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राजनीति

दिल्ली के मजदूर बोले 12 घंटे खटने पर मिलते हैं मात्र 5 से 6 हजार : न्यूनतम मजदूरी का सच

Prema Negi
17 Jan 2020 2:47 AM GMT
दिल्ली के मजदूर बोले 12 घंटे खटने पर मिलते हैं मात्र 5 से 6 हजार : न्यूनतम मजदूरी का सच
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जनज्वार टीम से मजदूरों ने किया अपने दुखों को साझा, कहा दुनिया में सब तरक्की करते हैं पर हम न जाने क्यों सारी उम्र रह जाते हैं मजदूर, मजबूरन जीने के लिए करते हैं हम काम...

बवाना और नरेला में मजदूरों के बीच से विवेक राय और विकास राणा की ग्राउंड रिपोर्ट

जनज्वार। दिल्ली विधानसभा चुनाव की चुनावी कवरेज में जनज्वार टीम उत्तरी-पश्चिमी दिल्ली के बवाना विधानसभा इलाके में पहुंची, एक तरफ जहाँ बवाना में 73000 वोटर हैं वही इन वोटरों में एक बड़ी संख्या मजदूरों की भी है। असंगठित क्षेत्र के चुनावी मुद्दों में इस बार का मुख्य मुद्दा है “न्यूनतम मजदूरी”।

वाना एक इंडस्ट्रियल इलाका है, यहाँ स्थित हजारों फैक्ट्रियों में, लाखों कुशल, अकशुल मजदूर कार्यरत हैं। न्यूनतम मजदूरी और मजदूरों से जुड़े अन्य सरकारी दावों की ज़मीनी हकीकत मजदूरों ने ही बयान की।

25 वर्ष के गोपाल की तीन उंगलियाँ कारखाने में काम करते हुए कट गईं। मालिक से जब गोपाल ने कहा कि उन्हें फैक्ट्री एक्ट के तहत इलाज और मुआवजा मिलना चाहिए, तो मालिक ने खानापूर्ति करके एक महीने में गोपाल को काम छोड़ने पर मजबूर करने की परिस्थितियाँ पैदा कर दीं। कारखाने में काम छो कर गोपाल ने पल्लेदारी करना शुरू कर दिया। पल्लेदारी में एक टन माल ढोने का मात्र 100 रुपया मिलता है, जिसे बढ़ाकर 150 रुपये किये जाने की मांग गोपाल और उन जैसे सभी पल्लेदारों की है।

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गोपाल की ही तरह आशु भी पल्लेदार हैं। आशु कहते हैं, 'चाहे तीसरा माला हो या दूसरा माला, हमें तो सामान ढोना ही है, पर पैसे तो वाजिब मिलें।। आज जवान हैं तो ढो लेंगे, कल ढोने लायक नहीं रहेंगे तो कैसे जियेंगे, यह जो कमर है न, टूट जाती है और रात को बिस्तर पर जाता हूँ तो लगता है सब निचोड़ लिया है देह में से किसी ने। यहाँ आदमी ख़त्म हो जाता है काम का बोझ है बहुत। आप कितना मर्ज़ी कैमरा में दिखा दो, होगा कुछ नहीं।'

भीड़ को चीरता हुआ एक तेजतर्रार लड़का जिसका नाम अरविन्द था जनज्वार के माइक को जबरन पकड़ कर खड़ा हो गया। अरविन्द कहता है, न्यूनतम वेतन की क्या बात कर रहे हैं आप, यहाँ हर साल में होने वाला अगर इन्क्रीमेंट मांग लें न तो मालिक कह देता है अपना पूरा हिसाब कर ले और निकल यहाँ से, तेरे जैसे भूखे नंगे बहुत घूम रहे हैं इस दुनिया में।

रविन्द आगे कहता है, लेबर इंस्पेक्टर कभी चेकिंग पर आ जाये तो मालिक सबसे पहले लेबर को कहीं छुपाने की कोशिश करता है। अगर कहीं पकड़ा जाए तो इंस्पेक्टर कौन सा भगवान है, उसे पैसे दे कर वापस भेज देते हैं। इतनी नाइंसाफी हम गरीबों के साथ ही इसलिए है, क्योंकि हममे एकता नहीं है। कोई वहाँ का है कोई कहीं यहाँ का है पर कोई एक साथ नहीं है।

वेतन मिलता है आपको, सवाल पर 23 वर्षीय मजदूर बंटी कहता है 6 हज़ार। बंटी दाना (प्लास्टिक) फैक्ट्री में मजदूरी करते हैं और पिछले चार साल से काम कर रहे हैं। दिल्ली सरकार द्वारा लागू न्यूनतम मजदूरी के बारे में बंटी ने कभी सुना भी नहीं है। बस इतना जानते हैं कि साल में कुछ तनख्वाह बढ़नी चाहिए सो वो अब तक नहीं बढ़ी। हाँ यह ज़रूर होता है कि हमे पैसे देकर साइन कराने का रजिस्टर अलग है और सरकार को दिखाने का अलग रजिस्टर बना लेता है मालिक। हमारी आवाज़ कहीं पहुंचती ही नहीं।

बेकरी में काम करने वाले शादाब की गिनती उस्ताद में होती है, उस्ताद का अर्थ है कुशल मजदूर। 21 वर्ष के अनुभव के बाद शादाब बिस्कुट बनाने के लिए कच्चे माल को तैयार करने से लेकर उसके पैक होने तक का हर काम बड़ी ही बारीकी से देखते हैं। एक नज़र में कहाँ कमी रह गई पहचान जाते हैं। खाने वाला कमी निकाल सके या न निकाल सके शादाब निकाल देंगे।

सी कुशलता को दिल्ली के केजरीवाल ने न्यूनतम वेतन के नाम पर 16 हज़ार रुपए तक देने का वादा किया था। चुनाव आ गए हैं और शादाब जैसे दसियों उस्तादों ने बताया कि एक रुपया भी नहीं बढ़ा है। इतने सालों में मात्र 11000 रुपये ही मिलते हैं। कोई भी सरकार आये हमे नहीं मिलता कुछ।

बेकरी में बतौर मैनेजर कार्यरत 28 वर्षीय गौरव ने बताया कि सरकार द्वारा तय किया न्यूनतम वेतन वह अपनी सभी कामगारों को देते हैं। कितना वेतन देते हैं? के सवाल पर गौरव ने बताया पांच हज़ार से लेकर सात हज़ार तक, और जो कुशल पुराना है उसे दस या बारह हज़ार भी। पर यह तो सरकार द्वारा तय न्यूनतम वेतन का आधा भी नहीं है, गौरव ने माना कि उन्हें इसकी जानकारी नहीं कि न्यूनतम वेतन कितना है, पर मालिक नहीं देता तो अब मैं क्या कर सकता हूँ।

मुफ्त में देने से क्या होगा, इतनी गन्दगी फैला रखी है हमारे मेट्रो विहार में इस केजरीवाल ने। तीन औरतों के एक गुट से आवाज़ आई। गोरखपुर की रहने वाली शीला कहती है, सफाई वाले गन्दगी नाली से बाहर निकाल कर रख देते हैं और हमें खुद साफ़ करना पड़ता है। न तो बस्ती तक पहुँचने की सड़क है और न ही साफ़-सफाई, न्यूनतम मजदूरी का जो झूठ है वह तो है ही। शीला कहती है, केजरीवाल को पांच साल दे दिए पर अबकी बार बतौर मुख्यमंत्री वह मनोज तिवारी को चुनेंगी, क्योंकि वह पूर्वांचल के हैं।

की 35 वर्षीय साथी मजदूर मंजू को भी आठ घंटे काम के बदले मासिक वेतन 5 हज़ार रुपये ही मिलता है। मौजूदा सरकार में अविश्वास जताते हुए मंजू ने बताया कि यह मेट्रो विहार मजदूर बस्ती, झुग्गी की जगह मकान के तहत कांग्रेस सरकार ने दी है। आज बेशक कांग्रेस राजनीतिक रूप से कमज़ोर पड़ गई है, पर असल मुद्दे तो वही सुलझाती थी। हर बार की तरह इस बार भी मंजू कांग्रेस को अपना मत देना चाहती हैं बेशक वो हारे या जीते।

जीवन के 62 बसंत देख चुके रामभगत 80 के दिखने लगे हैं। रामभगत मुश्किल से शब्दों का साफ़ उच्चारण कर पाते हैं, पर एक नज़र में जाना जा सकता था कि शिक्षा का असर उनकी भाषा में बना हुआ है। सरकारों को कोसते हुए इतना ही बता सके कि उनको मात्र 7000 रुपये मिलते हैं।

पने आंसुओं को थामने की नाकाम कोशिश करते हुए कहते हैं, दुनिया में सब तरक्की करते हैं पर न जाने कैसे एक मजदूर सारी उम्र मजदूर ही रह जाता है। सब कहते हैं मेहनत करने वाला तरक्की करता है, आप बताओ आप लोग तो बड़े लोग हैं क्या हमसे ज्यादा मेहनत करते हो आप? क्या आप मुझ बूढ़े से मुकाबला कर सकते हो मेहनत करने में?

आंसुओं को पोंछते और हथेली की लकीरों को दिखाते हुए रामभगत ने कहा इन गांठों को पड़े न जाने कितने साल हुए, पर मेरा एक भी बच्चा पढ़ नहीं सका। दो बच्चों में एक बीमारी से मर गया दूसरे ने बेरोज़गारी से तंग आकर आत्महत्या की। गरीब को न इलाज मिलता है, न शिक्षा न मजदूरी और न न्याय, मजबूरन जीने के लिए काम कर रहा हूँ। इतना कहने के बाद रामभगत हमारी आँखों में शर्मिंदगी देकर अपने आंसुओं को ज़मीन पर गीराते और बुदबुदाते हुए चले गए।

माम शिकायतों के बावजूद अधिकतर मजदूर आगामी दिल्ली विधानसभा में केजरीवाल को मुख्यमंत्री के तौर पर देखना पसंद कर रहे हैं। इसके साथ यह भी सच है कि बवाना और नरेला में बसी जेजे कालोनी में कांग्रेस का असर भाजपा के साथ मिलाजुला दिख रहा है। मजदूरों के रूझान को देख चुनावी सफ़र में आम आदमी पार्टी की बढ़त बेशक दिख रही हो, पर बवाना इलाके में कड़ी टक्कर मिलने के संकेत दिख रहे हैं।

देश में चुनाव आना-जाना लगा रहेगा और लगा भी है, कोई जीत भी जाएगा। रामभगत के सवालों के जवाब शायद ही कोई नेता या राजनीतिक दल दे सकता है या देना चाहता होगा। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं, यह विडम्बना ही है कि लोकतंत्र मात्र चुनाव जीतने तक ही सीमित रह गया है। अपने चुनावी प्रचार में वोटर को न्यूनतम मजदूरी का झूठ फैलने वाले केजरीवाल से शिकायत करने वाले मजदूर शिकायतों से इतने थक गए हैं कि अब मजदूर होने को ही अपनी नीयती मानकर वोट डाल देते हैं। केजरीवाल की वादाखिलाफी के बाद भी बेशक मजदूरों का उनसे मोहभंग होता नहीं दिख रहा। उम्मीद है केजरीवाल चुनाव जीतने और हारने से निकल कर ज़मीनी कार्यवाही करेंगे।

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