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क्रांति, जनांदोलन, जन जागरण से अब मार्केटिंग टूल में तब्दील हो चुका है नुक्कड़ नाटक
आज नुक्कड़ नाटक का उपयोग ‘मार्केटिंग’ के लिए हो रहा है। ये जन और बदलाव के सर्वसुलभ हथियार पर ‘खरीदने और बेचने’ की संस्कृति के पैरोकारों की इस विधा पर कब्जा करने की साजिश है....
12 अप्रैल, राष्ट्रीय नुक्कड़ दिवस पर प्रसिद्ध रंगचिंतक मंजुल भारद्वाज की टिप्पणी
सबसे पहला सवाल नुक्कड़ नाटक क्या है? नुक्कड़ नाटक आधुनिक शब्द है और सड़कों, मैदानों में खेले जाने वाले (वर्तमान के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक चेतना निर्माण) नाटकों को नुक्कड़ नाटक कहते हैं।
एक आम आदमी का नाटक जिसमें उसकी समस्याओं का चित्रण हो जो नुक्कड़ या चौराहे पर खेला जाये। एक नाटक जो अपनी पूरी नाटकीय क्षमता लिए नुक्कड़ पर खेला जाये। जन संघर्ष व चेतना का नाम है नुक्कड़ नाटक। चुनौती को चुनौती में स्वीकार करने का नाम है नुक्कड़ नाटक। गरीबों, शोषितों, पीड़ितों और सर्वहारा की आवाज है नुक्कड़ नाटक।
नुक्कड़ नाटक का उद्देश्य विशिष्ट स्थितियों का राजनीतिक विश्लेषण करके दर्शक चेतना को दिशा देना। ऐसे नाटक खेलना जिनकी गहराई और जिंदगी उतनी लंबी हो जितनी हमारी सामजिक समस्याओं की गहराई और जिंदगी। वह नाटक जो तुरन्त जनता के दुःख दर्द की दवा पेश करे। आम आदमी जिस नाटक का नायक हो उन नाटकों को जन जन तक पहुंचाकर जन संघर्ष और चेतना का निर्माण करना।
400 साल है औद्योगिक क्रांति का इतिहास। औद्योगिक क्रांति के बाद मजदूरों को अपना हक दिलाने के लिए ‘नुक्कड़ नाटक’ की क्रांतिकारी भूमिका रही। इसकी वजह थी की मजदूरों ने अपने हक की लड़ाई के लिए ‘नाट्य विधा’ के अंदर छुपे ज़ज्बे और क्रांति के लावे को समझा और नाटक को मनोरंजन तक सीमित कर देने वाली पूंजीवादी सोच के परे उसे ‘क्रांति’ का हथियार बनाया और ‘नाटक’ के एक नए रूप को जन्म दिया जो ‘नुक्कड़’ नाटक कहलाया।
इसलिए ‘नुक्कड़ नाटक’ के जन्मदाता कोई और नहीं मजदूर हैं, जिन्होंने ‘सामंती’ व्यवस्था से लोहा लिया और लड़कर अपने हकों को हासिल किया। क्योंकि मजदूर अपनी बात कर रहे थे। वो एक व्यवस्था के खिलाफ लड़ रहे थे। वो लड़ाई राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक थी। व्यवस्था के आमूल बदलाव की थी, इसलिए नुक्कड़ नाटक में बदलाव का लावा है और न्याय, समता और समानता की वैचारिक प्रतिबद्धता। यानी नुक्कड़ नाटक सर्वहारा द्वारा सृजित अन्याय के लिए लड़ने वाला शोषितों, पीड़ितों का हथियार है। आज जो ऑफिस, कारखाने, घर या कहीं भी काम या श्रम के घंटे, शिफ्ट या समय निर्धारित हुआ है, ये नुक्कड़ नाटक की अगुवाई में उन मजदूरों के आंदोलन और संघर्ष से संभव हुआ है।
यूरोप में हुई औद्योगिक क्रांति जहाँ जहाँ फैली, वहां वहां नुक्कड़ नाटक खेले गए और ये विधा दुनिया में फ़ैल गयी। औपनिवेशिक देशों ने इस विधा का उपयोग अपनी आज़ादी के संघर्ष के लिए भी किया और सफल हुए। भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में मजदूर और किसानों ने इस विधा का उपयोग किया।
नुक्कड़ नाटक बड़ी चुनौतियों के समक्ष तीव्रता से खड़ा होता है और फिर एक तरह से हायबरनेशन में चला जाता है। फिर जब कोई विकट परिस्थिति आती है तो एकदम उभरता है, क्योंकि ये पीड़ितों का संघर्ष शस्त्र है। ये अंदर ही अंदर सुलगता रहता है। बुझता नहीं पर धधकता रहता है।
नुक्कड़ नाटक अपने जन्म से लेकर अभी तक कई दौर से गुजरा है। शुद्ध क्रांति, जन आन्दोलन से जन जागरण तक का सफर तय किया है, अब तो ये मार्केटिंग ‘टूल’ हो गया है।
जैसे जैसे काल बदला पूंजीवादी व्यवस्था ने सर्वहारा की व्यवस्था को धराशायी कर एक ध्रुर्वीय विश्व के निर्माण के लिए भूमंडलीकरण का अनोखा षड्यंत्र रचा और दुनिया से संगठित मजदूर को खत्म करने की साज़िश की और उसे दिहाड़ी मजदूर बना दिया। विज्ञान के उत्थान से उपजी तकनीक से एक ही झटके में पूरे विश्व को एक गाँव में बदल कर उसे शोषित करने की व्यवस्था को रचा। ऐसे समय में नुक्कड़ नाटक के सामने मानव और मानवीय व्यवस्था को बचाने की विकराल चुनौतियां हैं।
भूमंडलीकरण
भूमंडलीकरण ने दुनिया की जैविक और भौगोलिक विविधता को बर्बाद किया है और कर रहा है। इसका चेहरा बहुत विद्रूप है। स्मार्ट फ़ोन, फेसबुक, व्हाट्सअप, एसएमएस और अन्य तकनीकों और विकल्पों का विकास हुआ, लेकिन क्या सम्प्रेषण प्रगाढ़ हुआ या विखंडित हुआ? विचार सम्प्रेषित होता है क्या? जबकि विचार की कब्रगाह पर खड़ा है भूमंडलीकरण! बाज़ार ,बाज़ार और बाज़ार. सब खरीद लो, रिश्ते-नाते, संबंध, अपनापन, खुशियाँ सब बिक रहीं हैं। सब सम्प्रेषण तकनीकों से। यह सभ्य दुनिया का आर्थिक धर्म है, जीवन खरीदो और बेचो। उसका सबकुछ खरीदो और बेचो, यह दुनिया के हुक्मरानों का दुनिया के कल्याण के लिए वैज्ञानिक युग का मंत्र है- “खरीदो और बेचो”
पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन
इस संकल्पना की जड़ में मनुष्य, इंसानियत श्रेष्ठ नहीं है, सभ्यता श्रेष्ठ नहीं है अर्थ, मुनाफ़ा और व्यापार श्रेष्ठ है। इस व्यवस्था का मूल्य मनुष्यों की ज़रूरतें पूरी करने का नहीं है बल्कि उसकी लालच को बढ़ाना है। समता, समानता और खुशहाली के नाम पर विषमता, अलगाव और हिंसा इसकी जड़ में है जो उपभोगतावाद के कंधों पर बैठकर पृथ्वी को निगल रहा है और पृथ्वी का श्रेष्ठ जीव मनुष्य अपनी लालच में अपने ही साथी मनुष्य, पृथ्वी के बाकी जीवों, पर्यावरण, जीवन के लिए ज़रूरी प्राकृतिक संसाधनों को और स्वयं पृथ्वी को निगलने के लिए उतारू है। सभ्यता, संस्कृति की दुहाई देने वाला मनुष्य केवल और केवल खरीद फ़रोख्त का सामान बन गया है।
ब्रूट पावर
‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का मुहावरा इसका अमलीकरण मंत्र है। नरसंहार के अणु हथियारों के विशाल जखीरे पर बैठा अमेरिका और उसके पिछलगू देश दुनिया को शान्ति के नाम पर धमकाते हैं और डब्लू टी ओ में सारे व्यापार के मसौदों पर हस्ताक्षर कराते हैं और सारे प्राकृतिक संसाधनों को लूटने का अनैतिक और ग़ैर कानूनी अधिकार प्राप्त करते हैं।
मुनाफ़े और लूट का भेद
दरअसल इस नई आर्थिक नीति (कुनीति कहें तो उपयुक्त होगा) का आधार है बोली लगाओ। यानी एक कृत्रिम ज़रूरत का निर्माण करना, उस झूठ को एक सच के रूप में बेचना। उस झूठ को बेचने के लिए एक भीड़ बनाना जिसको ये बाज़ार कहते हैं... यानी बुनियादी रूप से 1 रुपये की कीमत वाली एक वस्तु को भीड़ यानी बाज़ार में बोली लगवाकर (सेंसेक्स का जुआघर) एक कृत्रिम ज़रूरत निर्माण कर उसे एक लाख रुपये की बना देना। इसी को अर्थ सृजन कहते हैं और इस झूठ को बनाने, फैलाने वालों को अर्थशास्त्री और ऐसे ही झूठों को नोबेल से नवाज़ा जाता है।
इस झूठ का गुब्बारा जब फूटता है उसे ये आर्थिक मंदी का दौर कहते हैं। जीडीपी की अर्थी लिए घूमते हैं। दुनिया में भुखमरी, हिंसा और युद्ध के पैरोकार और जिम्मेदार सामान्य जनता को कहते हैं उसे इकॉनमी की समझ नहीं और इन लुटेरों को है। यही लुटेरे फिर पारदर्शिता, ईमानदारी, नैतिकता और मनुष्यता की दुहाई देते हैं। दुनिया का मध्यम वर्ग इनकी पैरोकारी करता है। ऐसे देशों को विकास का रोल मॉडल मानता है और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र इनके रहमों करम पर अपने मोक्ष का मार्ग खोजता है।
कट्टरवाद
दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टियां सिर्फ़ और सिर्फ़ भावनाओं की राजनीति करती हैं। ये पार्टियां जनता की भावनाओं का राजनीतिकरण करती हैं। इनका हथियार है भावनाओं का दोहन। ये जन आस्था, धर्म, राष्ट्रीयता, संस्कृति, संस्कार, सांस्कृतिक विरासत बचाने का दावा करती हैं, दम्भ भरती हैं और इन मुद्दों पर इनको जन समर्थन भी मिलता है, पर दरअसल ये पार्टियां इन भावनात्मक मुद्दों का उपयोग अपने शुद्ध राजनीतिक फायदे के लिए करती हैं या यूँ कहें की इनके यही असली राजनीतिक मुद्दे हैं।
संवैधानिक व्यवस्थाओं की वैधता पर हमला
दक्षिण पंथी कट्टरवादियों ने दरअसल युवाओं को बरगलाने का कामयाब षड्यंत्र रचा है। युवाओं के दिल को मैला किया है। उनकी भावनाओं को भड़का कर तर्क, विचार करने की बौद्धिक क्षमता का ह्रास किया है, कुंद किया है और इस हद्द तक जहर घोला है कि भारतीय संविधान के पवित्र सिद्धांतों के लगभग विरोध में युवाओं के दिल में जहर भरा है, इसके उदाहरण देखिये हाल ही में भारतीय विषमताओं में सामजिक न्याय और समता के लिए अनिवार्य एक पहल आरक्षण पर बवाल इस बात का प्रमाण है कि सवर्ण जाति के युवा अपनी प्रगति में आरक्षण को एक बाधा मानते हैं।
आरक्षण का उद्देश्य, उसके लाभार्थी, उसके सभी आयामों का शुद्ध तथ्यों के आधार पर विश्लेष्ण करने के बाद भी समझने को तैयार नहीं हैं। इस हद तक मेरे देश के युवाओं के दिलों को मैला किया है कि वो अपने तर्क और विवेक बुद्धि का उपयोग करने को तैयार नहीं हैं। वो जन्म के संयोग से ऊपर उठकर विचार करने की हालत में नहीं है कि भारत जैसे देश में जहाँ जन्म के संयोग से बच्चों का भविष्य तय होता हो, वहां आरक्षण एक न्यायसंगत संवैधानिक प्रावधान है।
ये दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टियां नव आर्थिक उदारवाद के दौर में नए रोजगार के अवसर कैसे बढें, युवाओं को रोजगार कैसे उपलब्ध हों, सरकार नए रोजगार कैसे उपलब्ध कराये इस पर चर्चा नहीं करती, क्योंकि उनको युवाओं के रोजगार में दिलचस्पी कम और जाति का सहारा लेकर विभिन्न जातियों को आपस में लड़ाने में ज्यादा रूचि है जिससे ये अपने हिन्दुत्ववादी एजेंडा लागू कर सकें। इस किसान विरोधी सरकार को असल में किसानों की हालत बेहतर करने का काम करना था पर वो काम नहीं करके। जो खेती पर आधारित हैं, उन्हें आरक्षण की होली में झोंक दिया।
सवाल आरक्षण का नहीं है, यह है कि किसानों को ‘आरक्षण’ मांगने की ज़रूरत क्यों पड़ी? खेती की ऐसी हालत क्यों हुई की किसान आत्महत्या कर रहा है, युवाओं का कृषि को एक रोजगार एक रूप में अपनाने का रुझान कम है, क्यों एक ग्रामीण व्यवस्था वाले कृषि प्रधान देश में किसानों की ये हालत है? अपने आप को छाती ठोक कर, आत्मघोषित राष्ट्रवादी पार्टी और उनकी सरकार अमेरिका के दवाब में डब्ल्यूटीओ में किसान विरोधी करार पर साइन करती है और उसकी मंत्री संसद में बयान देती है। 'मज़बूरी थी जी करना पड़ा' यही इन राष्ट्रवादी सरकार का असली चेहरा। ये देश की सम्प्रभुता के साथ खिलवाड़ करने का प्रमाण भी है।
एकाधिकार वाद
यह लेख इसलिए लिखने की आवश्यकता पड़ी कि अभी तक ये खेल चोरी छुपे होता था लेकिन अब खुलेआम हो गया है। पूंजीवाद ने दुनिया की सभी समाजवादी सरकारों को ध्वस्त किया और भूमंडलीकरण का दौर चलाया जहाँ खरीद-फ़रोख्त यानि खरीदो और बेचो के राजनीतिक मूल्यों को स्थापित कर दिया। उसके साथ संस्कृति, श्रद्धा-अंधश्रद्धा, आस्था, धर्म, भगवान और विज्ञान का ऐसा तड़का लगाया कि मनुष्य सामंतवादी व्यवस्था के भी पहले के रसातल में गर्क हो गया।
अपने आप को आधुनिक कहने वाला मनुष्य आज कितना हिंसक है, उसने आण्विक अविष्कार को अपनी कब्रगाह बना लिया है, खरीद-फरोख्त अपने आप में कितना हिंसक है-यानि जो बिक सकता है वही जी सकता है-आज विकास के नाम पर – बंधुआ मजदूरी है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां दुनिया की संपत्ति पर कब्ज़ा करने वाले चोरों का गिरोह है अपने मुलाज़िमों को सारी सुख सुविधा के लिए कर्ज़ देते हैं और जिंदगीभर उनसे गुलामी करवाते हैं-वो चाहे भी तो छोड़कर नहीं जा सकता क्योंकि कर्ज़ कैसे चुकायेगा? उपर से इन चोरों के गिरोह का शगूफा वी आर लिबरल …यू हव ए चॉइस...लेकिन मगरमच्छों के बीच एक आदमी की क्या चॉइस है? बस आजीवन बाज़ार में बिकते रहो।
पूंजीवादी मीडिया का वर्चस्व
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया पूंजीवाद और अंधश्रद्धा को बेचने की मंडी है। देश का राजनैतिक नेतृत्व पूंजीवाद के पंख लगाकर विदेश भ्रमण में मशगूल है। देश के बुजुर्ग टीवी में बड़े धार्मिक गुरुओं के चंगुल में फंसकर भगवान के नाम पर अंधश्रद्धा के गुलाम बन कर अपने संतान से लड़ रहे हैं।
तकनीक के नाम पर ‘विज्ञान’ को बेच रहा युवा वर्ग। भोगवाद के चक्रव्यूह में “पूंजीवाद” को अपना सेवाहार मान कर बुलेट ट्रेन का सपना देख रहा है जहां से सीधे स्वर्ग की सीढी पर पैर रखा जा सकता है। यानि जिस समय सामंतवादी व्यवस्था में मुट्ठी भर लोगों के हाथ में दुनिया की संपत्ति थी- 400 साल बाद-‘लोकतांत्रिक’ दुनिया में शेयर मार्केट के ज़रिये वो संपत्ति फिर मुट्ठी भर लोगों के हाथ में है ।
विकास का माडल
एक पूंजीवादी अजगर जो अपने आप को ही लीलता है और महानगर का आकार लिए विकास का मॉडल बनकर खरीद फरोख्त की माला जप रहा है। विनाश की ओर बढ़ रहा है। इस महा मानवीय विनाश से बचने का तरीका है- खरीदने और बेचने के सूत्र को सिरे से नकारना। जितनी जरुरत उतना उत्पाद। बेलगाम मुनाफा खत्म करना और मेहनत का हिस्सा देना। प्राकृतिक संसाधनों पर जनता का कब्ज़ा, जल, वायू, भूमि और प्रकृति का संवर्धन, पुनर्संवर्धन।
विकास के मॉडल महानगर का तिरस्कार और आत्मस्वावलंबी गांवों का प्राकृतिक प्रकृति प्रिय विकास, पूंजीवाद के बजाय सही मायनों का लोकतंत्र, तकनीक के बजाय विज्ञान, जीवन का आधार हो। यही सर्वोत्तम कारगर कदम हैं, जो विनाश के मुहाने पर खड़ी मानवता और आणविक आविष्कार के अभिशाप से मानव और सृष्टि को बचा सकता है!
नुक्कड़ नाटक के बारे में भ्रांतियां
नुक्कड़ नाटक कोई मदारी का खेल नहीं है जैसा अधकचरे खाए—पीये, अघाये कुछ रंगकर्मी बताते हैं। बात मदारी के श्रम और वाकपटुता और उसके प्रभाव की नहीं है। बात उद्देश्य की है, जहाँ नुक्कड़ नाटक परत दर परत ‘समस्या’ को उघाड़ कर दर्शक के सामने रखता है वहीं मदारी सिर्फ अपनी वाकपटुता से अपना ‘पेट भरता’ है, जबकि नुक्कड़ नाटक जनता को उसके मुद्दों पर चेताता है, संगठित कर, संघर्ष के लिए उत्प्रेरित करता है।
नुक्कड़ नाटक ‘लोक नाट्य’ भी नहीं है, क्योंकि ‘लोक नाट्य’ और नुक्कड़ नाटक के उद्गम में वैचारिक अंतर है। नुक्कड़ नाटक शुद्ध ‘बदलाव’ के लावे से लबालब है, जबकि ‘लोक नाट्य’ मूलतः लोक के आनन्द की अनुभूति है।
नुक्कड़ नाटक कोई फ़िल्मी गानों की पैरोडी नहीं है। ये हास्य विधा भी नहीं है, शोषित का आखिरी हथियार है। क्योंकि न्याय के जब सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं तब ‘शोषित’ के पास सड़क, रास्ते पर उतरने के सिवा कोई रास्ता नहीं होता। नुक्कड़ नाटक के विषय ‘जन सरोकारों’ से ओतप्रोत होते हैं। उन विषय में ‘राजनीतिक’ व्यवस्था को बदलने का सुर प्रखर होता है। इसलिए नुक्कड़ नाट्यकर्मी में राजनैतिक प्रक्रिया की जागरूगता अनिवार्य है।
जब भूखे पेट को रोटी ना मिले, बलात्कार की शिकार को न्याय ना मिले, मजदूर और किसान को आत्महत्या करनी पड़े, जाति की वजह से सदियों से तिरस्कार सहन करना पड़े, दहेज़ के लिए जलाया जाए या तकनीक का उपयोग कर ‘लिंग चयन’ कर गर्भ से गिरा दिया जाए, वहां ‘जोक’ नहीं मारा जाता, सिर्फ ‘दर्द, वेदना को विश्लेषित कर अपने हकों के लिए लड़ा जाता है।
बहुत दुखद है कि आज नुक्कड़ नाटक का उपयोग ‘मार्केटिंग’ के लिए हो रहा है। ये जन और बदलाव के सर्वसुलभ हथियार पर ‘खरीदने और बेचने’ की संस्कृति के पैरोकारों की इस विधा पर कब्जा करने की साजिश है।
इन विकराल चुनौतियों का सामना आज ‘जनता’ करना चाहती है, तो उसके सामने 400 साल पहले ईजाद हुई कला यानी नुक्कड़ नाटक विधा का उपयोग एक सशक्त विकल्प है, क्योंकि ये वर्चुअल संवाद की बाजए सीधा संवाद है। विश्वास जागने वाला और क्रियान्वन की और प्रेरित करने वाला माध्यम है। व्यक्तिवाद की बजाए ‘सामूहिकता’ को बढाता है। इस युवा देश के युवाओं की उर्जा को सही दिशा देने वाला ‘आमजन’ का आम माध्यम है।
जनता को चुनाव में ठगने वाली विशाल रैलियों और बाजारू मीडिया के लाइव टेलीकास्ट का कारगर और विश्वनीय ‘जवाब’ है, क्योंकि नुक्कड़ नाटक संसाधनों से नहीं न्यायसंगत ज़ज्बात, सर्वहारा की सार्वभौमिक हुंकार की वैचारिक प्रतिबद्धता के इंधन से चलता है।