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संस्कृति

बातें उदासी का पता कभी नहीं बताएंगी

Janjwar Team
15 Jun 2018 8:19 AM GMT
बातें उदासी का पता कभी नहीं बताएंगी
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सप्ताह की कविता में आज हिंदी कवि मिथिलेश कुमार राय की कविताएं

मिथिलेश कुमार राय की कविताएं अपने समय, समाज और लोक को पुनर्परिभाषित करती आत्‍मीय व आश्‍वस्त करती कविताएं हैं। ये कविताएं जिस सहजता और धैर्य को सामने लाती हैं वह वर्तमान युवा कविता में दुर्लभ है -'साइकिल चलाना मैंने बचपन में ही सीख लिया था/कोई सीखने निकलता था तो मैं उसकी मदद कर दिया करता था/वह थक जाता तो ​​/जब तक वह तरोताजा होता मैं सीखने लग जाता...'

विष्‍णु खरे और आर चेतन क्रांति के बाद इन दोनों से अलग जमीन की गद्य कविताएं हैं ये। विष्‍णु जी और चेतन की कविताओं में जहां मुख्‍यत: नागर लोक को अभिव्‍यक्ति मिली है, वहीं मिथिलेश की कविताओं में ग्रामीण और कस्‍बाई लोक अपनी सहज मनगुनिया रूप के साथ उपस्थित हुआ है। इन्‍हें हम उस अंतिम जमात की कविताएं कह सकते हैं जिसके बारे में तुलसीदास - कोउ नृप होहिं हमें का हानि - लिखते हैं -'इस पृथ्वी पर हम नमक रोटी को जानते हैं/और साग-भात को/ सिर्फ जानने के लिए तो हम/ यह भी जानते हैं/ कि गुजरे जमाने में/जब इस पेट को भरना इतना आसान नहीं हुआ करता ​​/था/तब भोजन के छप्पन प्रकार हुआ करते थे...'

विवरणात्‍मकता मिथिलेश की ताकत है, पर वह सामान्‍यतया जिस तरह कविता को बोझिल बनाती है उसके उलट यहां वह ​आश्‍चर्यजनक ढंग से ​जीवन के तमाम रंगों को उनकी सरल जटिलता के साथ सहज ढंग से प्रस्‍तुत करती है।​ ​आइए पढ़ते हैं मिथिलेश कुमार राय की कुछ कविताएं -कुमार मुकुल

पता

थकावट पांव से पता कीजिये

बातें उदासी का पता कभी नहीं बताएंगी

इसके लिए आंखों में झांकिए

चेहरे पर गौर कीजिये

यह देखिए कि जब चेहरे पर हँसी आती है

होंठ फैल कर कितने लंबे होते हैं

कहते हैं कि हँसी आने पर

चेहरे पर एक रौनक भी आती है

हाँ जैसे फूल खिलता है

ठीक वैसे ही

हँसी होंठों पर आती है

और खिलखिलाने पू​री देह लगती है

यह देखिए कि होंठ स्वतः फैले तो हैं न

और जब होंठ फैले

तब दांत दिखे या वे छिपे रहे

बातों पर मत जाइए

बातें बन-ठन कर बाहर आती हैं

जबकि हँसी

बनाने के क्रम में बिगड़ जाती है

आप हँसी का बिगड़ना पकड़िए।

सूद

सौ का पाँच टका देता हूँ

जिनसे हिलमिल के रहता हूँ

वे एक टका की छूट करते हैं

उस एक टके के बदले

उनके पास बेवजह देर तक बैठना होता है

उनकी बातें सुननी पड़ती हैं

उनकी सारी बातों को सौ फीसदी सही मानने को

लगातार हाँ-हाँ का स्वर उच्चारित करना पड़ता है

पूर्वज कहते हैं कि अब वे नरम पड़े हैं

जब से पंजाब खुला है

जब से दिल्ली दूर नहीं रही है

पहले का हाल बहुत बुरा था

याद करता हूँ तो दांती लगती है

तब वे अपने कोड़े के दम पर

सौ पर दस टका तक वसूल लिया करते थे

पूर्वज कहते हैं कि तब भी जो चाकरी करता था

उन्हें दो टके की छूट मिलती थी

यह एक भरोसा है जो पूर्वज की आंखों में दृश्य बनकर उभरता है

कि और रास्ते खुलेंगे तो यह और कम होगा

खत्म होना तो हम नहीं देख पाएंगे

लेकिन कितना कुछ ढह गया

तो एक दिन यह सब भी ढह जाएगा।

उनका शुक्रिया

जिस एक ही टेम्पो से गया

लगातार डेढ़ महीने तक काम पर

कभी उसके ड्राइवर के नाम तक से मतलब नहीं रखा

जब भी कुछ कहा

अपनी बातें बिना किसी संबोधन से शुरू की

एक दिन उसी ने बताना चाहा वैसे ही अपना नाम-

पिंटू महतो

और कहा कि जब भी लौटते बखत अंधेरा हो जाए

और किसी तरह की कोई परेशानी नजर आए

आप मुझे पूछ लें

उसने यह भी कहा कि यह इलाका अपना है

चाहें तो आप मेरा मोबाइल नंबर भी रख सकते हैं

बुलाएंगे तो रात के बारह बजे भी हाजिर हो जाऊंगा

जिस पान की दुकान की बेंच पर बैठकर

मैंने सालों इंतज़ार किया था अपनी बस का

और इसके एवज में कभी-कभार ही एकाध बीड़ा पान का खाया

मुस्कुरा कर कभी हल्की-फुल्की कोई बात न की

उसने हँस कर पूछा था एक दिन

कि क्या आप मेरा नाम जानते हैं

भूलन महतो नाम है हमारा

सड़क के उस तरफ जो बस्ती दिख रही है

वही अपनी एक झोपड़ी है

कभी देर-सवेर हो जाए और यह दुकान बंद मिले

तो आप बेहिचक आ जाना

सब जानते हैं

एक बच्चे से भी पूछेंगे तो

वह मेरे दरवाजे तक आपको छोड़ आएगा

अंत में उसने यही कहा था

कि अंधेरी रातों में

एक-दूसरे के मुस्कान से ही रोशनी होती है।

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