आँजती हूँ आँख
टाँकती हूँ आकाश कुसुम बालों में
तोलती हूँ अपने पंख
यह पन्द्रहवाँ माला मेरा नहीं उनका था
फिर भी बालकनी में रखने नहीं देती उन्हें अंडे

मैंने बाघों से शौर्य छीना
छीना पुरुषार्थ
लूट ली वह नदी
जहाँ घात लगाते वे तृष्णा पर
तब पीते थे कलेजे तक पानी
उन्हें नरभक्षी कहा
और भूसा भर दिया उनकी खाल में
वे क्या कहते होंगे मुझे अपनी बाघभाषा में

धरती से सब छीन कर मैंने तुम्हें दे दिया
कबूतर के वात्सल्य से अधिक दुलराया
बाघ के अस्तित्व से अधिक संरक्षित किया
प्रेम के इस बेतरतीब जंगल को सींचने के लिए
चुराई हुई नदी बाँध रखी अपनी आँखों में
फिर भी नहीं बचा पाई कुछ कभी हमारे बीच
क्या सोचती होगी पृथ्वी
औरत के व्यर्थ गए अपराधों के बारे में।

बुद्धत्व
शब्द लिखे जाने से अहम था
मनुष्य बने रहना
कठिन था
क्योंकि मुझे शब्दों से पहचाना जाए
या मनुष्यत्व से
यह तय करने का अधिकार नहीं था मेरे पास
शब्द बहुत थे मेरे
चटख चपल कुशल कोमल
मनुष्यत्व मेरा रूखा सूखा विरल
उन्होंने वही चुना जिसका मुझे डर था
चिरयौवन चुना शब्दों का
और चुनी वाक्पटुता
वे उत्सव के साथ थे
मेरा मनुष्य अकेला रह गया
बुढ़ाता समय के साथ
पकता, पाता वही बुद्धत्व
जो उनके किसी काम का नहीं।

मैं चाँद पर कविता नहीं गाऊँगी
तुम जब आखिरी साँस और संध भी मूँद दोगे
तो मैं दीवार के उस पार से एक कविता गाऊँगी
खेत और खलिहान के बीच गिरी हुई बालियों की
काँसे के कम होते बर्तनों और खाली होते कुठलों की
खबरों से छूट गयी नींद की
मैं गोल रोटी की कविता नहीं गाऊँगी
कि सुक्खी को भूख लग आएगी
लंबे दिनों और गुनगुनी रातों पर
पुरानी किताबों और उनमें दबे गुलाबों पर
तुम्हारी उँगलियों से मेरे पोरुओं के फासले पर
मैं तुम्हारे जाने वाले दिन पर कविता नहीं करूँगी
कि मुझे तुम्हारे न लौटने का दुख साल जाएगा
कविता करूँगी
शेर से दौड़ कर जीत लिए हिरण की
बहेलिये के जाल से छूट निकले कबूतर की
अस्त व्यस्त जंगल और दंभी पहाड़ की
मैं सूखी हुई नदी की कविता नहीं करूँगी
कि दोनों किनारे मिलने की हठ पे आ जायेंगे
और मैं करती ही जाऊँगी कविता
बरसात में धुले सफ़ेद मढ़ो पर
स्कूल जाते हुए गुलाबी रिबन पर
साँवली लड़कियों और उनकी उपेक्षित इच्छाओं पर
मैं चाँद पर कविता नहीं गाऊँगी
कि सुक्खी को फिर रोटी की याद आ जाएगी।

स्मृतिलोप
स्मृतिलोप बड़ा शस्त्र था
विसंगतियों विषमताओं अन्याय के विरुद्ध
भूल जाना बड़ी शक्ति
विभव था
पराक्रम
बल था
था ज़हरमार
रीढ़ को निगलती पीड़ा झटक देने
कबूतर की तरह आँखें पलट लेने
पत्थर पहाड़ पार्क बेंचें उन पर बैठे
अब और न बैठे लोग
भुलाए बिना जीवन असंभव था
चादर ओढ़ने से रात नहीं कटती
करवट बदलने से दुस्वप्न कहाँ टलते हैं
मुड़े हुए पृष्ठ सीधे किए बिना पढ़ना दुष्कर
सूखे गुलाबों को एक अनाम कोने में विस्मृत कर आना ही श्रेयस्कर था
तुम्हारे नाखूनों और आँखों का रंग भूल जाना
अनिवार्य शर्त थी अगली एक श्वास के लिए।

Janjwar Team

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