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सिर्फ झुग्गियां ही नहीं हर साल हजारो गरीबों की जिंदगी भी स्वाहा होती है दिल्ली में
झुग्गियां जलने के बाद शासन-प्रशासन दो-चार दिन खाना और दो-चार टेंट सप्ताह भर लगाकर अपने कार्यों को इतिश्री कर लेता है। आखिर कब तक दिल्ली में इस तरह से बस्तियां जलती रहेंगी, जिसमें लोगों की सालोंसाल की कमाई और अरमान हो जाते हैं जलकर खाक...
शाहबाद डेरी से सुनील कुमार की रिपोर्ट
गर्मी का मौसम शुरू होते ही आग लगने की घटनाओं में तेजी आ गई है। दिल्ली में लगातार हो रही घटनाओं में 24 जुलाई को दोपहर 11.30 बजे शाहबाद डेरी की बंगाली बस्ती से आग लगने की सूचना आई। इन पंक्तियों का लेखक वहां पर एक बंगाली बस्ती को पहले से जानता है, क्योंकि 18 मार्च, 2016 को झुग्गी में बदमाशों ने सुबह 4 बजे आग लगा दी थी। जब उन्होंने दुबारा झुग्गी डालने कि कोशिश की तो कुछ गुंडे आकर फायरिंग कर गए डराने के लिए।
जब न्यूज पेपर के माध्यम से जब इस घटना का पता चला तो उस बंगाली बस्ती के पास गया तो पता चला कि आग की घटना इस बार शाहबाद एक्सटेंशन पार्ट-2 का है। जब बस्ती में जा रहा था तो दो स्कूली बच्चे मिले जो कि आपस में बंगला में बातचीत कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि आप कि बस्ती में आग लगा है तो वे बोले कि नहीं मेरे बस्ती के बाद दूसरी बस्ती है, वहां आग लगी है।
उनसे पूछा कि आप लोग नहीं गए थे वहां पर? उन्होंने बताया कि जब बस्ती जल रही थी तब गए थे। सभी झुग्गियां जल गईं, क्योंकि आग बुझाने के लिए पहले एक ही गाड़ी आई थी और उसमें भी आधा पानी था, जब झुग्गियां जल गई तब बहुत सी आग बुझाने वाली गाड़ियां आईं, लोगों का कोई सामान नहीं बचा।
बच्चों की वो झुग्गियां आ गई।, जहां वो रहते थे, इससे आगे की झुग्गी में आग लगी थी। आगे का रास्ता बताते हुए वह अपने झुग्गी के अंदर चले गए। आगे बढ़ा तो देखा कि एक नाले के किनारे-किनारे एक बस्ती जली हुई है, वहां पर तीन टेंट, एक टॉयलेट और एक जल बोर्ड का टैंकर दिख रहा था।
पास जाने पर देखा कि कुछ लोग अपने जली हुई झुग्गियों की राखों में से कुछ कागज के टुकड़े उठाकर ध्यान से पढ़ने कि कोशिश कर रहे हैं। इस काम में महिलाएं, बच्चे और आदमी भी शामिल थे। कई बार पूछने के बावजूद भी वह कोई जवाब देना उचित नहीं समझ रहे थे और अपने कामों में लगे रहे। कागज के टुकड़ा उठाते, गौर से देखते फिर दूसरे टुकड़े उठाते।
किसी तरह वहां मौजूद राजेश से बात हो पाई, वह भी राख के ढेर से कुछ खोजने कि उम्मीद के साथ लगे हुए थे। राजेश ने बताया कि इस बस्ती में इटावा के छह परिवार रहते हैं जो पीओपी, ट्रेवल एजेंसी, कोरियर का काम करते हैं। राजेश पीओपी का काम करते हैं। जिस समय आग लगी, वह काम पर गए हुए थे और उनका सभी सामान जलकर खाक हो गया जिसमें करीब एक लाख रुपए का नुकसान हुआ है। उनको चिंता हैं कि सरकार मुआवजा देगी भी या नहीं।
राजेश से बात करके आगे बढ़ा तो देखा कि कुछ लोग जले हुए सामानों को राख के ढेर से इक्ट्ठा कर रहे हैं, तो कुछ बोरे में भर रहे हैं। यहां पर चमेली मिली जो कि आठवीं कक्षा में पढ़ती है और दूसरी बस्ती में रहती है वह अपनी दोस्त पायल की मदद करने आई थी, जो कि खाना लेने गई है। चमेली, पायल के परिवारों वालों के साथ राख के ढेर से जले हुए बर्तनों को इकट्ठा कर रही थी, जिससे उसको बेच कर कुछ पैसा मिल जाए। इसी तरह से सातवीं में पढ़ने वाले इमरान शेख भी अपने परिवार की मद्द कर रहे थे। पायल के पिता अब्दुल बारीक कबाड़ चुनने का काम करते हैं।
अनारूल विरभूम जिले के रहने वाले हैं और चार साल के उम्र से मां-पिता के साथ दिल्ली में रह रहे हैं। पहले वह संजय अमर कॉलोनी में मां-पिता के साथ रहते थे, लेकिन उनकी झुग्गी 14 साल पहले तोड़ दिया गया और बवाना में 12 गज का प्लाट मिला, जिनमें पूरे परिवार का रहना नामुमिकन था। अनारूल अपने परिवर के साथ शाहबाद में रह कर सोसाइटी से कूड़ा इकट्ठा करने का काम करते हैं।
45 वर्षीय मंगल (45)विरभूम जिले के रहने वाले हैं और 40 साल से दिल्ली में रह रहे हैं। मंगलू बताते हैं कि 16 साल शाहबाद इलाके में रहते हैं और इस बस्ती में 7 साल से रह रहे हैं। मंगलू के परिवार में 5 सदस्य हैं, जिसमें से दो बेटे 18 साल का सलाम और 28 वर्षीय मिठू रोहणी सेक्टर 28 और 16 में घरों से कूड़ा इकट्ठा करने का काम करते हैं।
मंगलू सेक्टर 17 के सोसाइटी से कूड़ा इकट्ठा करते हैं। घरों से कूड़ा उठाने का मेहनताना उन्हें केवल कूड़ा मिलता है, जिसमें से प्लास्टिक, कागज, गत्ते छांट कर वह अपना गुजारा करते हैं। मंगलू बताते हैं उनकी 14 साल की बेटी परबिना का सरकारी स्कूल रोहिणी सेक्टर 26 में दाखिला नहीं ले रहे हैं और बेटे सलाम का आठवीं का सार्टिफिकेट नहीं दे रही है प्रिंसिपल।
इसी तरह कि चिंता रिंकी बेगम पत्नी सूरज शेख, मनी पत्नी बबलू को भी सता रही है कि इनके सभी दस्तावेज और सामान जल गए हैं उनके बच्चों को कोई प्राब्लम तो नहीं आएगी। रिंगी बेगम, मनी के पति भी रोहिणी के अलग-अलग सेक्टरों से कूड़ा उठाने का काम करते हैं और यह महिलाएं घरों मे साफ-सफाई (डोमेस्टिक वर्कर) का काम करते हैं।
रिंकी बेगम बताती हैं कि उसने छह साल से कूड़े में मिलने वाली धातु (तांबा, पीतल, एल्युमिनियम) को इकट्ठा करके रखा था घर में। इस आग ने उनके छह साल से इकट्ठा किए हुए धातु को गला दिया, इसके साथ ही रिंकी का घर जाने का अरमान भी चूरचूर हो गया जो कि छह साल से उसने अपने दिल में पाल रखा था।
शाहबाद एक्सटेंशन के पार्ट 2 में करीब 85 झुग्गियां थीं, वह सभी जल कर राख हो गईं। शाहबाद में काफी झुग्गी बस्तियां बंगाली बस्ती के नाम से जानी जाती है। इस बस्ती में रहने वाले लोग बंगाली हैं और सड़कों, रोहिणी की सोसाइटियों से कूड़ा उठाने का काम करते हैं, महिलाएं घरों में सफाई का काम करती है। इनमें बहुत ऐसे लोग हैं जिनकी पैदाईश दिल्ली की ही हैं और वो बचपन से ही कूड़ा चुनकर अपना गुजारा करते हैं और दिल्ली को स्वच्छ रखने में इनडायरेक्ट योगदान करते हैं।
ये बस्ती वाले रहते तो हैं सरकारी जमीन पर, लेकिन इनसे भाजपा नेता नरेन्द्र राणा (कुलवंत राणा का भाई) इनसे प्रति गज 15 रुपए और बिजली का प्रति यूनिट 10 रुपए लेता है। यह रेट अलग-अलग इलाके का अलग-अलग है। कहीं कहीं यह रेट 20 रुपया प्रति गज (80 सेंटीमीटर) भी है और यह रकम नरेद्र राणा के रहमोकरम के अनुसार घटती-बढ़ती भी है।
दिल्ली का केवल शाहबाद इलाका ही नहीं रिठाला, जहांगीरपुरी, तुगलकाबाद, नवादा इत्यादि जगहों पर कबाड़ चुनने वाले लोगों से सरकारी जमीन का किराया वसूला जाता है। प्रशासन भी इस बात को जानता है, लेकिन वह अपना आंख, कान, मुंह बंद किए हुए इस लूट में शामिल रहता है।
आग लगने के बाद शासन-प्रशासन दो-चार दिन खाना और दो-चार टेंट सप्ताह भर लगा कर अपने कार्यों को इतिश्री कर लेती है। आखिर कब तक दिल्ली में इस तरह से बस्तियां जलती रहेंगी और लोगों की सालोंसाल की कमाई जलकर खाक हो जाती है, जिसकी एवज में 20-25 हजार रुपए सरकार देकर बोलती है कि हमने मुआवजा दे दिया है।
आग से केवल उनके घर और समान ही नहीं जलते, बच्चों के अरमान भी जलकर खाक हो जाते हैं। जैसा कि इस बस्ती में आग लगने के बाद बच्चों को चिंता है उनके स्कूल में आगे क्या होगा? जब बच्चों को खबर मिली तो वह स्कूल से रोते हुए आए और अपने जले हुए कपड़े और सामानों को देखकर उनके दिल में चोट पहुंचती है, जिसकी भरपाई करना मुश्किल होता है।
कब तक जलती रहेंगी बस्तियां? कब तक इनके साथ भेदभाव होता रहेगा? कब तक इनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार होता रहेगा? आखिर कब तक इनको सरकारी जमीन का किराया देता रहना पड़ेगा? कब तक वोट के लिए जहां झुग्गी, वहां मकान का जुमला चलता रहेगा?