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शिक्षा

नौकरी थी क्लास फोर्थ की, जनसत्ता आॅनलाइन पर 'डोम' की हो गई

Janjwar Team
11 July 2017 5:57 PM GMT
नौकरी थी क्लास फोर्थ की, जनसत्ता आॅनलाइन पर डोम की हो गई
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यह टाइम्स आॅफ इंडिया की और इंडियन एक्सप्रेस समूह के हिंदी आॅनलाइन की भाषाई गलती नहीं, बल्कि जातिवादी मानसिकता की कुंठा है जो क्षेत्रीय समझदारी और सामंती सोच से उपर नहीं उठ पाती है। इस पूरे मसले पर एम कुमार की रिपोर्ट

कोलकाता। व्यंगकार हरिशंकर परसाई भी कवि मुक्तिबोध के इस मेहतर की वकालत करते उसे महत्‍तर पुकारते हैं पर मुक्तिबोध के दशकों बाद भी हमारे मीडिया और मेडिकल कॉलेज जैसे शिक्षण संस्‍थान की हालत यह है कि वह सफाई के काम को महत्‍तर की बजाय हीनतर पुकारते हुए उच्‍च शिक्षितों को उससे दूर रहने की वकालत करता है। जबकि गांधी जी मेहतर का काम करके भी आम जन की निगाह में उठते चले गए। आज 'जनसत्ता आॅनलाइन' और टाइम्स आॅफ इंडिया 'टीओआई' ने भी एक ऐसा ही काम किया है।

पश्चिम बंगाल के मालदा मेडिकल कॉलेज में लैब अटेंडेंट के दो पद के लिए आवेदन की आखिरी तारीख 7 जुलाई तक 300 आवेदन आए, जिनमें से हर चौथा आवेदन पीएचडी और एमफिल डिग्रीधारी का था। टाइम्स आॅफ इंडिया में छपी खबर PhD students apply for jobs to handle corpses in Bengal को कॉपी पेस्ट करते हुए जनसत्ता आॅनलाइन के संपादक इस बात से इतने इमोशनल हो उठे कि उन्होंने क्लास फोर्थ 'डी ग्रेड' की नौकरी और टाइम्स आॅफ इंडिया के पाइंटर में लिखे 'डोम' शब्द को शीर्षक में ले लिया।

इन दोनों मीडिया समूह टाइम्स आॅफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस के हिंदी आॅनलाइन को पता होना चाहिए कि ऐसा कोई पद न होता है, न कहीं भर्ती होती है। यह सिर्फ पश्चिम बंगाल, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में उपयोग होने वाला शब्द है, जिसे समाज के सबसे निचली पायदान पर खड़ी जाति को बोला जाता रहा है। जिसे अब बोलना एससी/एसटी एक्ट 1989 के तहत उसी तरह उत्पीड़न में आता है, जैसे 'चमार' शब्द।

इंडियन एक्सप्रेस से जुड़ी वेबसाइट 'जनसत्ता आॅनलाइन' में आज 'एमफिल, पीएचडी करके भी नहीं मिली नौकरी तो डोम बनने को भरा अप्लीकेशन' शीर्षक से खबर छपी है। दो पदों के लिए निकली यह नौकरी मेडिकल कॉलेज में लाशों को उठाने—हटाने की थी, जिन्हें लैब अटेंडेंड कहा जाता है।

लेकिन जनसत्ता आॅनलाइन की खबर के शीर्षक को देखते ही एकबारगी लगता है कि खबर न्यूजरूम से नहीं, सवर्णों के ठीहे से लिखी गई हो और लिखते वक्त दादा—नाना से मिले संस्कार जाग उठे हों।

सवाल है कि यह डोम बनना क्‍या है। डोम जैसे शब्‍दों के प्रयोग पर रोक भी है, पर यह कैसा मीडिया घराना है जो 'डोम पद' के लिए नियुक्तियां करा रहा है।

टीओआई की खबर के अनुसार अस्पताल प्रशासन आवेदनों को देखकर हैरान है। मेडिकल कॉलेज के वाइस प्रिंसिपल ने कहा, “यह बेहद शर्मनाक बात है कि उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद भी लोगों को योग्यता से छोटे कामों के लिए आवेदन करना पड़ रहा। हम लोग इन्हें मनाने की कोशिश करेंगे, ताकि यह अपने आवेदन वापिस ले लें।'

सवाल यह भी है कि मेडिकल कॉलेज प्रशासन के लिए यह हैरानी शर्मनाक क्यों है। क्‍या बेरोजगारी की स्थिति का उन्‍हें भान नहीं। क्‍या वे इस काम को छोटा समझते हैं।

आखिर मीडिया शब्‍दों की बाजीगरी में कब तक खबरों को सही ढंग से प्रस्‍तुत करने की जगह लोगों को दंग और हैरान मानते हुए अपने दिवालियेपन का परिचय देता रहेगा।

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