आप भी पढ़िए पार्वती मीरा की इस कविता को जो झकझोर कर रख देती है पूरी इंसानियत और मासूमियत को
फिर भी मैंने घोड़ों को घर भेज दिया था मां
मां
घोड़े घर पहुंच गये होंगे
मैंने उन्हें रवाना कर दिया था
उन्होंने घर का रास्ता ढूंढ लिया ना मां
लेकिन मैं खुद आ न सकी
तुम अक्सर मुझे कहा करती
आसिफ़ा इतना तेज़ न दौड़ा कर
तुम सोचती मैं हिरनी जैसी हूं मां
लेकिन तब मेरे पैर जवाब दे गये
फिर भी मैंने घोड़ों को घर भेज दिया था मां
मां वो अजीब से दिखते थे
न जानवर, न इंसान जैसे
उनके पास कलेजा नहीं था मां
लेकिन उनके सींग या पंख भी नहीं थे
उनके पास ख़ूनी पंजे भी तो नहीं थे मां
लेकिन उन्होंने मुझे बहुत सताया
मेरे आसपास फूल, पत्तियां, तितलियाँ
जिन्हें मैं अपना दोस्त समझती थी
सब चुप बैठी रही मां
शायद उनके वश में कुछ नहीं था
मैंने घोड़ों को घर भेज दिया
पर बब्बा मुझे ढूंढ़ते हुये आये थे मां
उनसे कहना मैंने उनकी आवाज़ सुनी थी
लेकिन मैं अर्ध मूर्छा में थी
बब्बा मेरा नाम पुकार रहे थे
लेकिन मुझमें इतनी शक्ति नहीं थी
मैंने उन्हें बार बार अपना नाम पुकारते सुना
लेकिन मैं सो गई थी मां
अब मैं सुकून से हूं
तुम मेरी फिक्र मत करना
यहां जन्नत में मुझे कोई कष्ट नहीं है
बहता खून सूख गया है
मेरे घाव भरने लगे हैं
वो फूल, पत्तियां, तितलियाँ
जो तब चुप रहे
उस हरे बुगियाल के साथ यहां आ गये हैं
जिसमें मैं खेला करती थी
लेकिन वो.. वो लोग अब भी वहीं हैं मां
मुझे डर लगता है
ये सोचकर
उनकी बातों का ज़रा भी भरोसा मत करना तुम
और एक आखिरी बात
कहीं भूल न जाऊं तुम्हें बताना मैं
वहां एक मन्दिर भी है मां
जहां एक देवी रहती है
हां वहीं ये सब हुआ
उसके सामने
उस देवी मां को शुक्रिया कहना मां
उसने घोड़ों को घर पहुंचने में मदद की
(मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी कविता का अनुवाद वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी ने किया है।)