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कांशीराम के अवसरवादी गठबंधनों ने भाजपा–हिंदुत्व को सशक्त और दलितों को किया भ्रमित !

पूर्व आईपीएस और आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय अध्यक्ष एसआर दारापुरी की टिप्पणी
आधुनिक दलित राजनीति के इतिहास में कांशीराम का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। बहुजन समाज पार्टी (BSP) के माध्यम से उन्होंने दलितों को एक संगठित चुनावी शक्ति के रूप में स्थापित किया और संख्या-आधारित राजनीति के ज़रिये सत्ता के केंद्र तक पहुँचाया। परंतु उनकी राजनीति का सबसे विवादास्पद और दूरगामी प्रभाव डालने वाला पहलू रहा—वैचारिक रूप से विरोधी शक्तियों, विशेषकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ अवसरवादी गठबंधन।
यह संक्षिप्त ब्रीफ़ तर्क देता है कि कांशीराम की गठबंधन राजनीति—विशेषकर BSP–BJP गठबंधन—ने अनजाने में हिंदुत्व को वैधता प्रदान की, भाजपा की सामाजिक जड़ों को मजबूत किया और दलितों के भीतर गहरी वैचारिक भ्रम की स्थिति पैदा की। जो रणनीति तात्कालिक रूप से “व्यावहारिक राजनीति” लगती थी, उसने दीर्घकाल में ब्राह्मणवादी बहुसंख्यकवाद को संरचनात्मक लाभ पहुँचाया और दलित राजनीति की नैतिक–वैचारिक धार को कुंद कर दिया।
1. दलित मुक्ति के विरोधी के रूप में भाजपा–हिंदुत्व
भाजपा केवल एक चुनावी दल नहीं है, बल्कि वह RSS-प्रेरित हिंदुत्व परियोजना की राजनीतिक अभिव्यक्ति है, जिसकी वैचारिक जड़ें निम्नलिखित तत्वों में निहित हैं—
ब्राह्मणवादी सामाजिक पदानुक्रम
—“हिंदू एकता” के नाम पर सांस्कृतिक समरूपीकरण
—जाति-उन्मूलन के प्रति अस्वीकार
—आंबेडकरवादी बौद्ध धर्म और अल्पसंख्यक अधिकारों के प्रति शत्रुता
डॉ. आंबेडकर ने बार-बार चेतावनी दी थी कि हिंदू एकता ऐतिहासिक रूप से दलित अधीनता पर आधारित रही है और संकट के समय हिंदू बहुसंख्यक राजनीति हमेशा दलित हितों का बलिदान करती है। इस दृष्टि से हिंदुत्व के साथ गठबंधन एक तटस्थ रणनीति नहीं, बल्कि आंबेडकरवादी राजनीति से वैचारिक विचलन था।
2. कांशीराम का तर्क : पहले सत्ता, बाद में विचारधारा
कांशीराम का मानना था कि बसपा का कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं, सत्ता जहाँ से मिले, वहाँ से लेनी चाहिए, विचारधारा को सत्ता प्राप्ति के बाद देखा जा सकता है।
इस दृष्टिकोण में विचारधारा एक स्थिर नैतिक आधार नहीं, बल्कि परिस्थिति के अनुसार बदली जा सकने वाली चीज़ बन गई। समस्या केवल रणनीतिक लचीलापन नहीं थी, बल्कि हिंदुत्व जैसी मूलतः दलित-विरोधी शक्ति के साथ बार-बार और सामान्यीकृत गठबंधन था, जिसने वैचारिक आत्मसमर्पण का रूप ले लिया।
3. इन गठबंधनों से भाजपा–हिंदुत्व कैसे मजबूत हुआ
3.1 हिंदुत्व को राजनीतिक वैधता मिलना
1990 के दशक में भाजपा अब भी एक ऊँची जाति-प्रधान, अल्पसंख्यक-विरोधी दल की छवि से जूझ रही थी। बसपा के साथ सत्ता-साझेदारी ने उसे दलित वैधता, लोकतांत्रिक स्वीकार्यता और जातिवाद के आरोपों से सुरक्षा प्रदान की। एक दलित-नेतृत्व वाली पार्टी के साथ गठबंधन ने यह संदेश दिया कि हिंदुत्व दलित हितों के अनुकूल हो सकता है, जिससे उसका सामाजिक विरोध कमजोर पड़ा।
3.2 हिंदुत्व-विरोधी मोर्चे का विखंडन
बसपा-भाजपा गठबंधनों ने दलितों, अल्पसंख्यकों और धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के बीच संभावित वैचारिक एकता को तोड़ दिया। हिंदुत्व के विरुद्ध एक सुसंगत मोर्चा बनने के बजाय, दलित राजनीति हिंदुत्व से सौदेबाज़ी योग्य शक्ति बन गई। इसका सीधा लाभ भाजपा को मिला।
3.3 भाजपा की “सोशल इंजीनियरिंग” की पाठशाला
BSP के साथ सत्ता में रहकर भाजपा ने सीखा गैर-जाटव दलितों और गैर-प्रभावशाली OBC समूहों को कैसे साधा जाए, आंबेडकर की प्रतीकात्मक राजनीति का उपयोग कैसे किया जाए, दलित एकता को आंतरिक रूप से कैसे विभाजित किया जाए। बाद में भाजपा ने इन रणनीतियों को स्वतंत्र रूप से अपनाया और बसपा को हाशिये पर धकेल दिया।
4. दलितों के भीतर वैचारिक भ्रम
4.1 विरोधाभासी राजनीतिक संदेश
दलितों को एक साथ यह बताया गया कि ब्राह्मणवाद उत्पीड़क है, और ब्राह्मणवादी दल सत्ता में साझेदार हो सकते हैं। इस विरोधाभास ने राजनीतिक चेतना को भ्रमित किया। जाति को संरचनात्मक शत्रु मानने की स्पष्टता सौदेबाज़ी में बदल गई।
4.2 आंबेडकर की चेतावनियों का क्षरण
आंबेडकर के हिंदू सामाजिक व्यवस्था पर मूलभूत प्रहार को मूर्तियों, नारों और प्रतीकों तक सीमित कर दिया गया। बसपा-भाजपा गठबंधनों ने व्यवहार में आंबेडकर की उस चेतावनी को निष्प्रभावी किया कि हिंदू बहुसंख्यकवाद और दलित मुक्ति मूलतः असंगत हैं।
4.3 नैतिक राजनीति के स्थान पर निंदक राजनीति
बार-बार गठबंधन और टूटन ने दलितों को सिखाया कि राजनीति सिद्धांतों की नहीं, सौदों की दुनिया है, विचारधारा वैकल्पिक है, सत्ता हर विरोधाभास को जायज़ ठहराती है। इससे जमीनी सामाजिक सक्रियता कमजोर पड़ी और दीर्घकालिक परिवर्तन की प्रतिबद्धता टूटी।
5. हिंदुत्व को मिले संरचनात्मक लाभ
5.1 संगठन निर्माण का समय और अवसर
गठबंधन काल में भाजपा ने RSS नेटवर्क मजबूत किए, दलित–OBC बस्तियों में प्रवेश बढ़ाया, अपनी छवि को “समावेशी” दिखाया। जब वह पर्याप्त मजबूत हो गई, तब BSP की आवश्यकता समाप्त हो गई।
5.2 आंबेडकर का प्रतीकात्मक अधिग्रहण
वैधता मिलने के बाद भाजपा ने आंबेडकर को राष्ट्रवादी संवैधानिक विद्वान, हिंदू समाज सुधारक और बौद्ध धर्म से कटे हुए प्रतीक के रूप में पुनर्परिभाषित किया। यह तभी संभव हुआ क्योंकि BSP पहले ही वैचारिक सीमाएँ धुंधली कर चुकी थी।
5.3 स्वतंत्र दलित राजनीति का कमजोर होना
BSP के पतन के बाद दलितों के पास मज़बूत वैचारिक संस्थाएँ, स्वायत्त सामाजिक आंदोलन,स्पष्ट हिंदुत्व-विरोधी दिशा नहीं बची। इस रिक्तता को भाजपा की कल्याणकारी राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक राजनीति ने भर दिया।
6. आंबेडकर और कांशीराम की रणनीतियों का अंतर
आंबेडकर ने कभी ऐसी सत्ता को स्वीकार नहीं किया जो नैतिक स्पष्टता को नष्ट करे। उनके लिए— राजनीति सामाजिक पुनर्निर्माण का साधन थी, विचारधारा सत्ता से पहले आती थी। हिंदू बहुसंख्यकवाद एक संरचनात्मक खतरा था। कांशीराम ने इस क्रम को उलट दिया और यही उलटाव निर्णायक रूप से महँगा पड़ा।
कांशीराम के अवसरवादी गठबंधनों विशेषकर भाजपा के साथ ने अल्पकाल में सत्ता दिलाई, पर दीर्घकाल में हिंदुत्व को वैधता दी, दलित राजनीति की नैतिक शक्ति को कमजोर किया और दलितों को उनके ऐतिहासिक संघर्ष के स्वरूप को लेकर भ्रमित किया। इन गठबंधनों ने ब्राह्मणवादी सत्ता को चुनौती नहीं दी, बल्कि उसे परिपक्व होने, विस्तार करने और प्रभुत्व स्थापित करने में मदद की, जबकि दलित राजनीति वैचारिक रूप से कमजोर और संगठनात्मक रूप से खोखली होती चली गई।
यह आंबेडकर की उस चेतावनी की पुष्टि करता है कि वैचारिक स्पष्टता के बिना प्राप्त सत्ता अस्थायी और पलटने योग्य होती है।





