दलीय और निर्दलीय उम्मीदवारों के अधिकारों में इतना अंतर क्यों, क्या यह समता के अधिकारों का हनन नहीं
अधिकतर उच्च न्यायालयों के बार और बेंच दोनों में ही सशक्त सामंती पृष्ठभूमि वाले लोगों का वर्चस्व है। जातिगत प्रतिनिधित्व की ऐसी स्थिति है कि उच्च एवं सर्वोच्च न्यायपालिका में दलित एवं पिछड़ी जातियों की उपस्थिति न के बराबर है...
राकेश कुमार गुप्ता, अधिवक्ता
लोकतंत्र और मानवाधिकार में अन्योनाश्रित संबंध है। एक सच्चा लोकतंत्र ही मानवाधिकार की रक्षा कर सकता है या दूसरे शब्दों में कहा जाय तो जिस समाज में मानवाधिकार सुरक्षित नहीं हैं वह एक लोकतान्त्रिक समाज कदापि नहीं हो सकता है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय को भारतीय संविधान का संरक्षक माना गया है। यदि स्वतंत्र भारत का धर्म लोकतंत्र है, तो संविधान उसका सर्वश्रेष्ठ धर्मग्रन्थ है। इस संविधान का स्रोत ‘हम भारत के लोग’ में निहित है। इस अर्थ में भारतीय लोकतंत्र का मूल ‘हम भारत के लोग’ में निहित है।
यह एक विचित्र विडम्बना है कि यह ‘हम भारत के लोग’ यानी कि सामान्यजन लोकतंत्र की पूरी प्रक्रिया और क्रिया-व्यापार से करीब-करीब विस्थापित हैं। यह लोकतंत्र उसका विमर्श नहीं बन पाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो भारत की संविधान सभा ने ‘हम भारत के लोग’ की ओर से 26 जनवरी सन 1949 को भारतीय संविधान को अंगीकार किया तथा 26 जनवरी सन 1950 को लागू किया गया।
हमारा संविधान हमारे लिए लोकतंत्र एवं मानवाधिकार को सैद्धांतिक रूप से स्वीकृति प्रदान करता है, मगर संविधान निर्माण की पूरी प्रक्रिया एवं तत्पश्चात लोकतंत्र को लागू करने की पूरी प्रक्रिया से सामान्य जन करीब-करीब बाहर ही रहा। भारत का लोकतंत्र सामान्य जन के लिए प्रदत्त लोकतंत्र ही है। इसी प्रदत्त लोकतंत्र को अर्जित लोकतंत्र में बदलने की आवश्यकता है।
प्रदत्त लोकतंत्र को अर्जित लोकतंत्र में बदलने एवं मानवाधिकार को सुनिश्चित करने में न्यायपालिका की अनिवार्य भूमिका है, परन्तु ऐसे अनेक कारण हैं जो न्यायपालिका की भूमिका को अत्यन्त सीमित कर देते हैं। कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायपालिका न्यायसंगत समाज की स्थापना के अपने नैतिक लक्ष्य से भटक कर सिर्फ विधिसंगतता की कसौटी पर ही न्याय को कसने का प्रयास करती है। ऐसी परिस्थिति में वह सिर्फ राजसत्ता का एक उपकरण मात्र होकर रह जाती है।
विधि का शासन तो भारत की औपनिवेशिक सत्ता ने ही सुनिश्चित कर दिया था, परन्तु इस स्वतंत्र, संप्रभु और लोकतांत्रिक देश में हम एक न्याय के शासन (न्यायसंगत समाज) की अपेक्षा करते हैं।
भारत में सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय ही है जो स्वतंत्र भारत का परिणाम है, परन्तु इसके गठन का स्रोत उच्च न्यायालयों के न्यायमूर्तियो में निहित है। अधिकतर उच्च न्यायालयों के बार और बेंच दोनों में ही सशक्त सामंती पृष्ठभूमि वाले लोगों का वर्चस्व है। जातिगत प्रतिनिधित्व की ऐसी स्थिति है कि उच्च एवं सर्वोच्च न्यायपालिका में दलित एवं पिछड़ी जातियों की उपस्थिति न के बराबर है। उसमें भी ज्यादातर इस देश के कुछ ही परिवारों का उच्च एवं सर्वोच्च न्यायपालिका में वर्चस्व है।
ऐसे में भारत का न्याय बहुधा वह है जो और जैसा भारत के द्विज और समृद्धिशाली वर्ग द्वारा आत्मसात और व्याख्यायित किया जाता है। यह अनायास नहीं है कि इलाहाबाद में कुम्भ मेले के दौरान 6 फरवरी 2013 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अधिवक्ताओं के एक समूह के आमंत्रण पर आये एक महामंडलेश्वर ने बार लाइब्रेरी के सेंट्रल टेबल पर अपना आसन लगा कर दो घोषणाए कीं :
— ऐसी संहिता या शास्त्र जिसमे कि बार-बार परिवर्तन की आवश्यकता पड़ती हो, उससे समाज संचालन नहीं किया जा सकता। चूँकि भारत के संविधान में अब तक सौ से अधिक संशोधन हुए हैं, अतः वह कूड़ा है, व्यर्थ है।
—मनु स्मृति अपने रचना काल से अब तक अपरिवर्तनीय रही है, अतः यही वह सर्वश्रेष्ठ संहिता या शास्त्र है जिससे कि भारतीय समाज का संचालन किया जाना चाहिए।
महामंडलेश्वर के उपरोक्त उदबोधन के उपरांत उत्तर प्रदेश के वर्तमान महाधिवक्ता, तत्कालीन अध्यक्ष, मंत्री सहित बार के कई वरिष्ठतम सदस्यों सहित कई अधिवक्ताओं ने उनके चरणों में अपना सर रखकर उनके 'ईश्वरीय' वचनों के प्रति अपना समर्थन और सम्मान प्रकट किया। वस्तुतः भारतीय न्यायपालिका में बहुलांश की यही समझ और संवेदना है।
हर व्यक्ति अपनी समझ और संवेदना से ही प्रस्थान कर पाता है, चाहे वह न्यायमूर्ति ही क्यों न हो। यह अनायास नहीं है कि अयोध्या मामले की सुनवाई हेतु उच्च न्यायालय इलाहाबाद एवं सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तीन न्यायमूर्तियों की खंडपीठ में अनिवार्यतः एक ‘मुस्लिम’ समुदाय से सम्बन्ध रखने वाले न्यायमूर्ति को रखा गया है। न्यायमूर्ति कब से हिन्दू या मुसलमान होने लगे? यदि ऐसा है तो द्विज और शूद्र या दलित क्यों नहीं?
उपरोक्त कारणों से न्यायपालिका के लिए लोकतंत्र और मानवाधिकार संरक्षण का मामला एक तकनीकी जिम्मेदारी जैसा हो जाता है, जबकि यह किसी भी व्यक्ति या समाज के लिए संस्कृति और मूल्य का मामला है जिसमें वह ओतप्रोत हो। लोकतंत्र और मानवाधिकार मूलतः संस्कृति और मूल्य का मामला है और उसे तकनीकी ढंग से हल नहीं किया जा सकता।
पिछले वर्षों में सूचना का अधिकार लोकतंत्र एवं मानवाधिकार के लक्ष्य को प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण उपादान बना है, लेकिन सूचना के अधिकार के प्रति न्यायपालिका का रवैया अत्यंत निराशाजनक है। न्यायपालिका का एक बड़ा हिस्सा अपनी समस्त शक्ति इस बात में लगा दे रहा है कि कैसे सूचना के अधिकार कानून को निष्प्रभावी बनाया जाय।
ऐसे में समाज में लोकतंत्र और मानवाधिकार को सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है कि लोकतंत्र के तीनो स्तम्भों सहित जनसामान्य के सांस्कृतिकरण का कार्य हाथ में लिया जाय तथा अपने समाज के मूल धर्मं के रूप में लोकतंत्र को स्थापित किया जाय।
(राकेश कुमार गुप्ता इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकील और जनज्वार के विधि सलाहकार हैं।)