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शिक्षक दिवस को लेकर सुषमा यादव का अनुभव
एक बार मैडम ने प्रेम शंकर की शिकायत प्रिंसिपल से की तो दूसरा मास्टर खींसें निपोरते हुए बोला, 'सबको हाथ थोड़े ही कोई लगाता है, इतना अच्छा बदन लेकर बाजार में आना ही क्यों है। घर में रहिए और पति के लिए हाजिर होइए...
किसी डे के सेलिब्रेशन के मौके पर हमेशा हम कुछ अच्छा सुनना चाहते हैं। कुछ वैसा जो दिल को सुकून दे, जिसे सुनकर या यादकर आपको अच्छा लगे। पर सवाल ये है कि जो उस सेलिब्रेशन के घटिया और दिल को जलील कर देनी वाली यादें होंगी, उन्हें कब सुनाएंगे।
कब मौका मिलेगा और वह कौन कुपात्र होगा जो सुनेगा। क्योंकि आप सब तो हमेशा ही कुछ अच्छा सुनना चाहते हैं, यहां तक कि बुरे का भी बुरा हिस्सा ढककर अच्छाई निकालने की आपकी महान परंपरा रही है। यही सनातन होने की महानता है, यही छुपा ले जाने की भारतीय परंपरा है।
खैर! मैं अपने शिक्षकों में छठी के टीचर को याद करना चाहती हूं। तब मेरी उम्र 12 की हो चुकी थी। उस टीचर का नाम था प्रेम शंकर सिंह। मैं अपनी कक्षा में मेधावी थी। पर वह मेधावी, सामान्य और कमजोर तीनों तरह की लड़कियों को अपना शिकार बनाता था। लड़कों से तो वह बस डंडे से बात करता था। उसकी गुरु परंपरा में छात्रों से वार्ता का कोई आॅप्शन ही नहीं था।
मेधावी लड़कियों को चूमकर, सामान्य का चुत्तड़ दबाकर और पढ़ने में कमजोर लड़कियों से अपनी जांघ दबवाकर ग्रेड देता था। मुझे उसका चूमना बिल्कुल पसंद नहीं था। उसकी घनी मूंछों और बदबूदार मुंह से मुझे उलटी आती थी। उसके चूमने के बाद मैं अपना मुंह धोती और बहुत रोती थी।
एक दिन मैंने अपनी मां से कहा तो वह बोलीं, टीचर पिता समान होते हैं, कोई नहीं, तु ऐसे ही सोचती है, समय के साथ सब ठीक हो जाएगा। मैंने अपनी बहनों से कहा, उन्होंने कहा, एक साल की बात है, अगले साल से वह क्या कर लेगा तुम्हारा। उसके बारे में सभी जानते हैं। मैंने कहा, पापा से बोलूंगी। बहन ने सचेत किया, उनसे कहेगी तो पढ़ाई छुड़ाघर पर बिठा देंगे, जैसे दीदी को बिठाल दिए।
मैंने पापा से कुछ नहीं कहा।
पर मैंने कई बार देखा कि पापा हमारे शिक्षक प्रेम शंकर सिंह के साथ पान खाते हैं और जोर—जोर के ठहाके लगाकर हंसते हैं। हम अपने शिक्षक को जितना जानते थे, मुझे ऐसा लगता था कि उसमें ऐसी कोई चीज नहीं जिसकी बात सुनकर हंसी आ सकती है, सिवाय घिन के।
फिर मुझे पापा से भी अलगाव महसूस होने लगा था, मैं उनके साथ सहज नहीं रह पाती। अब मुझे उनका चूमना भी वैसा ही लगता, मैं अब उनके करीब नहीं जाती।
मैं कई बार सोचती कि प्रेम शंकर सिंह कितना बलशाली है जो सब इससे डरते हैं, सब जानते हुए भी सब चुप रहते हैं। पूरा स्कूल जानता था कि यह सेक्स का भूखा भेड़िया है। लड़कियों को छेड़ता और मैडमों के साथ बदतमीजी करता है। लेकिन उसे स्कूल से नहीं निकाला जाता था, क्योंकि वह नंगा आदमी था। वह कभी भी किसी को पीट सकता था, गालियां दे सकता है, झगड़ा कर सकता था। उसकी सड़क के कुछ लफंगे लड़के जानने वाले थे, वही उसकी सबसे बड़ी ताकत थे।
एक दिन मैं क्लास में घुसी तो मैडम चुपचाप कुर्सी पर गाल पर हाथ रखे बैठी थीं और सिसकी ले रही थीं। उनकी हालत देखते ही मुझे गुस्सा आ गया। मैं समझ गयी थी माजरा क्या है? वह कई बार हम सब लड़कियों से अपना दुखड़ा रो चुकीं थीं। लड़कियों ने बेंच पर बैठते हुए बताया, प्रेम शंकर सिंह ने मैडम का आज फिर से गाल काट लिया है। मैडम इसलिए रो रहीं है कि कल करवा चौथ है, वह किस मुंह से अपने पति 'चांद साहब' का मुंह देखेंगी।
मैंने मैडम को देखा। वह प्रेम शंकर सिंह से किसी मायने में कमजोर नहीं थीं। पूरी साढ़े पांच फिट की तंदुरूस्त और मजबूत कद—काठी की 25—26 वर्षीय महिला। वह उसे पीट सकती थीं, पर नहीं, वे तो यहां रो रही थीं। दिल से इतनी कमजोर की पूछो मत। उनके पूरे बदन के पोर—पोर में डर, भय, मजबूरी बसी हुई थी।
एक दिन उनकी ब्रेस्ट दबा गया था प्रेम शंकर सिंह। वह भी नोचने के अंदाज में। वह सिवाय लड़कियों से ऐसे दुख किसी और से कह भी नहीं पातीं, क्योंकि लोग और मजाक बनाते। एक बार प्रिंसिपल से कहा था तो दूसरा मास्टर खींसें निपोरते हुए बोला, 'सबको हाथ थोड़े ही कोई लगाता है, इतना अच्छा बदन लेकर बाजार में आना ही क्यों है। घर में रहिए और पति के लिए हाजिर होइए?'
मुझे आज भी उस मास्टर की शक्ल याद है, क्योंकि उस साल शिक्षक दिवस पर सबसे अच्छे शिक्षक का पुरस्कार उसे ही मिला था।
गाल को हाथ से ढककर बैठी मैडम के नजदीक जाकर मैंने पूछा, 'आपने पीटा क्यों नहीं, मैं आपके जैसी होती मोटी—ताजी तो पटक कर सीने पर चढ़ जाती। कुत्ता कहीं का।'
मेरी बात सुनकर सभी लड़के—लड़कियों को हंसी आ गई और सबने ताली बताई। मैं उस दिन क्लास की नेता हो गयी। मैडम मुझे गले लगाकर बहुत रोईं। बोलीं मजबूरी न होती तो नौकरी न करती। पर क्या करूं, मर्द किसी काम का निकला नहीं, बीए में था तो शादी हो गयी, पर पांच साल हो गए, घर में बैठा है। मैं बीएड थी तो पढ़ाने लगी। मायके में इतनी दौलत है नहीं कि वहां से खर्चा चल सके।
अब मैंने ठान लिया था कि इस टीचर का कुछ न कुछ उपाय तो करना है। अब मुझे उठते—जागते बस प्रेम शंकर सिंह को ठिकाने लगाने की धुन सवार थी। सुबह उठी तो दादा जी अखबार पढ़ रहे थे। मैं कभी अखबार नहीं पढ़ती थी, पर दादा जी पर मुझे बहुत यकीन था। मुझे कई बार ऐसा लगा कि उनके पास बैठ जाने से मेरे अंदर नई ऊर्जा आ जाती है। मैं उनके पास बैठ गयी। उसमें एक जगह चौकोर करके लिखा था, 'खबर का असर।'
मैंने दादा जी पूछा, ये क्या होता है? फिर उन्होंने समझाया कि कोई खबर छपी और उस पर कार्यवाही हो गयी तो उसे अखबार दूसरे दिन अपनी तारीफ में छापता है कि उसने फलां अपराधी को जेल में डलवा दिया या घूसखोर कर्मचारी को निलंबित करा दिया।
मैं हतप्रभ थी और खुश भी। मुझे लगा कि आइडिया मिल गया है। मैं स्कूल के लिए जल्दी निकल गयी।, पर मैडम के घर गयी। उनको बताया कि वह अब जेल जाएगा। लेकिन वह खुश होने की बजाय मजबूरी में रोने लगीं कि कौन जाएगा पत्रकार के पास, कहां रहते हैं वे, वह पहले ही जान गया तो, और पता नहीं क्या—क्या?
पर मेरा उत्साह तनिक कम न हुआ। मैंने कुछ लड़कियों को बताया, वह भी बहुत खुश हुईं पर पत्रकार मिलेगा कहां, यह संकट जारी रहा। तभी किसी लड़की ने बताया कि अखबार खरीदो, उसी में पता रहता है। फिर हम लोगों ने ढाई रुपए का वही वाला अखबार खरीदा, जिसको मेरे दादा जी पढ़ रहे थे। हम इतनी लड़कियां एक अखबार खरीदने पहुंची थीं कि दुकानदार सकपका गया।
खैर, हमने पता ढूंढ लिया। पर मुश्किल ये थी कि पत्रकार बड़े लोग होते हैं, हम छोटी लड़कियों से वे क्यों बात करेंगे? फिर सबकी सहमति बनी की पत्रकार के पास मैडम को ले चला जाए। मैडम बहुत मुश्किल से तैयार हुईं। छुट्टी होते ही तीन बजे हम लोग मैडम को लेकर पत्रकार के पास पहुंच गयीं।
बस अड्डे के पास तालाब के किनारे पत्रकार का दफ्तर था। दफ्तर में केवल मैं और मेरे साथ पढ़ने वाला एक लड़का गया। मैडम और दूसरे छात्र तालाब के पास पेड़ के नीचे खड़े रहे।
दफ्तर में घुसते ही हमने खबर दिखाते हुए पूछा, यह जिन्होंने लिखा है, उनसे मिलना है। बताने वाला चपरासी था? उसने बताया कोई रिजल्ट अभी नहीं आया है, कल आएगा? लेकिन मिलना हो तो मिल लो, वहीं सामने बैठे हैं।
हमें लगा था कोई बहुत बड़ा, सुविधाओं से लैस आदमी होगा। पर वह सामान्य सी लकड़ी की प्लास्टिक से बनी कुर्सी पर बैठा था। अपने जैसे इंसान को देखकर मेरा साहस बढ़ा। मैंने आगे बढ़कर नमस्ते किया और बोली, यह आपने लिखा है, मेरे दादा जी यह पढ़ रहे थे, तब मैने देखा था, ऐसी 'खबर का असर' हमें भी कराना है।
सामने से सिर्फ हूं.. की आवाज। मैंने बिना रुके अपनी बात कहनी शुरू की, थोड़ी देर वह आदमी मेरा चेहरा देखता रहा, फिर वह लिखने लगा और जब मैं रूकी तो वह भी रूका और पूछा, 'तुम्हारी मैडम कहां हैं।'
हम दौड़कर मैडम को लिवा लाए। मैडम हमेशा की तरह मजबूरियों से शुरू हुईं। उन्होंने उसके अपराध कम और अपने दुखड़े ज्यादा कहे। वह बहुत देर तक बताती रहीं कि वह नौकरी नहीं करना चाहतीं। पर वह पत्रकार हम लड़कियों जैसा था। वह सिर्फ प्रेम शंकर के बारे में पूछता रहा। कुछ और लड़कियों ने भी अपनी बात कही। लड़कों ने मार के दाग दिखाए।
पत्रकार ने कहा, आप लोग जाइए। मैडम को अलग से बोला, आप काम करती हैं चोरी नहीं, काम पर गर्व करिए, सब ठीक हो जाएगा।
मैं रातभर ठीक से सो नहीं पाई। जल्दी तैयार होकर स्कूल गयी। समय से पहले ही सभी बच्चे पहुंच गए। हमें ऐसा लग रहा था कि किसी त्योहार का दिन है। हम सब फिल्मों में अब तक गुंडों की गिरफ्तारी देखे थे, लेकिन आज असली में देखने की आस लगाए पहुंचे थे। मैडम नहीं आईं थी कि उनका आज करवाचौथ था। पत्रकार ने कहा था, कल देखना क्या होता है?
अभी प्रार्थना की घंटी लगी ही थी कि 10—12 पुलिस के जवान एक सफेद शर्ट पहने अधिकारी के साथ दो जीपों में स्कूल में पहुंचे। पीछे से साइकिल से पत्रकार आया। पत्रकार को देख हम लोग क्लास छोड़ बाहर आ गए। पूरे स्कूल में अफरा—तफरी मच गयी। बच्चों को छोड़ सभी भाग रहे थे।
तभी लॉबी में प्रेम शंकर सिंह को पीछे से कॉलर पकड़े सफेद कपड़े वाला अधिकारी घसीटते हुए लेकर चले आ रहा था। हम बच्चों के मुंह से अपने आप हो—हो की आवाज निकल गयी। प्रेम शंकर सिंह पर पुलिस वाले पीछे से डंडे बरसा रहे थे। प्रिंसिपल और मैडम की ओर से पुलिस में प्रेम शंकर सिंह के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ, हम लोगों के बयान दर्ज हुए।
मुझे अब नहीं पता कि वह टीचर किस हालत में और कहां है, पर हमें ऐसे शिक्षकों से लड़ते रहना चाहिए कि हम शिक्षकों की व्यापक जमात के प्रति सम्मान बनाए रखें। प्रेम शंकर सिंह जैसे चंद शिक्षकों के कारण शिक्षा के अपराधीकरण और माफियाकरण को बढ़ावा मिल रहा है।