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सिक्योरिटी

पत्रकार बंद कमरों में संपादक के आगे झुकेगा तो कहीं भी नहीं उठा पाएगा सिर

Prema Negi
6 Sep 2018 5:35 PM GMT
पत्रकार बंद कमरों में संपादक के आगे झुकेगा तो कहीं भी नहीं उठा पाएगा सिर
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गंभीर समाचार के पत्रकारिता विशेषांक का लोकार्पण, 'पत्रकारिता मंथन : आगे की राह' पर हरतोष सिंह बल, गौहर रज़ा, ओम थानवी और सुधीश पचौरी ने रखे अपने विचार....

जनज्वार। कैरेवान के राजनीतिक संपादक हरतोष सिंह बल ने कहा कि सरकार के नारे को जो नहीं दोहराते, उन्हे अर्बन नक्सली संबोधित करने का चलन शुरू हो गया है। इसलिए अब जरूरी है कि आप जो सोचते हैं, उसे बोलें और लिखें। वे प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में आयोजित एक विचार संगोष्ठी ‘पत्रकारिता मंथन : आगे की राह’ को संबोधित कर रहे थे। संगोष्ठी में हिंदी पाक्षिक ‘गंभीर समाचार’ के 101वें पत्रकारिता विशेषांक का लोकार्पण भी किया गया।

उन्होंने आगे कहा कि इंसान को बस दो जगह ही झुकना चाहिये। एक रब के आगे और एक अखाड़े में किसी को पछाड़ने के लिये। यदि पत्रकार बंद कमरे में अपने वरिष्ठों व संपादकों के आगे झुकेंगे तो बाहर आपको हर जगह झुकना होगा।

मीडिया विश्लेषक व लेखक प्रो. सुधीश पचौरी ने कहा कि मीडिया पर पक्षधरता का आरोप लगता है तथा उसे तटस्थ होने की सलाह दी जाती है, लेकिन वास्तव में मीडिया को तटस्थ होने की बजाय सच के साथ होना चाहिए। मीडिया की स्वतंत्रता को लेकर पहले भी चर्चाएं होती थी, आगे भी होती रहेगी। मीडिया के सभी प्रारूपो की प्राथमिकता में जनसरोकार से जुड़े मुद्दे सत्य और तथ्य पर आधारित होने चाहिए।

वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी ने कहा कि पत्रकारिता की मौलिकता तभी बरकार रहेगी, जब पत्रकार अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए बेबाक ढंग से तथ्यों को परोसे। हालांकि इस स्थिति में मीडिया घरानों का पत्रकारों के प्रति नकारात्मक रुख रखता है, लेकिन वैसे पत्रकारों को ही इतिहास याद रखता है, जो सत्ता की सच्चाइयों से जनता को बेखौफ अवगत कराता है।

समारोह को संबोधित करते हुए वैज्ञानिक व चिंतक गौहर रजा ने कहा कि समय बड़ी तेजी से बदल रहा है, अखबार की लागत विज्ञापन से निकलता है ऐसे में अखबार चाह कर भी जनसरोकारी नहीं हो सकता। अखबारों के संचालन के लिए कोई अन्य व्यावसायिक मॉडल जब तक विकसित नहीं होता, तब तक अखबारों पर बाजार हावी रहेगा। उन्होंने कार्यक्रम में अपनी एक नज्म भी पेश की :

जब सब ये कहें

ये वक्त नहीं बेकार की बातें करने का

जब सब ये कहें

जुल्फ़ों का बिखरना क्या कम है

बिंदिया का चमकना क्या कम है

जब सब ये कहें कि

फूलों का महकना क्या कम है

कलियों का चटकना क्या कम है

प्यालों का छलकना क्या कम है

जब इतना सब है लिखने को

जब इतना सब है कहने को

क्या ज़िद है कि ऐसी बात करो

जिस बात में ख़तरा जान का हो

जब सब ये कहें ख़ामोश रहो

जब सब ये कहें कुछ भी ना कहो

तब समझो पतझड़ रुत आई

तब समझो मौसम दार का है

तब आवाज़ उठाना लाज़िम है

हर कर्ज़ चुकाना लाजिम है

जब सब ये कहें ख़ामोश रहो

जब सब ये कहें कुछ भी ना कहो

तब समझो कहना लाज़िम है

मैं ज़िंदा हूँ

सच ज़िंदा है

अल्फ़ाज़ अभी तक ज़िंदा हैं।

अल्फ़ाज़ अभी तक ज़िंदा हैं।

संगोष्ठी में पत्रिका के राजनीतिक संपादक एवं निर्वाण टाइम्स के समूह संपादक शंभुनाथ शुक्ल ने अपने बीज वक्तव्य में पत्रकारिता में आत्ममंथन की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि वर्तमान दौर की पत्रकारिता या तो इस पाले में है या फिर उस पाले में, जनता के साथ तो कत्तई नहीं है। इसी के साथ उन्होंने पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं पर बातें कीं।

इस अवसर पर पत्रकार ज्ञानेन्द्र पांडेय, प्रो श्रीश पाठक एवं कृषि विज्ञानी बिभाष श्रीवास्तव ने भी अपने विचार व्यक्त् किए। आज के दौर में मीडिया एवं पत्रकारिता की भूमिका एवं पत्रकारिता की आगामी चुनौतियों पर सबने बल दिया। उपस्थित पत्रकारिता के विद्यार्थियों ने वरिष्ठ पत्रकारों से कुछ सवाल भी किए।

लगभग सौ से ज्यादा पत्रकारों, प्रशिक्षु पत्रकारों सहित संस्कृतिकर्मियों के बीच पत्रकार अरविंद मोहन, श्रीराजेश, कथाकार महेश दर्पण, कथाकार क्षमा शर्मा, कवि राजेन्द्र राजन, अपर्णा अनेकवर्णा, गीता पंडित, कल्पना मनोरमा, नित्यानंद गायेन आदि अनेक बुद्धिजीवियों की उपस्थिति उल्लेखनीय रही।

संपादक अजय मोहता ने मंच पर मौजूद वरिष्ठ पत्रकारों का स्वागत अंगवस्त्र एवं प्रतीक चिहन् देकर किया। उपस्थित अतिथि पत्रकारों एवं बुद्धिजीवियों के प्रति पत्रिका के सलाहकार संपादक प्रभात पांडेय ने धन्यवाद ज्ञापित किया तथा हाल ही में दिवंगत पत्रकार कुलदीप नैयर के सम्मान में एक मिनट का मौन रखा गया। इस विमर्श का संचालन भाषाविद् व आलोचक ओम निश्चल ने किया। संगोष्ठी में पत्रकारिता व साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय कई अन्य गणमान्य व्यक्ति भी मौजूद थे।

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