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आज साप्ताहिक 'हाउस वाइफ' कॉलम में एक अनुभव साझा कर रही हैं पटना में रहने वाली साहित्यकार मणि बेन द्विवेदी। यह अनुभव उनकी बहुत ही आत्मीय और करीबी महिला का है, जिनकी हाल ही में मौत हुई है...
ससुराल में बड़ी बहू बनकर आयी थी मीरा, यही उसका दुर्भाग्य था और उसके पति राकेश अपने 6 भाई बहनों में सबसे बड़े भाई थे। सबकी नज़र उन्हीं दोनों पर रहती थी। सामूहिक परिवार था पांच—पांच सासें थीं, कई ननदें और मीरा अकेली बहू थी।
कुछ भी होता, बिना बात की ही कमी निकालनी जरूरी थी मीरा में। मीरा की सास तो अपने बेटे को जल्दी मिलने भी नहीं देती थी उसे। जबकि मीरा के पति राकेश रेलवे में नौकरी करते थे और महीने—दो महीने में घर आते थे। सास की नज़र इतनी तेज की बेटे के आने पर बाहर से ही उसके पति जो सामान लाते, उनकी बहनें ले जाकर अंदर रख देतीं। सारा पैसा भी बाहर ही मांग लेते थे उनके पति से घरवाले। बुरा तो तब लगा मीरा और उसके पति को भी, जब सास रात में आकर छिपकर बेटे की शर्ट—पैंट चैक करती।
लेकिन मीरा जब पति से पैसे या कोई सामान मांगती, तो वो बोलते माँ के पास हैं न तुम मांग लेना। माँ जरूर देंगी। और जब मीरा सास से पैसे मांगती तो सास बोलती, घर में रह कर पैसे क्या करोगी।
मीरा चुपचाप रोते हुए सब सहन करती। शुरू—शुरू में तो सास—ननद चढ़ बैठती थीं। उसकी सास रोकर ड्रामा करने लगती कि ये मेरा शिकायत मेरे बेटे से कर रही है,सभी लोग घबरा जाते। बेटा भी नाराज़ हो कर माँ का ही पक्ष लेता।
ये घटना बिहार की है, कई साल पुरानी। उस समय शादीशुदा लड़की की विदाई भी पांच वर्ष, तीन वर्ष में होती थी। इधर मीरा जब भी गर्भवती होती, तो उचित इलाज़ के अभाव में उसके बच्चे दुनिया देखने से पहले ही आंखें मूंद लेते। मीरा ने पांच बेटों को जन्म दिया, मगर गांव में प्रसव कराने के कारण उनमें से एक भी नहीं बच पाया, शायद अस्पताल में उसका प्रसव कराया जाता तो वे जिंदा होते।
पांच—पांच बार अपने बच्चों को खोने के बाद मीरा की हालत पागलों जैसी हो गयी थी। ऊपर से जब भी पति गांव आते, सास—ननदें उसकी ढेर सारी शिकायतें लेकर बैठ जातीं। मीरा के पति भी कभी मीरा की बात नहीं सुनते। एक बार तो पति को समझनी चाहिए कि जो बातें उसकी पत्नी के बारे में मां—बहनें कह रही हैं वो सच भी हैं या नहीं। किसी भी एक तरफ की बात मानना, इसे क्या कहेंगे? ये तो नासमझी हुई न।
खैर जब मीरा छठी बार गर्भवती हुई तो उसका छोटा भाई आकर उसे मायके ले गया, जहाँ अस्पताल और डॉक्टर की देखरेख में एक बेटी हुई उसे। अब तो और ताने सुनने पड़ते उसे। कहते अब लीजिये अब एक बेटी है, कोई बेटा यानी वंश नहीं है। इसलिए बेटे की दूसरी शादी तय कर दी उनके माँ बाप ने।
मीरा शायद आत्मनिर्भर होती तो यह सब नहीं सहती। अत्याचार की हद तो ये कि जब कहते तुम्हें कौन हटा रहा है इस घर से, तुम भी रहना वो भी रहेगी। खैर, इस मामले में मीरा के पति ने समझदारी दिखाई और किसी भी कीमत पर शादी नहीं करने का फैसला किया।
उसके बाद मीरा को एक लड़की और हुई। अब तो तानों की बौछारें होने लगीं चौतरफा उसके लिए। सास कहती वंश नहीं चलेगा। बात—बात में प्रताड़ना। मीरा कभी रोती, बिलख़ती, पति से कहती तो वह कुछ सुनते नहीं। पति भी पक्का श्रवण कुमार था जो बिना सोचे—समझे मां—बाप की बात मानता। अगर मां खाली जगह पर कहती कि बेटा आग है तो वे मान जाते बिना धुंआ देखे कि आग लगी है।
दो लड़कियों के बाद मीरा फिर गर्भवती हुई, इस बार उसने एक बेटे को जन्म दिया, जो पूरी डॉक्टरी देखरेख और अस्पताल में आॅपरेशन से हुआ। यहां मीरा ने अपने लिए एक फैसला लिया और नसबंदी करवा ली। जब यह बात उसके पति को पता चली तो उसने अस्पताल में ही हंगामा बरपाना शुरू कर दिया। मीरा को जलील करते, मुझे इसके बाद एक लड़का और चाहिए था, एक लड़का कोई लड़का होता है। पूरे अस्पताल में ही हंगामा। खैर, किसी तरह शांत हुए। लेकिन पति कभी यह नहीं समझ पाए कि मीरा आठवीं बार गर्भवती हुई है और अब उसके शरीर की क्या हालत होगी, क्या उसका शरीर और बच्चे पैदा करने करने में समर्थ होगा!
मीरा के लिए उसके पति के पास पैसा नहीं होता, लेकिन अपनी सभी बहनों की शादी, भाइयों को पढ़ाना फिर उनकी शादी समेत घर की सारी जिम्मेदारियों उन्होंने बखूबी निभाई। ताज्जुब तो मीरा को तब होता जब उसकी खुद की बेटी शादी योग्य हो गए और उनके देवर तब भी पति से पैसा मांगते तो वे झट से दे देते, मगर मीरा पैसे की बात मुंह पर भी नहीं ला सकती थी।
ऐसा तब था जबकि मीरा के पति राकेश के सभी भाई अच्छे ओहदों पर थे, बहनें भी सभी बड़े घरों में शादी ब्याही गई थीं। फिर भी मीरा के पति से हमेशा पैसे की मांग करते रहते भाई—बहन। जब भी बहनें पैसे के लिए कहतीं राकेश खुद उनके घर जाकर पैसे दे आते। मीरा कुछ कहती तो बोलते, 'मेरी बहन है तो क्या हुआ?'
मीरा जब कहती कि उन्हें यहां आकर तो ले जाने दीजिये, पर राकेश नहीं मानते। इसी बात को लेकर दोनों में लड़ाई—झगड़ा होता। कभी—कभी तो राकेश मीरा पर इसके लिए हाथ भी उठा देता।
अपनी जिंदगी की जिल्लतों से आजिज आ एक दिन तो मीरा बहुत परेशान होकर रेलवे लाइन पर बैठ गयी आत्महत्या करने के लिए। रात के दस बज रहे थे, बच्चे परेशान। किसी के माध्यम से पता चला तो बच्चों ने अपनी मां की जान बचायी।
मीरा की तो जैसे जिंदगी ही दर्द और प्रताड़नाएं झेलने के लिए बनी थी। अब राकेश रिटायर हो चुके थे। अभी सिर्फ एक बेटी की शादी ही कर पाए थे, जब उन्हें लिवर कैंसर हो गया। बीमारी के बाद राकेश को अपने—पराए का फर्क समझ में आया, जब पांच वर्ष बिस्तर पर रहने पर उनका एक भी भाई—बहन उन्हें देखने नहीं आया। मगर मीरा ने अपना पत्नीधर्म बखूबी निभाया, पूरे मन से राकेश की सेवा की, मगर वह बच नहीं पाये।
पति की मौत के बाद मीरा जब अपनी व्यथा सुनाती थी तो बहुत रोती थी। उसकी पूरी जिंदगी दर्द और प्रताड़ना में ही गुजरी।
समाज में नारी को जो उचित स्थान और प्यार मिलना चाहिए, उससे वह आज भी वंचित है। आज भी उन्हें दोयम दर्जे पर रखा जाता है, खासकर घरेलू औरतें, जिन्हें कि 'हाउसवाइफ' कहा जाता है, ज्यादातर मामलों में जैसे उन्हें तो एक मशीन समझ लिया जाता है। जो घर की सब जरूरतें पूरी करे, सबकी सेवा करे, मगर खुद के लिए कभी मुंह न खोले।
आज भी लड़कियों को ससुराल में कभी दहेज़ के लिए तो कभी संस्कारों के लांछन लगाकर प्रताड़ित करना आम बात है। कहीं मानसिक तो कहीं शारीरिक यातना आज भी झेल रही है स्त्री।
एक—दो दिन की ही सच्ची घटना है बनारस की, पति ने पत्नी को सिर्फ इसलिए मौत के घात उतार दिया कि उसने आलू की भुजिया नहीं बनायीं थी। पत्थर मारकर उसने उसे मौत की नींद सुला दिया था, जैसे कि वह सिर्फ उसका हुकुम मानने के लिए पैदा हुई थी, जैसे ही एक हुकुम पूरा नहीं हुआ, उसने उसकी सांसों की जंजीर ही तोड़ दी।
(साहित्यिक पत्रिका 'नए पल्लव' की संपादक मणि बेन द्विवेदी एक सफल गृहणी और रचनाकार हैं। अवध विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर और संगीत विशारद मणि बेन उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले की मूल निवासी हैं। गृहणी के बतौर अपनी जिम्मेदारियों को सफलतापूर्वक निभाने के बाद उन्होंने लेखन शुरू किया। जीवन की दूसरी पारी शुरू करने यानी लिखने को प्रोत्साहित करने का श्रेय वह अपने पति विनोद भूषण द्विवेदी को देती हैं।)