जिसे बताया था ‘बदनुमा दाग़’ ख़ुद वही गलती कर बैठे जस्टिस गोगोई, कैसे बनेगा लोगों का भरोसा?
रंजन गोगोई के कार्यकाल में कई ऐसे फ़ैसले सुनाए गए, जिन पर मोदी सरकार की राजनीतिक साख दांव पर लगी हुई थी. उन्हें रिटायर हुए 6 महीने भी नहीं हुए हैं कि उन्होंने सरकार द्वारा राज्यसभा भेजे जाने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी...
जनज्वार। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पद से रिटायर होने के चंद महीने बाद ही राज्यसभा जाने के लिए पूरी तरह तैयार हैं. उन्होंने साफ़ कर दिया है कि वो इस ऑफर को ठुकराने नहीं जा रहे हैं. अलबत्ता उन्होंने कहा, "मैं संभवतः कल (बुधवार को) दिल्ली जाऊंगा... मुझे शपथ ग्रहण करने दीजिए, फिर विस्तार से मीडिया को बताऊंगा कि मैंने राज्यसभा की सदस्यता क्यों स्वीकार की." जस्टिस गोगोई देश के 46वें सीजेआई रहे हैं. वह 13 महीने तक इस पद पर रहने के बाद नवंबर, 2019 में रिटायर हुए थे. जस्टिस गोगोई वही जज हैं, जिन्होंने अयोध्या के विवादित राम मंदिर विवाद पर फैसला सुनाया था. सिर्फ़ अयोध्या ही नहीं, बल्कि उन्होंने कई ऐसे फ़ैसले सुनाए जिनमें मोदी सरकार की राजनीतिक साख दांव पर लगी थी.
इनमें रफ़ाल ख़रीद, सीबीआई निदेश आलोक वर्मा को रातों-रात हटाया जाना भी शामिल हैं. यही नहीं, वह टॉप कोर्ट के उन चार जजों में से एक हैं, जिन्होंने देश के इतिहास में पहली बार (जनवरी 2018) सुप्रीम कोर्ट की अनियमतताओं को लेकर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी.
उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में जस्टिस चेलमेश्वर, जस्टिस कोरियन जोसेफ़ और जस्टिस मदन लोकुर के साथ उन्होंने मोदी सरकार के रवैये पर कई सवाल उठाते हुए ये कहा था कि सरकार न्यायपालिका पर बेजा दबाव बनाने की कोशिश कर रही है. उस वक़्त गोगोई प्रधान न्यायाधीश नहीं थे, बल्कि जस्टिस दीपक मिश्रा सीजेआई की भूमिका निभा रहे थे.
दीपक मिश्रा की भूमिका पर भी तब कई सवाल उठे थे. जब दीपक मिश्रा सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हो रहे थे तो बार काउंसिल ने एक प्रस्ताव पारित कर उनसे ये अपील की थी कि वे रिटायरमेंट के बाद सरकार का कोई भी पद स्वीकार नहीं करें. बार काउंसिल की ये अपील ठीक उस वक़्त आई थी जब गोगोई सीजेआई का पद संभालने वाले थे.
दिलचस्प ये है कि ख़ुद रंजन गोगोई निजी तौर पर ‘पोस्ट-रिटायरमेंट नौकरियों’ को लेकर बेहद तल्ख़ टिप्पणी कर चुके हैं, लेकिन जब अपनी बारी आई तो वे एक भी आलोचना को सुनने के लिए तैयार नहीं दिख रहे हैं.
जस्टिस गोगोई ने कभी कहा था कि रिटायरमेंट के बाद जजों द्वारा कोई पद लेना न्यायपालिका की स्वतंत्रता के विचार पर बदनुमा दाग़ है. यह बात उन्होंने 2018 में पांच जजों की पीठ के मुखिया के तौर पर कही थी. उस वक़्त वो पांच सदस्यीय संवैधानिक खंडपीठ की अगुवाई कर रहे थे.
न्यायिक ट्रिब्यूनल से जुड़ीं 18 याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान उन्होंने कहा था, “एक नज़रिया ये है कि रियाटरमेंट के बाद की नियुक्तियां ख़ुद में न्यायिक स्वतंत्रता पर एक धब्बा है. आप इसे कैसे निभाएंगे?” इसके वाक्य के बाद उन्होंने इस नज़रिए से लगभग सहमति जताते हुए कहा था, “ये एक बेहद मज़बूत और वैध दलील है.”
दो साल पहले मार्च के इसी महीने में गोगोई ने ये टिप्पणी की थी और उससे ठीक दो महीने पहले उन्होंने वो ऐतिहासिक प्रेंस कॉन्फ्रेंस बुलाई थी, जिसके बाद लगा था कि देश की न्यायपालिका सरकार के दबाव के आगे घुटने नहीं टेकने वाली. पोस्ट रियाटरमेंट नौकरियों को लेकर उस प्रेंस कॉन्फ्रेंस में शामिल बाक़ी तीन जजों का रुख़ इस वक़्त रंजन गोगोई से बिल्कुल उलट दिख रहा है.
प्रेस कॉन्फ्रेंस की बातों को सुनकर ऐसा लग रहा है जैसे चार जजों में गोगोई बिल्कुल बेमेल होकर बैठ गए थे. ऐसा लगता है कि जैसे जस्टिस गोगोई को अपनी ही बात भूल जाने की आदत हो गई है. उसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में बैठे जस्टिस कुरियन जोसेफ़ ने रिटायरमेंट के अगले दिन ही कहा था कि नौकरी के बाद सरकार द्वारा कोई पद बतौर ‘ख़ैरात’ दिया जाता है, इसलिए जजों को यह नहीं लेना चाहिए. अब तक उन्होंने अपनी इस बात से समझौता नहीं किया है.
उन्होंने कहा था, “जब तक सरकार यह समझती हो कि रिटायर्ड जजों को पद देकर उन पर मेहरबानी कर रहे हैं, तब तक किसी जज को यह स्वीकार नहीं करना चाहिए. अगर किसी जज को आदरपूर्वक बुलाया जाए, आग्रह किया जाए और पूरी प्रक्रिया सम्मानपूर्वक निभाई जाए तो स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है, क्योंकि कई ट्रिब्यूनल ऐसे हैं जिनमें जजों को रखना अनिवार्य होता है.”
जस्टिस जे. चेलमेश्वर ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की थी कि वह रिटायरमेंट के बाद सरकार द्वारा दिया जाने वाला कोई पद स्वीकार नहीं करेंगे. जस्टिस लोकुर का रुख भी रिटायरमेंट के बाद कोई पद स्वीकार करने के ख़िलाफ़ ही रहा है. जस्टिस गोगोई के राज्यसभा के लिए मनोनयन पर उन्होंने सवाल किया है कि क्या आखिरी क़िला भी ढह गया है?
ऐसे में कथनी और करनी में सबसे बड़ा फर्क जस्टिस रंजन गोगोई में ही दिखा है. गोगोई अपनी ही बात से मुकरने के बाद अब खुलकर राज्यसभा की शपथ लेने की बात कर रहे हैं. रिटायरमेंट से कुछ वक़्त पहले जब उन पर यौन शोषण के आरोप लगे थे तो उन्होंने इस मामले पर आपात सुनवाई की थी. तब उन्होंने कहा था कि उनके पास जो हैं वह बस इज़्ज़त ही है. पैसा तो उनके चपरासी के पास उनसे ज़्यादा हो सकता है.
इसे उन्होंने एक जज के तौर पर अपनी स्वतंत्रता का सबूत भी बताया था. इन-हाउस कमेटी की जांच में उन्हें इस आरोप से बरी कर दिया गया था और 17 नवंबर, 2019 को वह रिटायर भी हो गए थे. लेकिन, बस चार महीने बाद 16 मार्च, 2020 को उन्हें केटीएस तुलसी की जगह राज्यसभा सांसद मनोनीत करने का आदेश जारी हुआ.
मोदी सरकार के रवैये के ख़िलाफ़ प्रेस कॉन्फ्रेंस करने से लेकर मुख्य न्यायाधीश पद से रिटायर होने के बीच में ऐसा क्या बदला कि अब उसी सरकार के उस ऑफ़र को उन्होंने मंजूरी दे दी, जिसके ख़िलाफ़ वो ख़ुद अदालत में टिप्पणी कर चुके हैं? क्या न्यायिक स्वतंत्रता कमज़ोर हुई है? क्या इसको कमज़ोर करने में जस्टिस गोगोई का हाथ है? ये ऐसे सवाल हैं जो गोगोई का ज़िंदगी भर पीछा नहीं छोड़ने वाले.