महागठबंधन हुआ नहीं लेकिन अभी से मंडराने लगीं अनिश्चितताएं
अब मुलायम सिंह यादव शायद ही सार्वजनिक मंच पर दिखाई दें, तब अचानक समाजवादी पार्टी की 'साइकिल यात्रा’ के समापन अवसर पर उनका अखिलेश यादव के साथ खड़े होना सवाल पैदा करता है...
कल दिल्ली में सपा की साईकिल यात्रा के समापन पर स्वतंत्र पत्रकार हरे राम मिश्र का विश्लेषण
जनज्वार। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा समाजवादी पार्टी पर निर्णायक कब्जा कर लिए जाने के बाद, गुमनामी में जी रहे मुलायम सिंह यादव का दिल्ली के जंतर-मंतर पर अखिलेश यादव के साथ एक बार फिर से सपा के मंच पर आना विस्मयकारी है।
जब आने वाले कुछ ही महीनों में लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं और राजनीतिक हलकों में यह मान लिया गया था कि अब मुलायम सिंह यादव शायद ही सार्वजनिक मंच पर दिखाई दें, तब अचानक समाजवादी पार्टी की 'साइकिल यात्रा’ के समापन अवसर पर उनका अखिलेश यादव के साथ खड़े होना सवाल पैदा करता है।
मंच साझा करने की असल वजहों की पड़ताल तब और जरूरी हो जाती है जब उनके भाई शिवपाल यादव ने सपा से नाता तोड़कर अपनी राहें अलग कर ली हैं और पूरे प्रदेश में अपने नव निर्मित समाजवादी सेक्यूलर मोर्चे से लोकसभा का आगामी चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं।
हालांकि पहले ऐसी खबरें थीं कि शिवपाल का साथ मुलायम सिंह यादव दे सकते हैं, लेकिन अखिलेश यादव के साथ मंच साझा करने के बाद, इस तरह के सारे कयास खत्म हो गए। फ़िलहाल अब सारी चर्चा इस बात पर केन्द्रित है कि सपा के पूर्व सुप्रीमो किसका राजनीतिक फायदा कराने के लिए फिर से सक्रिय हुए हैं?
सवाल यह भी है कि क्या उनका एक बार फिर से सक्रिय होना समाजवादी पार्टी के उन कार्यकर्ताओं के लिए संजीवनी साबित होगा जो परिवार के इस आपसी झगड़े के कारण एक भ्रम की स्थिति में हैं?
हालांकि कई लोग सशंकित हैं कि मुलायम सिंह यादव का अखिलेश यादव के गुट में शामिल हो जाने के बाद शिवपाल यादव के मोर्चे का क्या होगा? इस बारे में हमें यह समझना होगा कि शिवपाल यादव जिस उद्देश्य के साथ चुनाव मैदान में हैं वह अपना काम बखूबी करेंगे। वह भाजपा के खिलाफ जाने वाले ओबीसी ’यादव’ वोट बांट देंगे और बीजेपी के लिए यह बहुत राहत की बात होगी।
लेकिन इस चुनाव के बाद इस मोर्चे का भविष्य क्या होगा? क्या बीजेपी शिवपाल यादव को इस चुनावी मदद के लिए कोई उपहार देगी या फिर शिवपाल यादव गुमनामी के गर्त में खो जाएंगे? यह सब भविष्य की बातें हैं और इसका जवाब फिलहाल वक्त के पाले में डाल देना चाहिए।
खैर, असल सवाल यह है कि क्या मुलायम सिंह यादव सपा पर लोकसभा चुनाव के मद्देनजर आए राजनीतिक संकट से उसे उबारने आए हैं। या फिर उन्हें किसी खास मकसद के तहत समाजवादी पार्टी के मंच पर भेजा गया है? यह सवाल इसलिए भी बहुत मौजूं है क्योंकि समाजवादी पार्टी अब ’ओबीसी’ जातियों की प्रतिनिधि न होकर केवल ’यादवों’ की पार्टी में तब्दील हो गई है।
यह अखिलेश यादव की भयंकर असफलता और सपा के लिए खतरे की घंटी है। उनकी पार्टी लगातार कमजोर हो रही है। तब क्या यह माना जाए कि मुलायम सिंह यादव सभी ओबीसी और गैर यादवों को एकबार फिर एकजुट करने आए हैं, ताकि इस जातीय गोलबंदी के साथ मुसलमानों को फिर से जोड़ा जा सके और कांग्रेस की तरफ बढ़ रहे उनके रुझान को रोका जा सके?
लेकिन भाजपा ने अन्य यादव ओबीसी जातियों के बीच अस्मिता और जाति की राजनीति के प्रयोग से नए नेता पैदा कर दिए हैं जिन्होंने समाजवादी पार्टी की जमीन को खिसका दिया है। ऐसे संकट के दौर में क्या मुलायम सिंह यादव की वापसी से गैर यादव ओबीसी के बीच समाजवादी पार्टी अपनी खोई प्रतिष्ठा पुनः पा सकेगी?
सियासत के समझदार कहते हैं कि मुलायम सिंह यादव इस समय सपा के भविष्य को लेकर उतने चिंतित नहीं हैं। वह उत्तर प्रदेश में बीजेपी का काम बनाने आए हैं। इसलिए मुलायम सिंह यादव का अखिलेश यादव के साथ मंच साझा किया जाना पिता-पुत्र के बीच महज हितचिंतन की भावुकता में घटी एक सामान्य घटना भर नहीं है। इसके गहरे निहितार्थ हैं, अन्यथा अखिलेश से इतना अपमानित होने के बावजूद मुलायम सिंह वापस लौटने वाले नेता नहीं हैं।
दरअसल, आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में मोदी सरकार के खिलाफ विरोधी दलों के एक महागठंधन का प्रयास कर रही है। उसके इस प्रयास में कई क्षेत्रीय दल भी सकारात्मक दिख रहे हैं। अखिलेश यादव भी कई अवसरों पर महागठबंधन को लेकर बयान दे चुके हैं और वह कांग्रेस से समझौते के विचार में भी हैं।
महागठबंधन सिर्फ कांग्रेस के लिए जरूरी नहीं है बल्कि अखिलेश यादव के ’सर्वाइवल’ के लिए भी जरूरी है। अब अगर यूपी में ऐसा कोई गठबंधन होता है तब भाजपा का सरदर्द बढ़ जाएगा। ऐसे में वह यही चाहेगी कि महागठबन्धन किसी भी कीमत पर जमीन पर कोई आकार नहीं लेने पाए।
ऐसे में मुलायम सिंह यादव अपने पूरे रोल में इस महागठबंधन के खिलाफ खड़े होंगे। वजह चाहे सीबीआई हो या फिर कुछ और। हम बिहार विधानसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव के उस संदिग्ध रोल को नहीं भुला सकते जब उन्होंने महागठबन्धन के मंच से ही बीजेपी के चुनाव जीतने की भविष्यवाणी कर दी थी।
उसके बाद महागठबंधन से अलग होकर बीजेपी के लाभ के लिए बिहार में चुनाव भी लड़ा गया। उत्तर प्रदेश में महागठबंधन की संभावना को क्षीण करने के लिए मुलायम सिंह यादव एक बार फिर से सक्रिय हुए हैं, क्योंकि भाजपा की मदद करना मायावती की तरह उनकी भी मजबूरी है।
यूपी में मायावती महागठबंधन का हिस्सा नहीं होंगी। अगर सपा को वह महागठबंधन से बाहर कर पाए तो भाजपा विरोधी वोट बिखर जाएगा जो नरेन्द्र मोदी को बहुत राहत देगा। एक बात और है कि मुलायम सिंह कब पलटा मार जाएंगे वह खुद भी नहीं जानते हैं। यही उनकी काबिलियत है।
दरअसल इस पूरे खेल में अमित शाह परदे के पीछे से स्क्रिप्ट लिखकर मायावती और मुलायम सिंह दोनों को दे रहे हैं। मजबूरी मायावती और मुलायम सिंह यादव सरीखे नेताओं की है कि चाहते और न चाहते हुए भी उन्हे इस ’स्क्रिप्ट’ को फाॅलो करना है। इससे एक बात फिर साबित होती है कि मंडल की भ्रष्ट राजनीति वास्तव में कमंडल की मजबूती का स्वर्णिम दौर था, जो आज फासीवाद की बेशर्म सेवा के रूप में उसके सामने ही नंगा नाच रहा है।