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जंगल के लुटेरों को ही मिली है पर्यावरण बचाने की जिम्मेदारी
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दुनिया के लुटेरे शासक पर्यावरण बचाने के नाम पर चाहे जितना भी ढोंग-ढकोसला कर लें, पर्यावरण विनाश रोकना इन लुटेरों के बस की बात नहीं है...
मुनीष कुमार, स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता
भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित शैतानी कानून-वन अधिनियम 2019 के तार भारत सरकार द्वारा वर्ष 2015 में ग्लोबल वार्मिंग का लेकर पेरिस में जलवायु परिवर्तन पर किये गये समझौते संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) से जुड़े हुए हैं। 2015 से अस्तित्व में आए पेरिस समझौते पर अक्टूबर 2016 तक दुनिया के 191 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं।
भारत सरकार ने वन अधिनियम 1927 को बदलकर प्रस्तावित नये वन अधिनियम 2019 की प्रस्तावना में जलवायु परिवर्तन और अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए इस अधिनियम को लाए जाने का उल्लेख किया है। इस कानून की धारा 27 (ए) में कहा गया है कि राज्य सरकार, सरकारी गजट की अधिसूचना जारी करके किसी भी क्षेत्र को कार्बन संरक्षण के उद्देश्य के लिए कानूनी रूप से संरक्षित क्षेत्र घोषित कर सकती है।
पेरिस समझौते में दुनिया को गर्म होने से बचाने के लिए वर्ष 2100 तक दुनिया का तापमान औद्यौगिक क्रांति पूर्व के स्तर (वर्ष 1850-1900) से 2 डिग्री सेंटीग्रेट से अधिक नहीं बढ़ने देने व 1.5 डिग्री तापमान बढ़ोतरी की आदर्श स्थिति को प्राप्त करने की बात कही गयी है।
वनों के अंधाधुंध कटान, हथियारों की अंधी दौड़, औद्योगिकीकरण व जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल आदि से उत्सर्जित कार्बनडाई आक्साइड तथा अन्य जहरीली गैसों (ग्रीन हाउस गैसों) के कारण पृथ्वी का तापमान (ग्लोबल वार्मिंग) लगातार बढ़ रहा है। पृथ्वी पर उसकी क्षमता से अधिक मात्रा में मौजूद ग्रीन हाउस गैसों के कारण सूर्य से आने वाली उष्मा पृथ्वी के तापमान में बढ़ोत्तरी कर रही है।
पृथ्वी के तापमान को कम करने के लिए जरूरी है कि जीवाश्म ईधन के प्रयोग व उद्योगों से निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम किया जाए, हथियारों की दौड़ समाप्त की जाए तथा दुनिया में वन क्षेत्रों को बढ़ाया जाए, ताकि पर्यावरण के लिए विनाशकारी इन गैसों को सोखा जा सके।
पर्यावरण को बचाने के लिए जारी 2015 में पेरिस में हुयी 21वें दौर की वार्ता में दुनिया के देशों के बीच एक समझौता अस्तित्व में आया। पृथ्वी को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के लिए किए गये पेरिस समझौते में शामिल विकसित व विकासशील देशों ने अपने राष्ट्रीय तौर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) प्रस्तुत किए, जिसमें उन्होंने बताया है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए वे क्या करेंगे। पेरिस समझौते में शामिल देशों द्वारा जो एनडीसी प्रस्तुत किए गये हैं, उन्हें लागू करना सभी देशों के लिए बाध्यकारी है।
इस समझौते में अमेरिका ने राष्ट्रीय तौर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) के अंतर्गत कहा कि वह अपने देश द्वारा किए जा रहे कार्बन उत्सर्जन में वर्ष 2025 तक वर्ष 2005 के स्तर के मुकाबले 25 से 28 प्रतिशत की कटौती करेगा।
चीन वर्ष 2030 तक अपने देश द्वारा किए जा रहे कार्बन उत्सर्जन में वर्ष 2005 के स्तर से 60 प्रतिशत तथा यूरोपीय यूनियन के देश वर्ष 1990 के कार्बन उत्सर्जन के लेबल से 40 प्रतिशत कम कार्बन उत्सर्जन करने के लिए प्रतिबद्ध है। इसी तरह से दुनिया के दूसरे मुल्कों ने भी अपने-अपने एनडीसी निर्धारित किए हैं।
भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्री डा. हर्षबर्धन ने 4 जनवरी, 2019 को लोकसभा में बताया कि पेरिस समझौते के तहत भारत 2030 तक वर्ष 2005 के स्तर से 33 से 35 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन में कटौती करेगा। इस समझौते के तहत देश में वर्ष 2030 तक जीवाश्म ईधन (कोयला पेट्रोलियम आदि) के उपयोग में 40 प्रतिशत की कटौती की जाएगी। देश में 2030 तक वन व वृक्ष क्षेत्र को बढ़ाकर 2.5 अरब से 3 अरब टन ग्रीन हाउस गैस (कार्बन) को सोखने का लक्ष्य निर्धारित किया है।
ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के प्रयासों के कारण विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ने वाले नकारात्मक असर की भरपाई के लिए दुनिया के उच्च आय वाले विकसित 18 देश, हरित जलवायु कोष बनाकर, विकासशील देशों को वर्ष 2020 के बाद से प्रतिवर्ष 100 अरब डालर की मदद देंगे।
पेरिस समझौते में प्रावधान है कि 3 वर्ष की अवधि के बाद कोई भी देश स्वयं को इस समझौते से अलग कर सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प 2017 में पेरिस समझौते को अमेरिका के खिलाफ बताकर इससे अलग होने का ऐलान कर चुके हैं। वे हरित जलवायु कोष में 3 अरब डालर सालाना देने के अमेरिका द्वारा किए गये वायदे से मुकर गये हैं। पेरिस समझौते की धारा 6 में कार्बन ट्रेडिंग को वैधता प्रदान की गयी है।
कार्बन ट्रेडिंग के लिए कार्बन की यूनिट का निर्धारण टन में किया गया है। मसलन कोई देश 'ए' है और वह अपने देश के द्वारा निर्धारित काबर्न उत्सर्जन की सीमा से कम कार्बन का उत्सर्जन करके वन क्षेत्र को बढ़ाकर 30 टन का कार्बन क्रेडिट हासिल कर लेता है तो वह इस कार्बन क्रेडिट को दूसरे देशों को बेच सकता है। एक दूसरा देश मुल्क 'बी' है और वह 100 टन ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन कर रहा है और उसे अपने एनडीसी के तहत उसे अपने ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में 30 प्रतिशत यानी 30 टन की कटौती करनी है। तो 'बी' मुल्क अपने ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में कटौती किए बिना ही अपने 30 प्रतिशत कटौती के लक्ष्य को हासिल कर सकता है।
इसके लिए वह ए मुल्क द्वारा हासिल 30 टन का कार्बन क्रेडिट खरीद लेगा। यह कार्बन क्रेडिट बी मुल्क के निर्धारित लक्ष्य एन.डी.सी का हिस्सा माना जाएगा। सरल शब्दों में इस कार्बन ट्रेडिंग का मतलब है यूरोप व जापान जैसे अमीर साम्राज्यवादी देशों के उद्योग-धंधों व ‘विकास’ के फलस्वरुप जो कार्बन उत्सर्जन होगा उसे सोखने के लिए भारत जैसे देशों में कार्बन क्रेडिट हासिल करने के लिए जंगल लगाए जाएंगे। वे विकास करेंगे और हम गरीब देश के लोग विकसित साम्राज्यवादी मुल्कों के विकास का दंश झेलेंगे। उन्होंने दुनिया के पर्यावरण को बचाने का सारा बोझ गरीब देशों की जनता के ऊपर डाल दिया है।
1992 में ब्राजील के रियो में दुनिया के पर्यावरण को बचाने के लिए शुरू की गयी वार्ताएं व विकसित देशों की प्रतिबद्धताएं खोखली साबित हुयी हैं। हालात यह हैं कि त्यों-त्यों मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की गयी।
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दुनिया के पूंजीपतियों-साम्राज्यवादियों के मुनाफे की अंधी हवस व प्राकृतिक संसाधनों की लूट ने पृथ्वी के पर्यावरण को तबाही के द्वार पर लाकर खड़ा कर दिया है। अब जब दुनिया को पर्यावरण के विनाश से बचाने की चुनौती सामने है, तब भी वह इस पर गम्भीर प्रयास करने की जगह कार्बन ट्रेडिंग आदि युक्तियों द्वारा मुनाफा कमाने की ही जुगत भिड़ा रहे हैं। दुनिया के ये लुटेरे शासक पर्यावरण बचाने के नाम पर चाहे जितना भी ढोंग-ढकोसला कर ले, पर्यावरण विनाश रोकना इन लुटेरों के बस की बात नहीं है।
27 जुलाई 2018 को लोकसभा में वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री महेश शर्मा ने बताया कि भारत में वन स्थिति रिपोर्ट 2017 के अनुसार देश के वनों में कुल 7082 मिलियन टन कार्बन सिंक होने का अनुमान लगाया गया है।
विश्व बैंक ने वर्ष 2020 में एक टन कार्बन यूनिट की दर 40 से 80 डालर प्रति टन तथा 2030 तक 50 से 100 डालर प्रति टन होने की सम्भावना व्यक्त की है। भारत की मोदी सरकार जनता को उनके परम्परागत् आवासों से बेदखल करके वर्ष 2030 तक 2.5 अरब टन कार्बन सिंक करने के लिए 50 लाख हैक्टेअर भूमि पर नये वन व वृक्ष लगाकर कार्बन ट्रेडिंग के द्वारा 100 से 150 अरब डालर सालाना कमाने के ख्वाब देख रही है।
भारत सरकार को यह समझौता 2020 से लागू करना है और इसी समझौते की प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए वन अधिनियम 1927 में संसोधन कर नया शैतानी कानून-वन अधिनियम 2019 प्रस्तावित किया गया है जो कि देश की वनों पर निर्भर आबादी के दमन-उत्पीड़न का औजार बनेगा।
(मुनीष कुमार समाजवादी लोक मंच के सहसंयोजक हैं।)