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विमर्श

जेल जीवन के 554 दिनों के खट्टे-मीठे अनुभव : बाहर जैसी स्थितियों के बीच यहां सांस लेते हैं कैदी, 3 हजार देकर 'सक्षम कैदी' बच जाते हैं शारीरिक श्रम से !

Janjwar Desk
21 Dec 2025 11:54 AM IST
जेल जीवन के 554 दिनों के खट्टे-मीठे अनुभव : बाहर जैसी स्थितियों के बीच यहां सांस लेते हैं कैदी, 3 हजार देकर सक्षम कैदी बच जाते हैं शारीरिक श्रम से !
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इस वक्त सजायें खूब हो रही हैं, कानूनी जुमला सौ दोषी छूट जायें, लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए, उलट गया है। कैदी चर्चा करते हैं कि सरकार अपनी छवि बनाने के लिए अदालत पर दबाव बनाकर जेल भरो आन्दोलन चला रही है...

जिला कारागार देवरिया से केंद्रीय कारागार शिवपुर वाराणसी में 554 दिन की सजा काट चुके रामकिशोर वर्मा साझा कर रहे हैं अपने जेल जीवन के अनुभव

सरकार बनाम रामप्रवेश आदि अपराध संख्या 7 ए/1995 दिनांक 18 जनवरी सन 1995 समय सुबह 7:20 बजे थाना खामपार, जिला देवरिया मुकदमा नंबर 341 / 1999 धारा 395, 397 आईपीसी अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश कोर्ट नंबर 1, जिला देवरिया, उत्तर प्रदेश।

फरवरी का महीना था। जाड़े की विदाई और बसंत रितु का आगमन। फैसला सुनाया जाना था। मुकदमे की कार्यवाही का 29 वर्ष 24वां दिन था। कुल अभियुक्त संख्या 59। एक अभियुक्त घटना दिनांक के पहले से ही लापता। 10 अभियुक्तों का मुकदमा कार्यवाई के दौरान निधन। सात अभियुक्त नाबालिक, एक अभियुक्त फैसला सुनाए जाने के एक सप्ताह पूर्व से लापता, 40 अभियुक्त माननीय न्यायाधीश इंदिरा सिंह के समक्ष मौजूद। शाम 4:00 बज चुके थे, फैसला सुनने के लिए सभी अभियुक्त व अधिवक्तागण बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। सभी अभियुक्तगण इस मनःस्थिति में थे कि हमने कोई डकैती थोड़े ही डाली है जो सजा हो जाएगी। लेकिन अधिवक्तागण पूरी तरह से सशंकित थे यह जानते हुए भी की सजा होने की संभावना नहीं है धारा 395 व 397 आईपीसी के तहत।

न्यायाधीश का रुख बहुत ही खराब दिख रहा था, लेकिन अपनी वाहवाही लूटने के लिए तमाम साक्ष्यों को दरकिनार करते हुए, दोष सिद्ध कर, 10 वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। मुकदमे के विस्तृत ब्यौरे की तरफ हम नहीं जाना चाहते हैं, लेकिन हमारे ऊपर आरोप था कि वादी के घर के बरामदे से 1 रिंच, एक जैक, एक साइकिल, एक गद्दा, एक बोरा यूरिया खाद, बरामदा में रखा हुआ ढाई हजार रुपया, 100 से 500 की संख्या में आईपीएफ के लोग जबरन उठा ले गए, जिसकी अगुवाई मात्र 18 महीने का बच्चा भोला व उसकी दादी दुर्गावती उम्र लगभग 65 वर्ष आईपीएफ कार्यकर्ताओं की झंडा लेकर कर रहे थे। मजे की बात यह है कि 18 महीने का बच्चा भोला आईपीएफ का सक्रिय सदस्य था और वह मीटिंग में भाग लेने के लिए जाया करता था। दुर्गावती को गोली घर के अंदर आंगन पर व भोला को आंगन व बरामदे के गेट पर लगी क्रॉस केस थी। विपक्षी पर हमारी तरफ से सरकार बनाम मुन्ना उर्फ अजय आदि अपराध संख्या 7/ 1995, थाना खामपार जिला देवरिया समय, दिनांक 18 जनवरी 1995 सुबह 7:20 बजे धारा 302 धारा 307 आईपीसी के तहत मुकदमा दर्ज था। अभियुक्तों की संख्या कुल 6 दौरान मुकदमा कार्यवाही एक अभियुक्त की मृत्यु, एक नाबालिग, तीन बरी, मुन्ना उर्फ़ अजय श्रीवास्तव को आजीवन कारावास की सजा, दोनों पक्ष माननीय उच्च न्यायालय से जमानत पर रिहा।

विवाद मूलत: एक अपराधी गिरोह के खिलाफ था, जिससे गांव के लोग तबाह और तंग थे, जिसको राजनीतिक व प्रशासनिक संरक्षण प्राप्त था, जो अपनी अपराधी धाक बनाए रखने के लिए आईपीएफ के विरुद्ध हमलावर था। इस गिरोह से कई बार तकरार हो चुकी। लेकिन राजनीतिक, प्रशासनिक संरक्षण के चलते वह लगातार हमलावर था। 31 जनवरी सन 1995 को भाटपार रानी कस्बे में आईपीएफ की एक क्षेत्रीय रैली थी, जिसे असफल करने के लिए तत्कालीन कांग्रेस विधायक कामेश्वर उपाध्याय, हरिवंश सहाय, हरिकेवल प्रसाद प्रयासरत थे। घटना के बाद क्षेत्रीय विधायक कामेश्वर उपाध्याय हरिवंश सहाय, हरिकेवल प्रसाद गांव के पिछड़ों, अतिपिछड़ों से हाल-चाल तक पूछने के लिए भी नहीं गए, बल्कि उल्टे दुष्प्रचार अभियान चलाया। (कामेश्वर उपाध्याय, हरिवंश सहाय, हरि केवल प्रसाद जी इस वक्त अब इस दुनिया में नहीं है। तथाकथित सामाजिक न्याय के आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें नमन)

अभियोजन की ओर से बहस मूलत: -नक्सली हैं, कम्युनिस्ट हैं, आतंकवादी हैं, लाल सलाम बोलते हैं, के इर्द-गिर्द घूमती रही। माननीय जज साहिबा तो अदालत में अच्छा लाल सलाम वाली फाइल है, कहकर पुकारती थी।

18 जनवरी सन 1995 को उत्तर प्रदेश में भाजपा बसपा गठबंधन की सरकार थी और मुख्यमंत्री सुश्री मायावती जी। इस समय गोपालगंज, सिवान जिला समेत पूरे बिहार में सीपीआई (एमएल) की अगुवाई में सामंतवाद विरोधी संघर्ष अपनी ऊंचाइयां छू रहा था, जिसकी ताप बिहार के सीमावर्ती जिला देवरिया में बखूबी देखी जा सकती थी और समाज के पिछड़े अति पिछड़े तबके में लोकतांत्रिक आकांक्षा प्रबल हो रही थी। इस सामंतवाद विरोधी ताप और लोकतांत्रिक आकांक्षा को दबाने के लिए नौकरशाही, भाजपा व बसपा गठबंधन पूरी तरह प्रतिबद्ध थी। आईपीएफ के इर्द-गिर्द बड़ी संख्या में अति पिछड़ी जातियां गोल बंद हो रही थी, जो स्वभावत: बसपा और सपा का सामाजिक आधार था। सामंती मिजाज की ताकतें अपनी सामंती धाक को बचाने के लिए लामबंद हो रही थी और हमलावर थी। तो बसपा और सपा मूलत अपने सामाजिक आधार को बचाने के लिए गोलबंद हो रही थी। तत्कालीन कांग्रेस क्षेत्रीय विधायक कामेश्वर उपाध्याय, पूर्व सपा विधायक हरिवंश सहाय, हरिकेवल प्रसाद ने 18 जनवरी सन 1995 को सुबह 10:00 बजे क्रमशः तत्कालीन एसपी से मुलाकात कर बढ़ते आईपीएफ के प्रभाव को रोकने के लिए सख्त से सख्त कार्रवाई करने के लिए दबाव बनाया। जिसका नतीजा यह निकला कि आईपीएफ कार्यकर्ताओं के विरुद्ध दिन में लगभग 12:00 बजे विवाद को, डकैती की मनगढंत कहानी गढ़ कर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई, जो मूलत सामंती मिजाज, नौकरशाही, राजनीतिक गठजोड़ का परिणाम था।

18 फरवरी सन 2024 केंद्रीय कारागार शिवपुर वाराणसी के लिए रवानगी...

17 फरवरी को ही यह सुगबुगाहट शुरू हो गई थी कि किसी अन्यत्र जेल में भेजा जाएगा। 18 फरवरी की सुबह ऐलान हो गया कि सभी लोग भोजन कर लें और तैयार हो जाएं जेल गेट पर गाड़ी लग गई और हम सभी 40 साथियों को दो गाड़ियों में बैठाकर रवानगी की तैयारी हो गई। अभी तक हमें कुछ भी नहीं पता था कि आखिर किस जेल में हमें ले जाया जाएगा। जानने की कोशिश की गई, लेकिन नाकाम रहे, जब आगे गाड़ी बनारस के रास्ते पर बड़ी तो हमें यकीन हो गया कि सेंट्रल जेल बनारस ले जाया जा रहा है। रास्ते में हम सभी बहुत ही सशंकित और अंदर से भयभीत भी थे कि आखिर सेंट्रल जेल में कैसा व्यवहार होगा। सभी साथी हल्की-फुल्की बातचीत के अलावा चुपचाप शांति से बैठे थे। खास बात यह थी कि वादी और प्रतिवादी अब दोनों एक ही गाड़ी में एक ही साथ थे।

जेल के बारे में जो ऊपरी धारणा है उससे ऐसा महसूस हो रहा था कि अब हमारे जीवन के दुर्गति के दिन होंगे। शाम करीब 5:00 बजे हमारी गाड़ी सेंट्रल जेल बनारस के गेट पर पहुंच गई। सभी को उतारा गया और गेट के अंदर किया गया। जैसे ही हम गेट के अंदर घुसे चंद्रशेखर आजाद से मुलाकात हुई। उनकी प्रतिमा पूरे अपने क्रांतिकारी तेवर के साथ विराजमान थी। यह वही जगह थी जहां चंद्रशेखर आजाद को 12 कोड़े मारने की सजा की कार्रवाई पूरी की गई थी। इस परंपरा के वाहक अब हम भी सजा काटने के लिए पहुंच चुके थे। सभी को लाइन में बैठा दिया गया और झोले की तलाश शुरू हुई। तलाशी लेने के लिए सिपाहियों के साथ गेरुआ वस्त्रधारी (नंबरदार) कैदी लगे हुए थे। इतना भयभीत किया गया कि जिसके पास जितना रुपया हो तत्काल निकालो, अगर बाद में पाया जाएगा तो सारा पैसा जब्त कर लिया जाएगा और दंडित किया जाएगा। जेल के अंदर के नियम हमें नहीं मालूम थे। सभी लोग परेशान थे। सभी लोगों ने पैसे निकाल लिए, तलाशी हुई।

एक सिपाही ने सबके हाथ से पैसे लेकर उसमें से 100 या 50 रुपया कम करके वापस कर दिया। अभी हम कुछ दूर तक जेल के अंदर बड़े ही थे तब तक दोबारा तलाशी की कार्रवाई शुरू हो गई। दो सिपाहियों ने फिर तलाशी लेना शुरू किया और उन्होंने भी धमकाया कि जिसके पास जितना पैसा हो निकाल लो और उन लोगों ने भी सभी लोगों के पास से 100 या 50 रुपये लूट लिया। मेरा भी कुल 150 रुपया लूट लिया। (लुटेरों को ही जेल पुलिस ने लूट लिया) डॉक्टर की उपस्थिति में हमारा मेडिकल चेकअप हुआ और दो लोगों को तत्काल मेडिकल वार्ड में भर्ती कर लिया गया। एक लंबी सुरंग जैसी गलियारे से होते हुए हम लोग सर्किल के अंदर पहुंचे और एक पूरी तरह से खाली पड़ी बैरिक में रख दिया गया। उसे मुलहिया वैरिक बोलते थे। सुबह गिनती के बाद जेल ड्रेस मिल गई। घोषणा हो गई कि सभी को काम पर जाना है। खेत में आलू बिनाई गई, तो किसी से रास्ते की ढलाई कराई गई। ये काम कई दिन तक कराए गए। इस बीच एक नंबरदार (कैदी) ने ऐलान किया कि जो काम पर नहीं जाना चाहते हैं, वह लोग ₹3000 जमा कर दें, जिसके पास अभी न हो वह दो—तीन दिन का समय ले सकते हैं।

हम लोगों में जो भी सक्षम कैदी थे, उन लोगों ने इस आदेश का पालन किया। (कैदियों ने बाद में बताया कि यह जेल अधीक्षक जब से आए हुए हैं तभी से ₹3000 की वसूली हो रही है) लगभग 15 दिन के अंदर सभी मेडिकल चेकअप होने के बाद जेलर के समक्ष पेशी हुई। जेलर ने पूछा कि आप घर पर क्या काम करते थे और आप काम करना चाहते हैं तो जिन कैदियों ने कहा कि हम काम करना चाहते हैं, उनके इच्छा के मुताबिक उन्हें काम सौंप दिया गया, जिन लोगों ने इनकार किया, उन्हें काम पर न जाने का आदेश दे दिया गया। (बुजुर्ग कैदियों से काम नहीं लेते हैं) हम लोगों ने जेलर से अनुरोध किया कि हम सभी 40 लोगों को किसी एक ही बैरिक में रख दिया जाए। जेलर ने ऐसा ही किया। जेलर काफी सज्जन व्यक्ति दिख रहा था। कैदियों में उसके प्रति ख्याल अच्छा था। अब दिनचर्या शुरू हो गई और जेल का माहौल धीरे-धीरे समझ में आने लगा। सुबह उठो गिनती हुई, इसके बाद दिनभर के लिए फुर्सत। शाम को बैरिक बंद होते वक्त फिर गिनती कराओ, रातभर के लिए फुर्सत।

हमने बाहर सुना था कि जेल के अंदर दबंग कैदियों का सामान्य कैदियों पर बहुत दबदबा रहता है, लेकिन जेल के अंदर ऐसा कुछ भी नहीं दिखाई पड़ा। जेल प्रशासन ने अपनी सुविधा शुल्क के लिए जेल कैदियों के लिए काफी सुविधाएं मुहैया करा रखी हैं। कैदी जुगाड़ से चूल्हा बना ले रहे हैं और कैंटीन में हरी सब्जियां, अंडा, पनीर, दूध, मट्ठा सब उपलब्ध था। सुबह शाम पेड़ों के नीचे पिकनिक जैसा माहौल शुरू होता है। कोई अंडा करी बना रहा है तो कोई पनीर, कोई भुजिया सब्जी बना रहा है तो कोई दाल फ्राई। जो कैदी बगिया कमान में काम के लिए जाते थे, वह अपने साथ कुछ सब्जियों लेते आते थे। कैदी उनसे 10-20 रुपए देकर खरीद लेते थे। अब यही दिनचर्या शुरू हो गई थी। अब धीरे-धीरे कैदियों से संपर्क और बातचीत होने लगी। एक दूसरे का हाल-चाल जानने का मौका मिलने लगा। तब पता चला कि यहां पर 25 वर्षों तक से कैदी बंद मिले। बहुत सारे कैदियों का घर से संपर्क टूट चुका है। कैदी काफी गहरी मानसिक तनाव में जीवन जीते हैं। कुछ कैदियों को तो नियमित रूप से नींद की दवा दी जाती है। काफी कैदी तो पूरी तरह से पागल हो गए हैं। जिन्हें अब होश ही नहीं बचा है कि हम जेल में हैं, सजा काट रहे हैं।

जेल में पेशेवर कैदियों की संख्या बहुत कम है। अधिकांश कैदी गांव के किसान मजदूर ही बंद हैं। सबसे अधिक कैदियों की संख्या पासको व हत्या दहेज हत्या से संबंधित हैं। कश्मीरी कैदियों की भी संख्या काफी है। उन्हें हाई सिक्योरिटी में रखा जाता है, जहां ठीक दोपहर में कुछ क्षण के लिए धूप दिखाई देती है। जो आते और जाते रहते हैं, आम कैदियों से उनकी मुलाकात नहीं हो पाती है। इत्तेफाक से अस्पताल या कैंटीन में मुलाकात हो गई तो हो गई। एक दिन एक कश्मीरी कैदी को बहुत ज्यादा मारा गया। उस पर आरोप लगाया गया कि पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगा रहा था। सच क्या है मैं नहीं बता सकता, लेकिन कैदियों में ऐसा ही प्रचार था। जिस कैदी की पिटाई हुई थी उसका कहना था एक नंबरदार ने पैर से कुरान की किताब को हटा दिया था, इसी को लेकर विवाद हुआ था। मुझ पर झूठा आरोप लगाया गया, हालांकि वह एक स्वतंत्र कश्मीर का पक्षधर था।

केंद्रीय कारागार का अस्पताल जेल के लिहाज से उसे बहुत ही अच्छा कहा जा सकता है। एक्सरे मशीन है, ईसीजी मशीन, पैथोलॉजी है, दो-दो एंबुलेंस हैं, जो हमेशा चालू हालत में ही रहते हैं, दो डॉक्टर एक फार्मासिस्ट नियमित है। x-रे टेक्नीशियन, पैथोलॉजिस्ट, हॉस्पिटल साहब सुथरा है। दवाइयां पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहती हैं। हेल्थ वर्कर कैदियों को ही बनाया गया है, जो कैदी मेडिकल से संबंधित जानकारियां रखते हैं उन्हें हेल्थ वर्कर के रूप में काम सौंप दिया जाता है और डॉक्टर उन्हें नियमित प्रशिक्षित करता है। यदि कोई कैदी अचानक किसी भी वक्त बीमार पड़ जाता है तो हरसंभव कोशिश उसे तत्काल मेडिकल रिलीफ दी जाती है। अधिक गंभीर होने पर उसे तत्काल मेडिकल कॉलेज भेजा जाता है। कैदियों की ओपन हार्ट सर्जरी तक मेडिकल कॉलेज में करवाई जाती है। अन्य छोटे-मोटे हेल्थ संसाधन मौजूद हैं। इसमें स्वयंसेवी संस्थाओं का भी काफी योगदान है। जेल अस्पताल को बेहतर ढंग से चलाने के लिए विशेष तौर पर डॉक्टर स्वामी जी का योगदान है। डॉ स्वामी जी विवेकानंद मठ से जुड़े हुए हैं। इसी का असर देखने को मिलता है। संपूर्णता में यह कहा जा सकता है कि जेल के लिहाज से व्यवस्था ठीक है। जेल में कैदी आत्महत्या भी करते हैं और उनका निधन भी होता रहता है। हमारे सहकैदी हरेंद्र जिनका जेल में ही ब्रेन हेमरेज होने की वजह से निधन हो गया, दूसरे साथी जलेश्वर पटेल जिन्हें गंभीर रूप से फालिश मार दिया और वह मरणासन्न स्थिति में जेल से बाहर आए और घर जाकर उनका निधन हो गया।

जेल के अंदर धर्मनिरपेक्षता का बखूबी पालन किया जाता है। कौन कैदी किसके बगल में सोएगा कौन नहीं सोएगा, इसका निर्णय कोई कैदी स्वयं नहीं कर सकता है। जातिवाद और सांप्रदायिकता भौतिक रूप से जेल गेट के बाहर ही छूट जाती है, जेल के अंदर अब सब के लिए एक ही समान व्यवस्था लागू है। किसी भी धर्म से जुड़े हुए जो भी त्योहार होते हैं, उसके मुताबिक भोजन की व्यवस्था होती है। अगर ईद है तो पूड़ी, सब्जी, खीर, हलवा मिलेगा आदि। कभी-कभी कैदी भी आपस में चंदा लगा कर त्योहारों में बेहतर सब्जियां बनवाते हैं जब जेल प्रशासन असहाय हो जाता है।

प्रत्येक सर्कल में मंदिर हैं तो वहीं पर मस्जिद भी है। बेशक मस्जिद का गुंबद नहीं है, लेकिन एक बड़ा चबूतरा है जिसमें पांच वक्त की अजान और नमाज भी होती है। व्रत रखने वाले कैदियों को त्योहार के अनुसार उन्हें अल्पाहार भी दिया जाता है। ईद में आखिरी जुमे की नमाज पढ़ने के लिए बाहर से एक मौलवी आता है और जेल के सारे मुस्लिम धर्म को मानने वाले कैदी इकट्ठा होते हैं। वहां पर रामलीला भी होती है। मेरे रिहा होते वक्त वहां पर रामलीला की तैयारी चल रही थी। कैदी ही सारे पात्र बनते हैं, लेकिन पात्र चयन में जाति का विशेष ध्यान रखा जाता है। पूरे साजो समान के साथ रामलीला का मंचन कई दिनों तक चलता है तो राम रावण का युद्ध भी होता है, राम वनवास भी होता है तो कृष्ण का जन्म भी बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। वहां पर कोई भी मस्जिद में मंदिर खोजते हुए नहीं मिला। कुंभ मेला के दौरान अमृत का घड़ा जेल के अंदर भी आया था और बड़े साज सज्जा के साथ अमृत जल हौज में मिलाया गया। कुछ कैदियों ने रुचि लेकर स्नान किया, लेकिन अधिकांश कैदियों ने कोई रुचि नहीं दिखाई।

जेल के अंदर प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय भी चलता है, जिसकी शिक्षा देने के लिए प्रत्येक बृहस्पतिवार को बाहर से बहन जी आती हैं और वह कैदियों को शिक्षा देती हैं कि प्रत्येक महिला पुरुष भाई—बहन हैं और प्रत्येक पुरुष को अपनी पत्नी का भी पैर छूना चाहिए। उनके इन विचारों से प्रभावित होकर एक कैदी की पत्नी जब मुलाकात के लिए आई तो उस कैदी ने अपनी पत्नी के पैर छुए और बहन जी कहकर पुकारा तो उसकी पत्नी स्तब्ध रह गई और उसने अपने पति को एक झापड़ मारा। थप्पड़ से उसके होश ठिकाने आये और बहन जी का रिश्ता भूल गया। ईश्वरीय विश्वविद्यालय में आत्मा से परमात्मा का मिलन कराया जाता है, जो कैदी कोई सवाल करते हैं उनसे साफ तौर पर कह दिया जाता है कि आपको समझ में नहीं आएगा आप बाहर निकल जाइए, अगली बार से मत आइएगा।

जेल के अंदर क्रिकेट मैच भी होता है। कैदियों की टीम चाहे भी जितना अच्छा प्रदर्शन करे, लेकिन जीत जेल प्रशासन टीम की ही होती है। अखाड़े भी हैं मुगदर भी हैं। जमकर व्यायाम करिए और व्यायामशाला भी है जिसमें आधुनिक मशीन लगी हुई हैं। लेकिन यह सोचने की बात है कि जेल के अंदर किस कैदी के शरीर में इतनी ज्यादा क्षमता है कि वह जिम में जाकर अपना शरीर बनाए। बिना जिम में गए ही कुछ दिनों में शरीर सुडौल और बेहतर हो जाता है।

जेल के अंदर पूरा राजनीतिक माहौल है, ठीक उसी तरह का जिस तरह का जेल के बाहर समाज में है। बहुत ही गरमागरम राजनीतिक बहसें होती हैं। अगर अंधभक्त हैं तो अंधभक्त विरोधी भी। नाथूराम गोडसे को बैरिस्टर बताने वाले और महिमा मंडल करने वाले भी, तो भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के लिए गांधी को दोषी ठहराने वाले भी।

इस वक्त सजायें खूब हो रही हैं। कानूनी जुमला सौ दोषी छूट जायें, लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए, उलट गया है। कैदी चर्चा करते हैं कि सरकार अपनी छवि बनाने के लिए अदालत पर दबाव बनाकर जेल भरो आन्दोलन चला रही है।

जेल प्रशासन में भी राजनीतिक विभाजन दिखता है। जेल अधीक्षक सरकार की तारीफ के भाषण कैदियों के बीच में खूब सुनाते हैं। कभी-कभी बाहरी सरकारी राजनीति कार्यकर्ता आकर 'बटोगे तो कटोगे' जैसे नारे लगा जाते हैं। कवि सम्मेलन का भी आयोजन होता है, कैदी ही कवि होते हैं। एक दिन कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ। संभवत: अंबेडकर जयंती का समय था। एक कैदी ने एक कविता पढ़कर सुनाई जिसमें उसने कहा कि एक बोरी यूरिया के लिए 40 लोगों को सजा, इसी के साथ उसने कुछ और भी सुनाया। सुनकर जेल अधीक्षक आगबबूला हो गया और उसने उस कैदी को दौरा पट्टा की सजा सुना दी। (दौड़ा पट्टा की सजा का मतलब होता है कैदी अपने पूरे सामान के साथ प्रतिदिन दूसरी बैरिक में जाकर सोएगा) तीसरे दिन जेलर बैरिक पर गए और उन्होंने कहा इतनी बात के लिए इतनी सजा उचित नहीं है और उसने दौरा पट्टा की सजा खत्म कर दी। यानी सरकार की आपने अगर आलोचना की तो खैर नहीं।

वहीं कॉमरेड छोटेलाल कुशवाहा ने अपनी रचनाओं से जेल में खूब सुर्खियां बटोरीं। जेल के अंदर पुस्तकालय भी है, जिसमें वामपंथी और दक्षिणपंथी किताबें भी काफी हैं कुछ किताबें मुझे सीपीआई(एमएल) के लेखकों द्वारा लिखी हुई भी मिलीं। प्रतिरोध की संस्कृति बद्री नारायण तो महाश्वेता देवी का प्रथम उपन्यास झांसी की रानी भी मिला। बाबा नागार्जुन भी दिखाई पड़े, तो दशरथ मांझी भी मौजूद थे। आइंस्टीन भी सुशोभित थे, राजकिशोर भी, देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय तो अपनी पूरी सीरीज के साथ। मुंशी प्रेमचंद अपने ही नगर में कैसे गैरहाजिर रहते, तो विवेकानंद कट्टर हिंदुत्व को चुनौती दे रहे थे। किताबें काफी पढ़ी जाती हैं। जेल के अंदर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय की शाखा भी है, जहां से इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई पूरी कराई जाती है और उसी के माध्यम से कई अन्य छोटे-छोटे कोर्स भी कराए जाते हैं। अशिक्षित कैदियों के लिए प्राइमरी विद्यालय भी चलता है। कैदियों के मनोरंजन के लिए किरण बेदी द्वारा संचालित एनजीओ द्वारा एफएम रेडियो का भी संचालन किया जाता है, जिसके माध्यम से कैदियों को गीत सुनाए जाते हैं और कैदियों के गीतों का भी सीधे प्रसारण किया जाता है।

मेरे साथ जेल में पुराने सोशलिस्ट नेता, समाजवादी पार्टी में चार बार विधायक, तीन बार मिनिस्टर बस्ती जिले के रहने वाले रामकरन आर्य मेरी ही तरह एक सामाजिक आंदोलन में पिछले 8 वर्षों से आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं। पढ़ने—लिखने में उनकी काफी रुचि है। जेल में ही रहकर उन्होंने सामाजिक पीड़ा पर आधारित 'व्यथा' नमक एक कविता संग्रह, महाभारत के पात्र कर्ण पर एक उपन्यास की रचना की है। दुद्धीनगर के निवर्तमान भाजपा विधायक रामदुलार गोंड भी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के शिकार 20 वर्षों की सजा, पिछले 20 महीने से काट रहे हैं। हम तीनों लोगों का अधिकांश समय राजनीतिक बहस और राजनीतिक समझ विकसित करने में ही बीतता था। रामदुलार गोंड से मुझे आदिवासी समाज को समझने और उनके राजनीतिक रुझानों के बारे में काफी हद तक जानकारी मिली। उन्होंने मुझसे बातचीत में कहा कि जेल में मुझे कुछ मिला हो या ना मिला हो, लेकिन इस समाज, देश दुनिया को समझना और अंधविश्वास से ऊपर उठने का एक नजरिया तो कामरेड आपके जरिए मुझे मिल ही गया है।

जेल में बाहर से आने वाली किताबों पर जेल प्रशासन की खास निगाह रहती है। खासतौर से वह यह चाहते हैं कि कैदी कानून की किताबें न पढ़ें। मैंने तीन नए संशोधित कानून की किताब मंगवाईं, इस हिदायत के साथ मुझे दी गईं कि आप प्रतिदिन कार्यालय में जमा करेंगे, शाम को और सुबह फिर ले जाएंगे। जब मैंने पुनः बृहद अपराध विधियों की एक किताब मंगाई तो उसे जेल गेट पर ही रोक लिया गया और यह मुझसे कहा गया कि आप प्रतिदिन कार्यालय में जाकर 1 घंटे पढ़ सकते हैं। मैंने यह शर्त मानने से इनकार कर दिया, जेलर की तरफ से खबर मिली कि आप जाते वक्त अपनी किताब ले लीजिएगा। जाते वक्त मैंने डिप्टी जेलर और जेलर दोनों से बात कही, लेकिन वह किताब मुझे नहीं मिल सकी।

अगर कोई कैदी आपके साथ दुर्व्यवहार करे तो आप चुप रहें यही बेहतर है। अगर आप शिकायत दर्ज करते हैं तो आपकी गलती हो या न हो, दोनों कैदियों को सजा मिलेगी। पैसा खर्च करिए तो जेल में सुविधाएं मिलेंगी, अगर आपके पास कोई अवैध नशे की चीज पाई गई तो सूअर की तरह उल्टा लटकाकर तलवे में कैदियों से ही कैदी के ऊपर सैकड़ों लाठियां बरसाई जाती हैं। तमाम सगे—संबंधी एक ही परिवार के बाप-बेटे, चाचा-भतीजा जेल में बंद हैं। अगर किसी के विरुद्ध दंडात्मक कार्यवाही जेल में हो रही हो तो आप केवल खड़े रहकर देख सकते हैं, लेकिन आप कुछ भी कर नहीं सकते हैं। ऐसी दंडात्मक कार्यवाही खास तौर से जेल कैदियों से दूर ले जाकर एकांत में की जाती है। किसी को हाई सिक्योरिटी में बंद किया जाता है, तो किसी को तन्हाई जेल में, आप जितना जेल प्रशासन से अपमानित नहीं होंगे उससे ज्यादा कहीं जेल के नंबरदारों (कैदी) से अपमानित होने के लिए तैयार रहिए, जो भी सम्मानित कैदी हैं वह जेल प्रोटोकॉल का पालन कर चुपचाप अपना समय काटते हैं।

19 अगस्त सन 2025 को शाम 6:30 बजे रिहा होते वक्त चंद्रशेखर आजाद को सलामी देते हुए हम जेल गेट के बाहर हुए और जेल गेट के बाहर भाकपा (माले) के प्रदेश सचिव साथी सुधाकर यादव समेत अन्य साथियों ने हमारा गर्मजोशी के साथ स्वागत किया। इसके लिए पार्टी को बहुत-बहुत धन्यवाद।

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