सप्ताह की कविता में आज चर्चित कवि महेश चंद्र पुनेठा की कविताएं
'मैं न लिख पाऊं एक अच्छी कविता /दुनिया एक इंच इधर से उधर नहीं होगी/ गर मैं न जी पाऊं कविता /दुनिया में अंधेरा कुछ और बढ जाएगा...' महेश चंद्र पुनेठा की ये पंक्तियां ब्रेख्त की रचनाओं में पाई जाने वाली परिवर्तनकामी चेतना की याद दिलाती हैं। पुनेठा की बेचैनी अच्छा कवि होने के तीन-पांच से आगे जाकर बदलाव को प्रतिबद्ध एक व्यक्ति की अंतरात्मा की पीडा को अभिव्यक्त करती हैं।
पुनेठा उन कवियों में हैं जिनके भीतर आशा की अमरबेल मौसमों के अगले पडावों तक बदलाव का इंतजार करती है और साथ का हल्का इशारा पाकर ही वह लहलहा उठती है। समय की मार को वे पतझड़ के मौसम को झेलते वृक्षों की तरह झेलने को तैयार रहते हैं और वसंत की आहट पाते ही ‘उत्साह से लद-फद जाते हैं’। वे जानते हैं कि मंजिल तय हो तो यात्राएं ‘मन से होती हैं’ फिर ‘दूरी भूगोल नहीं/मनोविज्ञान का विषय होती है’। यह आशा ही है कि आंटा गूंथते अपने छोटे बेटे के भीतर वे रोटी के साथ ‘नई दुनिया के निर्माण’की ईंटें पकती देख पाते हैं।
‘मुर्दों को सभी बंधनों से मुक्त’ करने वाली अपनी सभ्यता की गुलाम दृष्टि पर नजर है पुनेठा की। तभी तो वे पत्ती-फल-फूल की जगह जडों को याद करते हैं। पुनेठा की कविताओं में पहाड़ के कठोर जीवन की झलक मिलती है। ‘खड़र चटृानों पर घसियारिनों को देखकर’, धौल आदि कविताओं में उस कठोर जीवन की छवियां और मिठास साथ-साथ मिलती है। ‘खुरदुरापन’ पसंद है कवि को क्योंकि –
'पैर जमाकर खडा हुआ जा सकता है केवल/खुरदरे पर ही /वहीं रूक सकता है पानी भी/ खुरदुरे पत्थर से ही/ गढ़ी जा सकती हैं सुंदर मूर्तियां/ उसी से खुजाता है कोई जानवर अपनी पीठ/ खुरदुरे रास्ते ही पहुंचाते हैं राजमार्गों तक।' कवि की चिंताएं गहरी और मौलिक हैं -'अनुपस्थित आवाजों का इतिहास/ पवित्र आवाजों से भी पुराना है...'आइए पढ़ते हैं महेश चंद्र पुनेठा की कविताएं - कुमार मुकुल
खुरदुरापन
(कवि मित्र केशव तिवारी के लिए)
खुरदुरा ही है
जो जगह देता है किसी और को भी
पैर जमाकर खड़ा हुआ जा सकता है केवल
खुरदुरे पर ही
वहीं रूक सकता पानी भी।
खुरदुरे पत्थर से ही
गढ़ी जा सकती हैं सुंदर मूर्तियाँ।
उसी से ही खुजाता है कोई जानवर अपनी पीठ
खुरदुरे रास्ते ही पहुँचाते हैं राजमार्गों तक
परिवर्तन भी दिखता है खुरदुरे में ही
खुरदुरेपन के गर्भ में होती हैं अनेकानेक संभावनाएँ
ऊब नहीं पैदा करता है खुरदुरापन
खुरदुरी बातों में ही व्यक्त होता है जीवन-सत्य
सच्चा प्रेम करने वालों की बातें भी होती हैं खुरदुरी
और बुजुर्गों की भी
खुरदुरा चेहरा देखा है अनुभवों से भरा।
देर तक महसूस होता है खुरदुरे हाथों का स्पर्श
खुजली मिटती है अच्छी तरह खुरदुरे हाथों से ही
खुरदुरे हाथों में ही होती है शक्ति सहने की भी
खुरदुरे हाथों में होता है स्वाद
खुरदुरे पैरों में गति
सरसों के फूलों से घिरे
हरे-भरे गेहूँ के सीढ़ीदार खेतों
और दूर पहाड़ी की चोटी में बने घर में
दिखाई देता है सौंदर्य उनका
सिल खुरदुरा
खुरदुरे चक्की के पाट
दाँत भी होते हैं खुरदुरे
कद्दूकस खुरदुरा
पहाड़ हैं कितने खुरदुरे
खुरदुरेपन में ही छुपी है इनकी शक्ति
रेगमाल की
खुरदुरी सतह से रगड़ पाकर ही बनती हैं सुंदर सतहें
बावजूद इसके सौंदर्यशास्त्र में
क्यों नहीं बना पाया खुरदुरापन अपना कोई स्थान
कहाँ है पेंच
किसने दिया यह सौंदर्यबोध
कितने कवि हैं पूरी आत्मीयता से जो कह सकते हों...
'अपनी खुरदुरी हथेलियाँ छिपाएँ नहीं
इनसे ख़ूबसूरत इस दुनिया में कुछ भी नहीं है।’
क्यों नहीं खुरदुरा स्पर्श रोमांचित कर पाता
क्यों नहीं आकर्षित कर पाता है इंद्रियों को।
षड़यंत्र
तुम बुनती हो
एक स्वेटर
किसी को ठण्ड से बचाने को
और
मैं रचता हूँ
एक कविता
ठण्ड को ख़त्म करने को।
गर्म रखना चाहती हो तुम
और
गर्म करना चाहता हूँ मैं भी।
कमतर ठहराता है जो
तुम्हारे काम को
ज़रूर कोई षड्यंत्र करता है।
संतोषम् परम् सुखम्
पहली-पहली बार
दुनिया बड़ी होगी एक क़दम आगे
जिसके क़दमों पर
अंसतोषी रहा होगा वह पहला।
किसी असंतुष्ट ने ही देखा होगा
पहली बार सुंदर दुनिया का सपना
पहिए का विचार आया होगा
पहली-पहली बार
किसी असंतोषी के ही मन में
आग को भी देखा होगा पहली बार गौर से
किसी असंतोषी ने ही।
असंतुष्टों ने ही लाँघे पर्वत, पार किए समुद्र
खोज डाली नई दुनिया
असंतोष से ही फूटी पहली कविता
असंतोष से एक नया धर्म
इतिहास के पेट में
मरोड़ उठी होगी असंतोष के चलते ही
इतिहास की धारा को मोड़ा
बार-बार असंतुष्टों ने ही
उन्हीं से गति है
उन्हीं से उष्मा
उन्हीं से यात्रा पृथ्वी से चाँद
और
पहिए से जहाज तक की
असंतुष्टों के चलते ही
सुंदर हो पाई है यह दुनिया इतनी
असंतोष के गर्भ से ही
पैदा हुई संतोष करने की कुछ स्थितियाँ।
फिर क्यों
सत्ता घबराती है असंतुष्टों से
सबसे अधिक
क्या इसीलिए कहा गया है
संतोषम् परम् सुखम्।