वो नष्ट करने की फिराक में लगे हैं हमारे बहुरंगी इंद्रधनुषी देश को
कुर्सी के लिए देश के अमन-चैन को पलीता लगाने की दुर्भावना रखने वालों की देशभक्ति उसी तरह संदिग्ध है, जैसे धर्मध्वजियों का धर्म...
त्रिभुवन, वरिष्ठ संपादक
पता नहीं क्यों कुछ लोग अपने ही इस देश को विचलित करने में लगे हैं। घृणा भाव के वीडियो फॉरवर्ड किए जा रहे हैं और कहा जा रहा है कि उनका धर्म इतना गलीज़ गंदा और हमारा इतना महान है। ठीक इसका उल्टा भी किया जा रहा होगा। लेकिन वे वीडियो या संदेश मैंने नहीं देखे। कोई मित्र सूचना दे रहा है कि एक सज्जन हैं, वे फेसबुक पर लाइव हैं और बताए जा रहे हैं कि उनका धर्मग्रंथ कितना हीनतर और हिंसा से भरा है।
वे कुछ प्रमाण भी दे रहे हैं और किस पन्ने पर कौनसा शब्द कहां लिखा है और क्या लिखा है, यह वे भी प्रामाणिक रूप से बता रहे हैं। बहुत से लोग उन्हें बधाइयां दे रहे हैं और वाह-वाह किए जा रहे हैं। इनमें कोई मूर्ख लोग नहीं, अच्छे सुशिक्षित और समाज में अच्छी जगह रखने वाले लोग भी हैं। मुझे भी ऐसे वीडियाे फॉरवर्ड किए जा रहे हैं।
अब सुनिए मेरा निवेदन। कृपया ऐसे दिग्भ्रमित लोगों के बहकावे में आकर आप अपने शांत और इस अच्छे देश और समाज का कबाड़ा मत कीजिए। क्योंकि ऐसे लोग चाहे किसी भी तरफ हों, किसी भी जाति से हों, किसी भी धर्म से हों, किसी भी धारा, विचारधारा या राजनीतिक दल से हों, वे जाने या अनजाने इस देश का अहित ही कर रहे हैं।
दरअसल विभिन्न धर्म मनुष्य को अच्छा बनाने की कोशिश में बने थे। इरादे ख़राब नहीं, नेक थे। राजनीति हो या कला, संस्कृति हो या परंपराएं, सबके पीछे ध्येय अच्छा और सामाजिक व्यवस्था को बदतर से ठीक करने की कोशिश थी। आप देखेंगे, पूरी दुनिया में ईश्वर, धर्म, हर धर्म का एक या एकाधिक धर्मग्रंथ, विवाह, नामकरण, मृत्यु, दु:ख-सुख आदि सबकुछ सब जगह एक जैसा है। मूलभूत तौर पर।
परिवर्तन देश और काल की परिस्थितियों के अनुसार है। कोई ऐसा धर्म या समाज ऐसा नहीं है, जो पर्व, उत्सव या त्योहार नहीं मनाता हो। यानी सब कुछ सब जगह देश, काल और परिस्थिति के अनुसार है।
हम ईश्वर कहते हैं, मुसलमान अल्लाह और ईसाई गॉड। इसी तरह हर धर्म में ईश्वर का एक नाम है। ईश्वर को अगर आप अल्लाह कह दो तो क्या फ़र्क़ पड़ जाएगा और अल्लाह की जगह अगर आप प्रभु कह दो तो क्या अंतर हो जाएगा? सच बात तो ये है कि ये सब धर्मों का नहीं, भाषाओं का फ़र्क है।
आख़िर हम जब किसी दूसरी भाषा के जानकार से मिलते हैं तो उसकी भाषा में ही समझाते हैं कि हम क्या हैं। हम वैसे हैं अज़ीब लोग। फ़ादर्स डे, मदर्स डे, होली डे तो रोज़ मनाएंगे, लेकिन गॉड, हे राम! ना-ना। शिव-शिव! अल्लाह... ये हमारे ईश्वर के बराबर कैसे हो सकता है? संभव ही नहीं।
लेकिन हम आक्रमणकारियों, बाहरी शासकों या सुदूर देशों से आने वाले संस्कृतिविदों, विद्वानों आदि के साथ अंतर-क्रिया के असर से अपने सनातन या वैदिक धर्म जैसे शब्दों को तो सहजता से अपने दैनिक शब्दकोश से निकाल देते हैं और विदेशी आक्रमणकारियों के दिए हिन्दू शब्द को कंठहार बनाते कदापि शर्म नहीं करते! बल्कि घृणा अभियान के संचालक ही स्वयं नारे लगाते हैं : गर्व से कहो, हम हिन्दू हैं!
तो वो जो भटकी हुई भावुक बहन बहुत चिल्ला-चिल्लाकर जो कह रही है और वो जो भाई साहब ऊंचे स्वर में कुरआन लेकर बता रहे हैं कि सबको मुसलमान बनाओ तो वे बात को ठीक से नहीं समझ रहे और सबको भ्रमित कर रहे हैं।
जैसे कुरआन वाले कह रहे हैं कि सबको कुरआन पढ़ाओ और मुसलमान बनाओ, वैसे ही हम वेद वाले कहते रहे हैं कि सबको वेद पढ़ाओ और आर्य बनाओ। हमारे वेदों का उदघोष है : कृण्वन्तो विश्वं आर्यम्! सबको आर्य बनाओ।
अरे बहन, ओ भाई मेरे, हम विश्व को आर्य बना रहे थे और वे मुसलमान। तो क्या हुआ? मुसलमान मतलब अच्छा आदमी। आर्य यानी श्रेष्ठ व्यक्ति। वे कहते हैं फरिश्ता। हम कहते, प्रेस्ता! वे कहते हैं, मादर और मदर और हम कहते हैं मातृ। यही सब। तो इसमें परेशान होने और इस शांत, सुव्यवस्थित और मानवीय सभ्यता को जी रहे देशवासियों को विचलित करने की क्या आवश्यकता है? आवश्यकता है, क्योंकि देश को विचलित किए बिना सरकारें नहीं बनतीं और राजनीति नहीं होती।
देश का नागरिक शांत और सुव्यवस्थित हालात में रहेगा तो वह प्रश्न करेगा और जवाब मांगेगा। देश धर्म के नाम पर लड़ेगा तो नौकरी, रोटी, चूल्हा, फ्रॉड, वायदे आदि सब भूल जाएगा। इसलिए कुर्सी के लिए देश के अमन-चैन को पलीता लगाने की दुर्भावना रखने वालों की देशभक्ति उसी तरह संदिग्ध है, जैसे धर्मध्वजियों का धर्म!
मेरा इन सब मित्रों से आग्रह है कि वे अगर अपनी ही विचारधारा के शासन को भारत में अक्षुण्ण रखना चाहें तो इसमें बुराई क्या है। लेकिन आप सुशासन वाले काम करें। आप क्यों वोटों के लिए कुछ लोगों की कठपुतली बनते हो। अच्छा काम करो और सरकार बनाओ। भारतीय संविधान के चार मुख्य मूल्यों पर काम करो। समता, स्वतंत्रता, बंधुता और न्याय पर चलो और जो करना है, वह इस राह पर करो।
हमारे ऋषियों-मुनियों ने हमें सबको आत्मसात करके ऐतिहासिक विकास के माध्यम से नई संस्कृतियों और नई वैज्ञानिक चेतनाओं को धारण करने की राहें दिखाई थीं। जैसे बाबा नानक अरब देशों में गए तो वहां सिखाकर भी आए और उनसे बहुत कुछ सीखकर भी आए। आप चाहें तो देख लें कि आज भी ईरान के झंडे के बीच जो निशान है, हमारा निशान साहब ही है! अगर आप उदार हों तो इसका उलटा भी सोच सकते हैं।
आप अगर ईरान, इराक या अरब देशों में जाएंगे तो आपको वैविध्य का वह अनूठा और वैभवशाली दर्शन नहीं मिलेगा, जो हमारे भारत में है। आप अगर इंद्रधनुष के रंगों को एक ही रंग में रंग देने को आतुर होंगे तो आप क्षितिज के सबसे सम्मोहक सौंदर्य को विनष्ट कर देंगे!
मुझे अपने स्कूली दिनों का एक किस्सा याद आ गया। हमारे हिन्दी शिक्षक मेघराज सहारण हमें एक कविता पढ़ा रहे थे, 'बीती विभावरी जाग री! अम्बर पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा नागरी!..' यह जयशंकर प्रसाद की प्रसिद्ध कविता थी। मेघराज जी अचानक इंद्रधनुष के बारे में बताने लगे। अदभुत वर्णन था। वे पढ़ाते बहुत अच्छा थे। मैंने वैसा सुंदर हस्तलेख किसी का नहीं देखा।
अचानक एक छात्र जगदीश ने मेघराज के इंद्रधनुष वर्णन में विघ्न डालते हुए कहा : 'गुरुजी, इंद्रधनुष में क्या अच्छा होता है? मुझे तो अच्छा नहीं लगता।' मेघराज जी स्तब्ध। वे कुछ देर चुप रहे और फिर छात्र को बुलाकर कहा : 'तुम्हें मेंटल डिस्ऑर्डर हो सकता है। तुम डिस्ऑर्डर ऐनालिस्ट को दिखाओ!'
मुझे लगता है, जगदीश ने साइको-ऐनालिस्ट को नहीं दिखवाया और अब वह अपनी संततियों के साथ सपरिवार समूचे जंबू द्वीप में दनदनाता घूम रहा है!