'लिपिस्टिक अंडर माई बुर्क़ा' को समझने के लिए जिगरा चाहिए
बुर्का़ बुर्का़ नहीं है समाज द्वारा स्त्री की यौनिकता पर डाला गया वह काला लबादा है जिसके अंदर स्त्री की इच्छाएं, सपने दब रहे हैं, कराह रहे हैं...
अमृता ठाकुर
कई लोग इस फिल्म को देखकर कुछ ऐसे कमेंट कर रहे हैं कि जैसे इस फिल्म में किसी ख़ास धर्म की महिलाओं की समस्याओं या जीवन को ही सम्बोधित किया गया है।
मैं उसे उनकी संकीर्ण सोच ही मानूंगी या उनकी समझ पर अफसोस ही ज़ाहिर कर सकती हूं।
इसमें कोई दो राय नहीं की यह एक बोल्ड फिल्म है। हालांकि काफी कट के बाद यह हम तक पहुंची है। काश यह बिना कट के हम तक पहुंचती तो हमारी सोच को और ज्यादा होंट करती।
सबसे पहली बात कि बुर्का़ शब्द का इस्तेमाल किसी ख़ास समुदाय की सोच को चिन्हित करने के लिए नहीं किया गया है, बल्कि बुर्का़ समाज द्वारा आरोपित उस लुकाव छुपाव का प्रतीक है जिसके अंदर स्त्री की यौनिकता को दफन कर दिया जाता है।
इस फिल्म में सभी धर्म की और सभी आयु वर्ग की औरतें हैं। धर्म चाहे कोई भी हो, वह पितृसत्तात्मक समाज द्वारा ही गढ़ा गया है, जो स्त्री को बिल्कुल स्पेस नहीं देता है। स्त्री की यौनिकता पर पितृसत्तात्मक समाज ने हमेशा से अंकुश लगाया है ताकि उसका अपना वज़ूद बना रहे।
इस फिल्म में इन अंकुशों के विभिन्न रूपों को हम देखते हैं।
और इसमें बात केवल यौनिकता की ही नहीं है स्त्री के सपनों की, उड़ान की और यहां तक की मेरिटल रेप तक की है। एक स्त्री की भी यौनिक जरूरतें होती हैं, समाज यह स्वीकार करने को तैयार नहीं है।
स्त्री को मजबूर किया जाता कि वे अपनी इस जरूरतों को दबा कर कुचल दे, तभी वह एक अच्छी, चरित्रवान स्त्री का दर्जा पा सकेगी। अगर उसने अपनी जरूरतों को जा़हिर किया तो समाज उसे गंदे नाले में परिवर्तित कर देता है, जिसमें सभी पुरुष अपनी गंदगी विसर्जित कर सकें।
जब तक स्त्री दूसरों के लिए जीती है हाथोंहाथ ली जाती है जैसे ही वह अपनी खुशी के बारे में सोचती है, समाज उसे ठिकाने लगाने की फिराक में लग जाता है। पुरुष दस संबंध बनाए फर्क नहीं पड़ता है, लेकिन एक स्त्री संबंध की तो बात दूर है अपने जीवन या सपनों के बारे में भी सोचती है तो कहा जाने लगता है कि ‘बीवी हो बीवी बनकर रहो शौहर बनने की कोशिश मत करो।’
बीवी यानी पति की शारीरिक जरूरतों को पूरा करने वाली मशीन। पति का प्रेम, नाराज़गी सब सैक्स के माध्यम से ही ज़ाहिर होता है। कुछ वैसे ही जैसे गुस्से में लोग तकिए का पीटकर अपना गुस्सा निकालते हैं। फिल्म में प्रतीकात्मक दृश्य बहुत अच्छे बने हैं, उन्हें ठहरकर समझना अच्छा लगता है।
ख़ासतौर पर वह दृश्य मुझे बहुत आकर्षित किया जहां माॅल में एस्कलेटर पर पैर रखने से झिझकती अधेड़ बुआ जी को स्कूल की बच्चियां अपना हाथ बढ़ाकर साथ ले जाती हैं। आज स्त्री की सभी पीढियों को साथ मिलकर चलने की जरूरत है, स्त्री की नई पीढ़ी, पुरानी पीढ़ी की ओर हाथ बढा रही है, सभी बंधन, डर झिझक को तोड़ आगे बढ़ने के लिए।
बुर्का़ बुर्का़ नहीं है समाज द्वारा स्त्री की यौनिकता पर डाला गया वह काला लबादा है जिसके अंदर स्त्री की इच्छाएं, सपने दब रहे है, कराह रहे हैं। लेकिन स्त्री ने हिम्मत नहीं हारी है, वह खु़द से प्रेम भी कर रही है। एक अच्छी फिल्म है।
(स्वतंत्र पत्रकार अमृता ठाकुर पिछले दो दशकों से पत्रकारिता में हैं। वह कई पत्र—पत्रिकाओं में काम कर चुकी हैं।)