- Home
- /
- जनज्वार विशेष
- /
- मोदी जी झारखंड के शिवा...
मोदी जी झारखंड के शिवा जैसे घूमंतू कहां रहेंगे NRC के बाद, क्योंकि आसमान उनकी छत और धरती है बिछौना
निचितपुर पंचायत के दलित टोले के कुछ लोगों के पास वोटर कार्ड और आधार कार्ड तो है, मगर किसी के पास सरकारी सुविधाओं के लाभ का कोई भी आधार नहीं, ऐसे में ये भी शिवा मल्हार जैसे घुमंतू परिवार से अलग नहीं हैं..
विशद कुमार की रिपोर्ट
रांची, जनज्वार। इससे बड़ी बिडंबना इस देश के लिए और क्या हो सकती है कि आजादी के इन 72 सालों बाद भी हमारा शासक वर्ग देश के हर नागरिक को एक अदद छत तक मुहैया कराने में असफल रहा है। वहीं दूसरी तरफ सत्ता द्वारा तीन तलाक, राम मंदिर, धारा 370, सीएए, एनआरसी, एनपीआर जैसे मुद्दों पर देश को उलझाने की कवायद चल रही है। देश का बौद्धिक वर्ग भी सत्ता के इस मकड़जाल में फंसकर जन सवालों से दूर होता जा रहा है।
देश में अब तक के सबसे निचले स्तर पर अटकी बेरोजगारी, सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुके जीडीपी सहित काफी खतरनाक स्थिती में लटकी हुई हमारी अर्थव्यवस्था पर कोई चर्चा नहीं हो रही। इन पर कहीं कुछ चर्चाएं दिखती भी हैं तो वह उंट के मुंह में जीरे के समान है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ समझा जाने वाला मीडिया अपनी विश्वसनीयता खोता दिख रहा है।
वहीं एक और बिडंबना है कि जनहित में जो भी योजनाएं बनीं और बन रहीं हैं, वे
''उपर उपर पी जाते हैं, जो पीने वाले हैं,
कहते—ऐसे ही जीते हैं, जो जीने वाले हैं!''
जानकी बल्लभ शास्त्री की 'मेघ गीत' की इन पक्तियों की सार्थकता जो आज भी बरकरार है, के साथ वर्तमान के कई सवाल गुम हो जाते हैं।
24 दिसंबर की शाम के 4 बज रहे थे, मैं सड़क से गुजर रहा था कि मेरी नजर सड़क से सटा हुआ उस मैदान पर चला गया, जहां बच्चे खेला करते हैं। मैदान के एक किनारे एक आदमी ईंट को सजाकर बनाए हुए चूल्हे पर देगची चढ़ाए हुए था और आसपास की झाड़ियों को तोड़कर जलावन बनाकर चूल्हे में जला रहा था। उसके बगल में कुछ कपड़े समेट कर रखे हुए थे, मुझे लगा कोई विक्षिप्त होगा। बावजूद मैं उसकी ओर बढ़ा और उसकी गतिविधि को गौर से देखने लगा। वह चूल्हे की आग को तेज करने की चेष्ठा कर रहा था। उसने मुझे अपने पास खड़ा पाया तो बोल पड़ा — ''क्या है बाबू?''
बाधाडीह—निचितपुर पंचायत के दलित टोले के लोग
उसके सवाल ने जवाब दे दिया था कि वह विक्षिप्त नहीं है।
'क्या कर रहे हो?' अबकि सवाल मैंने किया।
'भात बना रहा हूं।'
''अकेले हो?''
'नहीं, पत्नी और एक बच्चा भी है, वो लोग अभी आएगा।'
मेरे सवाल पर उसने तपाक से कहा।
'क्या करते हो?' मैंने उससे पूछा
'हम लोग गोदना (टैटू) गोदने (उकेरने) का काम करते हैं बाबू।'
'यहां कब तक रहना है?'
'दो-तीन दिन।'
मुझे तसल्ली हुई कि कल इससे बात की जा सकती है।
दूसरे दिन 25 दिसंबर की सुबह 10 बजे के आसपास उस मैदान की ओर गया, तो देखा कि वह अपनी पत्नी और बच्चा के साथ खाना खा रहा था।
मैं जाकर उनकी बगल में बैठ गया।
'तुम्हारा नाम क्या है?'
'शिवा मल्हार।'
'तुम्हारा घर कहां है?'
प्रधानमंत्री आवास योजना का सच : बाधाडीह—निचितपुर पंचायत के दलित टोले की चंद्रमुखी के घर की गिरी दीवार का मलबा और उपर प्लास्टिक की चादर की छत
'घर कहां बताएं बाबू ..., हम लोग तो घूमते फिरते रहते हैं।' शिवा के बोलने के पहले उसकी पत्नी बोल पड़ी। उसके जवाब में अंतर्निहित पीड़ा साफ झलक रही थी।
दिसंबर का महीना, इसके बीच उनका ओढ़ना—बिछौना मैदान में ही उनकी बगल में पड़ा था। बिस्तर की ओर इशारा करके मैंने पूछा, 'रात में यही सोते हो?'
'नहीं बाबू, वहां सोते हैं।' शिवा ने लगभग 50 मीटर की दूरी पर स्थित एक दुकान के बरामदे की ओर इशारा करते हुए बताया।
अचानक 'पूस की रात' का हल्कू और झबरा याद आ गया। आजादी के इन 72 वर्षों बाद आज अगर कथा सम्राट प्रेमचंद होते तो उनके कथानक में कोई बदलाव होता क्या?
काफी कुरेदने के बाद उनके बारे में जो जानकारी मिलीं, उसके हिसाब से उनके परिवार के कुछ सदस्य पश्चिम बंगाल के पुरूलिया स्थित पालूंजा डाकबंगला के पीछे सरकारी जमीन पर अस्थायी तौर पर झोपड़ी बनाकर रहते हैं, तो कुछ सदस्य झारखंड की राजधानी रांची के कांके रोड में सरकारी जमीन पर किसी नेता के कहने पर पलास्टिक की चादर डाल कर रहते हैं।
इन्हें यह भी नहीं पता कि ये कब और कहां पैदा हुए? इनकी हिन्दी की बोली में न तो बंगला का पुट था और न ही किसी अन्य क्षेत्रीय भाषा की झलक थी। गोदना (टैटू) गोदना (उकेरना) इनका पुश्तैनी पेशा है।
इनके पास न तो वोटर कार्ड है, न आधार कार्ड और न राशन कार्ड। मतलब सरकारी सुविधाओं के लाभ का कोई भी आधार इनके पास नहीं है। ऐसे में एनपीआर और एनआरसी में ये कहां बैठते हैं, यह एक गंभीर सवाल है, जिसका जवाब सत्ता के पास कितना है? पता नहीं। परंतु इनपर संकट गंभीर है, यह एक बड़ा सच है।
शिवा मल्हार अपने बच्चे के साथ
छह भाइयों में तीसरे नंबर का 22 वर्षीय शिवा के दो छोटे भाई अपनी मां के पास रहते हैं और बाकी इसी पेशे में घूम-घूमकर अपना पेट पालते हैं।
एक नजर हम डालते हैं झारखंड के बोकारो जिला मुख्यालय से मात्र पांच किलोमीटर और चास प्रखंड मुख्यालय से मात्र चार किमी दूर बोकारो—धनबाद 4—लेन एनएच—23 के तेलगरिया से कोयलांचल झरिया की ओर जाने वाली सड़क किनारे बसा बाधाडीह—निचितपुर पंचायत पर। इस पंचायत का एक दलित टोला है। टोकरी बुनकर और दैनिक मजदूरी करके अपना जीवन बसर करने वाले यहां बसते हैं अति दलित समझी जाने वाली कालिंदी जाति के लगभग 16 घर के लोग।
पिछले 8 नवंबर को स्थानीय अखबारों में खबर आई थी कि, 'जर्जर दीवार गिर जाने से उसमें दब एक 10 वर्षीया एक दलित बच्ची की मौत हो गई।' यह खबर एक सामान्य घटना की सूचना दे रही थी, बावजूद इस घटना ने विचलित किया और जा पहुंचा बाधाडीह गांव। गांव के कई लोगों से घटना के बारे में मिली जानकारी के बाद जब सड़क के किनारे बसे बाधाडीह के इस टोला में पहुंचा, तो चमचमाती सड़क इस टोले को मुंह चिढ़ाती लगी, गोया वह इतरा कर कह रही हो कि 'तुमसे तो ज्यादा खुबसूरत मैं हूं, देखो मुझपर कितनी न्यौछावर हैं सरकारें।'
गिरी हुई दीवार के मलबे में टुकड़े की शक्ल की ईंट में लगी हुई मिट्टी इस बात का सबूत दे रही थी कि लोगों से ईंट के टुकड़े मांग—मांग कर दीवार खड़ी की गई थी। छत के नाम पर प्लास्टिक की चादर फैली हुई थी। जो सरकार की जनाकांक्षी योजनाओं की पोल खोलती साफ नजर आ रही थी। प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना का ढपोरशंखी नारा व घोषणाओं 'बनते घर, पूरे होते सपने' व 'एक करोड़ घरों का निर्माण' की कलई खुलती यहां साफ दिख रही थी। लगा 'एक करोड़ घरों का निर्माण' में शायद ऐसे दलितों का हिस्सा नहीं है।
इस संशय का जवाब चास प्रखंड के बीडीओ संजय शांडिल्य से मिल गया। जब उनसे यहां से लौटने के बाद इस दलित टोले के दलितों को प्रधानमंत्री आवास नहीं मिलने के कारण पर सवाल किया तो उन्होंने बताया कि '2011 के सामाजिक आर्थिक एवं जातीय जनगणना में इनका नाम शामिल नहीं है, अत: इसी कारण इन्हें इसका लाभ नहीं मिल पाया है।'
टोले के लोगों से उनके रोजगार के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि 'हमारे बाप—दादा टोकरी वगैरह बनाकर, उसे बेचकर रोजी-रोटी चलाते थे। आज भी कुछ लोग बाप-दादा वाला भी काम करते हैं। हमलोग हाजिरी का काम करके किसी तरह बाल बच्चों को पाल रहे हैं। सरकार की तरफ से कोई सुविधा नहीं है।' उनके कातर व शिकायती स्वर इस बात की चुगली कर रहे थे कि जैसे उन्हें पता हो कि सरकारी योजनाएं उनके लिए तो बनी हैं, मगर उस पर किसी दूसरे ने अधिकार जमा लिया है।
एशिया एक बड़ा इस्पात करखाना माने जाने वाला बोकारो इस्पात संयंत्र और इस इस्पात नगरी से मात्र छह-सात किमी दूर बसे इस गांव से मात्र तीन-चार किमी दूरी पर वेदांता लिमिटेड का 45 लाख टन उत्पादन क्षमता वाला स्टील प्लांट भी है।
इस दलित टोले के कुछ लोगों के पास वोटर कार्ड और आधार कार्ड तो है, मगर किसी के पास सरकारी सुविधाओं के लाभ का कोई भी आधार नहीं है। ऐसे में ये भी शिवा मल्हार जैसे घुमंतू परिवार से अलग नहीं हैं। दूसरी तरफ बीडीओ संजय शांडिल्य द्वारा बताया जाना कि '2011 के सामाजिक आर्थिक एवं जातीय जनगणना में इनका नाम शामिल नहीं है, इसी कारण इन्हें इसका लाभ नहीं मिल पाया है।' के आधार पर ये एनपीआर और एनआरसी में ये कहां बैठते हैं, इनके लिए भी यह एक गंभीर सवाल है, जिसका जवाब सत्ता के पास कितना है? पता नहीं। परंतु इन पर भी संकट है, यह एक बड़ा सच है।