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समाज

हाउस वाइफ : पति और बच्चों के तिरस्कार का मुकाबला मैंने अपने कामकाज से किया

Prema Negi
30 Oct 2019 11:10 PM GMT
हाउस वाइफ :  पति और बच्चों के तिरस्कार का मुकाबला मैंने अपने कामकाज से किया
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काफी दिनों बाद जनज्वार के चर्चित कॉलम रहे ‘हाउसवाइफ’ में एनसीआर के इंदिरापुरम की प्रौढ़ महिला विमलेश चौधरी (बदला हुआ नाम) अपने अनुभव साझा कर रही हैं। यह अनुभव उन्होंने प्रेमा नेगी से हुई एक बातचीत में साझा किया....

जिंदगी का चैप्टर कहां से शुरू, कहां खत्म कुछ समझ में नहीं आता। मात्र 14 साल की उम्र में कर दी गई थी मेरी शादी। घर में सबसे बड़ी थी तो मां-बाप को बोझ हल्का करना था। हालांकि मुझसे छोटे भाई-बहन, बड़े भाई सब अच्छी हैसियत वाले हैं, सिवाय मेरे जिसे जिंदगी ने ठोकरों के अलावा कुछ नहीं दिया। सबको अच्छी एजुकेशन, घर-बार मिला और ऊंची हैसियत भी।

16 साल की होते-होते एक बच्ची की मां बना दिया मुझे, मुझसे लगभग दोगुने की उम्र के पति ने। 'बहुत खूबसूरत हो तुम' सब यही कहते थे ससुराल-मायके में, सिवाय मेरे पति के, जिसे हर औरत-लड़की में सिर्फ उसका जिस्म नजर आता था। पति के औरतबाज होने का पता शादी के बाद तुरंत नहीं चल पाया, क्योंकि तब न इतनी अकल थी और न दुनियादारी की समझ, जो जिसने समझाया मान लेती थी। 20 साल की होते-होते मैं उस आदमी के 3 बच्चों की मां बन चुकी थी और अब दुनिया कुछ-कुछ समझ भी आने लगी थी।

जानवरों के सरकारी डॉक्टर मेरे पति की आज से 35 साल पहले भी कमाई हजारों में हुआ करती थी, जैसा वो जिंदगी में था, ठीक वैसा ही पेशे में भी था। कई तरह के घपले करना उसकी शगल में शामिल था। बच्चे बड़े हो रहे थे और उनकी जरूरतें भी, मगर पैदा करने के अलावा उस आदमी ने उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं निभायी, मेरे जिस्म का इस्तेमाल भी एक वेश्या की तरह ही किया उसने, क्योंकि पैर की जूती से ज्यादा तो कुछ उसने समझा नहीं मुझे।

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मायके में पहले तो अपनी कोई तकलीफ साझा नहीं की, मगर जब पानी सिर से ऊपर होने लगा तो पिता को बताया, क्योंकि मां तब तक दुनिया से विदा हो चुकी थीं। मगर दुनियादार पिता ने समझाया कि अब हमारे घर से नहीं उसी घर से तुम्हारा हर रिश्ता जुड़ा है, इसलिए हमारी इज्जत बचाकर वहीं रहो, फिर चाहे किसी भी हाल में रहना पड़े।

गर मेरे लिए वहां एक एक पल काटना और असहनीय होता जा रहा था जब मेरे पति ने घर में औरतों-लड़कियों को लाना शुरू कर दिया। मेरे बड़े होते बच्चों के सामने वह ऐसी अश्लील हरकतें करता कि मैं शर्म से गड़ जाती। तब एक ऐसे ही पल में निर्णय लिया कि मुझे इस आदमी के साथ नहीं रहना, फिर चाहे मगर ही क्यों न जाना पड़े। नजीबाबाद से अपने 3 बच्चों का हाथ पकड़कर नोएडा मैं बड़े भाई जोकि तब तक गार्मेंट का व्यवसाय करने लगे थे, उनके पास आ गयी। पिता की तरह बड़े भाई ने कटु बातें तो न कीं, मगर उस आदमी के पास लौटने को जरूर कहा। जब मैं अड़ गयी कि किसी भी तरह अपने बच्चों का गुजारा लोगों के घरों में झाड़ू-पोछा करके कर लूंगी, मगर वहां नहीं लौटूंगी।

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3 बच्चों को मैंने किस तरह पेट काटकर बड़ा किया है, इस तकलीफ को साझा नहीं कर सकती। मेरी एक बहिन दिल्ली पुलिस में है और छोटा भाई बिजली व्यवसायी, मगर उन दोनों ने कभी मेरी तरफ मुड़कर नहीं देखा। अब भी उन लोगों को मेरे साथ खड़े होने या बात करने में शर्म महसूस होती है, क्योंकि उनकी हैसियत बड़ी है और मैं एक पति की छोड़ी हुई या फिर कहें छोड़कर आयी हुई। बड़े भाई ने जरूर एक गार्मेंट कंपनी में काम पर लगा दिया था। पाई-पाई जोड़कर तीनों बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलायी। बेटी अब सरकारी स्कूल में शिक्षिका है, बेटा एक अच्छी मल्टीनेशनल कंपनी में लाखों का पैकेज लेता है और छोटे बेटे ने अपना व्यवसाय शुरू कर लिया है।

शुरू में तो बच्चे समझते थे, मगर जैसे ही शादियां हुईं, मां उनके लिए पराई हो गयी। अब एक बार मैं फिर से अकेली हूं। लाखों कमा रहे मेरे बच्चों के पास मुझे देने के लिए हजार रुपया महीना भी नहीं है। अपने खून-पसीने की कमाई से इंदिरापुरम में एक जनता फ्लैट खरीदा था, जिसमें मैं रहती हूं। छोटे दामाद ने इस शर्त पर साथ रखने की बात कही कि पहले घर उनके नाम कर दूं। मगर अब जिंदगी ने इतने थपेड़े दिये हैं कि बच्चों का यह व्यवहार भी बहुत नहीं खलता। अफसोस जरूर होता है कि मैंने अपने बुढ़ापे का सहारा नहीं बल्कि संपोले पाले, जो मां को ही खा जायें।

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छोटी बेटी की शादी के बाद जब रिश्तेदारों-नातेदारों द्वारा उलाहनाओं की इंतहा कर दी थी तो एक बार फिर गई थी उस आदमी के पास लौटकर, जो अब पंतनगर में एक कोठी बनाकर रहता है और लाखों कमाता है। मेरा वापस आना उसके अहंकार का जीतना था और उसने मुझे वार्निंग दी कि तुम्हें यहां दो वक्त की रोटी के सिवाय कुछ न मिलेगा, मैं कैसे जीता हूं, क्या करता हूं, मेरी आदतों पर तुम कोई सवाल नहीं उठाओगी, तभी यहां रह सकती हो।

जो औरत जिंदगी के 50 से ज्यादा बसंत संघर्षों के साथ बीता चुकी थी, वो भला उम्र के लगभग अंतिम पड़ाव पर उसकी क्या सुनती, लौट आई वहां से। सिंदूर इसलिए लगाती थी कि यह समाज मुझे जीने दे, बच्चों की जिम्मेदारी पूरी करने के बाद अब सिंदूर लगाना यानी सुहाग के सारे प्रतीक पहनने छोड़ दिये हैं।

जिन बच्चों के लिए इतना संघर्ष किया आज वो भी मेरे नहीं हैं। मैं अब अकेले रहती हूं। सुबह 7 बजे निकल जाती हूं काम पर और रात को 9 बजे घर पहुंचती हूं। दिल्ली के करावलनगर में बड़े भाई की गारमेंट शॉप पर काम करती हूं, जिससे इतना पैसा मिल जाता है कि मेरा गुजारा चल जाये। भाभी की अचानक हुई मौत के बाद कुछ दिन भाई के पास भी रही थी, मगर उनके बेटे के ब्याह के बाद वहां भी निबाह न हो पाया। उनकी बहू मुझसे घर का सारा काम करवाती, खाना बनवाती और मेरे बड़े भाई को ताने भी देती कि रिश्तेदारियों का ठेका ले रखा है तुमने, जिनके अपने बच्चे उन्हें नहीं पूछ रहे वो हमारे घर पर क्यों बैठी हैं। भाई भी अब लाचार हैं, वो कहते कुछ नहीं है, मगर उनकी आंखें सबकुछ बयां कर देती हैं। आखिर मैं वापस अपने घर इंदिरापुरम आ गयी वहां से, अब रोज नौकरी करने जाती हूं उनकी दुकान पर करावलनगर।

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भाई-भतीजों से क्या शिकवा करूं, जब वही मेरे अपने नहीं हुए, जिन्हें खून पिलाकर बड़ा किया। आखिर उसी आदमी का तो गंदा खून हैं वो सब, जिसने मेरी जिंदगी तबाह की। वो सब ऐश कर रहे हैं और मैं अभी तक छोटी बेटी की शादी पर किया गया कर्ज भर रही हूं। 5 साल से भी ज्यादा वक्त हो गया, जब कोई बच्चा होली-दीवाली पर मेरे पास नहीं आया, आना तो दूर कोई फोन करके हाल-चाल भी नहीं लेता। उल्टा यह जरूर सुनाते हैं कि 'मम्मी तुममें ही कोई कमी होगी नहीं तो हमारे पापा जिनका इतना बड़ी हैसियत-ओहदा है, वो हमें क्यों छोड़ते। आपने ही जरूर कुछ किया होगा। आखिर नाना-मामा भी आपको नहीं रख पाये, वो तो हम ही थे जो आपके साथ रहे इतने वक्त।'

च कहूं तो अब ​जीवन से विरक्ति हो गयी है। इंदिरापुरम में जिस कॉलोनी में रहती हूं, मेरा पास-पड़ोस इतना अच्छा है कि सबने घर से ज्यादा प्यार दिया। अपनों से तो नहीं मगर परायों ने भरपूर प्यार दिया है। अब चाहे जो हो, मैं ऐसे बच्चों के पास तो कभी नहीं जाउंगी जो मेरे संघर्ष का इस तरह माखौल उड़ाते हैं। मेरे एक कमरे का मकान जो मेरी हाड़तोड़ मेहनत का नतीजा है, चाहती हूं कभी इन बच्चों को न मिले। मरने से पहले किसी सामाजिक संस्था को दान कर जाऊंगी इसे। बाकी कुछ लोग इस ​दुनिया में आते ही कष्ट भोगने के लिए हैं, जिनमें से मैं भी एक हूं।

(आप भी अगर हाउस वाइफ कॉलम में लिखने की इच्छुक हैं तो हमें [email protected] पर मेल करें। जो महिलाएं टाइप नहीं कर सकतीं वह हमें हाथ से लिखकर और फिर फोटो खींचकर मेल कर सकती हैं।)

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