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जनज्वार विशेष

2018 पर्यावरण संरक्षण पर निकम्मेपन का साल

Prema Negi
31 Dec 2018 10:32 AM IST
2018 पर्यावरण संरक्षण पर निकम्मेपन का साल
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प्रतीकात्मक फोटो

तमाम रिपोर्टें बताती रहीं कि वायु प्रदूषण से सबसे अधिक मौतें भारत में होती हैं और दूसरी तरफ मोदी के पर्यावरण मंत्री से लेकर तमाम अधिकारी इन रिपोर्टों को नकारने में समय बिताते रहे और बताते रहे इन रिपोर्टों को अंतरराष्ट्रीय राजनीति का हिस्सा

वर्ष 2018 में किस तरह पर्यावरण संरक्षण पर दुनिया का निकम्मापन दिखा बता रहे हैं वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय

कोलिन्स डिक्शनरी हरेक वर्ष सबसे प्रचलित शब्द को वर्ड ऑफ़ द इयर, यानि वर्ष का शब्द, घोषित करती है, और यदि यह शब्द डिक्शनरी में पहले से नहीं होता तब उसे प्रिंट संस्करण में शामिल भी करती है। इस वर्ष का वर्ड ऑफ़ द इयर, दरअसल एक शब्द नहीं बल्कि दो शब्द हैं, जिनका उपयोग आज के सन्दर्भ में साथ-साथ किया जाता है।

यह शब्द है, सिंगल यूज़, और इसे प्लास्टिक के ऐसे उत्पादों के लिए उपयोग में लाया जाता है जिन्हें हम सामान्य तौर पर यूज़ एंड थ्रो भी कहते हैं। इसके उदाहरण हैं, प्लास्टिक से बने स्ट्रॉ, ईअर बड, रद्दी प्लास्टिक से बने बैग, प्लास्टिक के ग्लास, प्लेट और चम्मच इत्यादि। ऐसे उत्पादों को केवल एक बार ही उपयोग में लाया जाता है, फिर फेंक दिया जाता है। पर, इन उत्पादों का इतना अधिक उपयोग किया जाने लगा है कि अब ये पर्यावरण के लिए बहुत बड़ा खतरा बन गए हैं।

इस वर्ष के आरम्भ से ही प्लास्टिक के कचरे पर खूब चर्चा की गयी, और इस शब्द को मिला खिताब इसी का नतीजा है। अनुमान है कि सिंगल यूज़ शब्द का उपयोग वर्ष 2013 से अब तक चार-गुना बढ़ चुका है और वर्तमान दौर में सिंगल यूज़, एक शब्द के तौर पर प्लास्टिक के लिए ही उपयोग किया जा रहा है। दरअसल प्लास्टिक का कचरा अब माउंट एवरेस्ट से लेकर मरिआना ट्रेंच (महासागरों की सबसे गहरी जगह) तक फैल गया है। इसके कचरे से निर्जन टापू तक लदे पड़े हैं और समुद्री जीव इसे निगल रहे हैं। इससे निपटना पर्यावरण के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।

वर्ष 2018 के दौरान वैज्ञानिकों ने स्पष्ट तौर पर बताया कि जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि को भले ही वर्तमान की सबसे गंभीर चुनौती के तौर पर देखा जा रहा हो पर जैव विविधता में कमी और प्रजातियों का विलुप्तीकरण भी लगभग इतनी ही गंभीर चुनौती है। यूनिवर्सिटी ऑफ़ क्वीन्सलैंड और वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन सोसाइटी द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार पूरी दुनिया में 77 प्रतिशत भूमि और महासागरों का 87 प्रतिशत हिस्सा मानव के सघन गतिविधियों का क्षेत्र है, इसलिए वन्यजीवन और जैव-विविधता बुरी तरीके से प्रभावित हो रहे हैं।

वर्ष 1993 से अब तक, यानि पिछले 25 वर्षों के दौरान, वन्यजीवों के मानव के प्रभाव से मुक्त वन्यजीवों के प्राकृतिक क्षेत्र में से 33 लाख वर्ग किलोमीटर पर मनुष्य की गतिविधियाँ आरम्भ हो गयीं और इस क्षेत्र की जैव-विविधता प्रभावित होने लगी।

इस अध्ययन के अनुसार, पूरी दुनिया में मानव की सघन गतिविधियों से अछूते जितने क्षेत्र हैं, उनमें से 70 प्रतिशत से अधिक केवल पांच देशों में स्थित हैं। ये देश हैं – ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, ब्राज़ील, रूस और कनाडा। पर, दुखद तथ्य यह है कि ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और ब्राज़ील की वर्तमान सरकारों के एजेंडा में पर्यावरण संरक्षण कोई मुद्दा नहीं है, इसलिए संभव है इन क्षेत्रों को भी उद्योगों, कृषि या खनन के लिए दे दिया जाए। यदि ऐसा होता है तब, पूरी धरती पर कोई भी क्षेत्र जैव-विविधता के लिए नहीं बचेगा।

27 नवम्बर को संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले चार वर्षों से तापमान वृद्धि के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार कार्बन डाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन लगभग स्थिर रहने के बाद पिछले वर्ष यह फिर से बढ़ रहा है। यदि यही हाल रहा तब पेरिस क्लाइमेट समझौते के तहत वर्ष 2020 तक ग्रीनहाउस गैसों के सर्वाधिक उत्सर्जन का जो अनुमान था उसे वर्ष 2030 तक भी हासिल नहीं किया जा सकेगा।

इस रिपोर्ट में बताया गया है कि इस शताब्दी के अंत तक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने के लिए ग्रीनहाउस गैसों का कितना उत्सर्जन किया जाना चाहिए और वास्तविक उत्सर्जन कितना है। इस वर्ष की रिपोर्ट में दोनों उत्सर्जन के आंकड़ों के बीच की खाई सबसे बड़ी है। इसी बीच दूसरे रिपोर्ट यह बताते है कि वर्ष 2018 मानव इतिहास का तीसरा सबसे गर्म वर्ष रहेगा। पहले दो स्थानों पर वर्ष 2016 और वर्ष 2017 हैं।

इस वर्ष इंग्लैंड समेत अनेक यूरोपीय देशों में रिकॉर्डतोड़ गर्मी पड़ी, अमेरिका समेत अनेक देशों में जंगलों में भयानक आग लगी, बाढ़ से दुनिया के अनेक शहर तबाह हो गए और इसी तरह के अनेक घटनाएँ दर्ज की गयीं। सबका सम्बन्ध तापमान बृद्धि और जलवायु परिवर्तन से जोड़ा गया, फिर भी पोलैंड में आयोजित वैश्विक अधिवेशन में कुछ ख़ास समझौता नहीं हो पाया। तापमान वृद्धि को लेकर इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया में बड़े आन्दोलन भी किये गए। पोलैंड में क्लाइमेट चेंज से सम्बंधित अधिवेशन के बाद गैर-सरकारी संगठनों ने पूरी दुनिया में आन्दोलन करने का निश्चय किया है।

इस वर्ष हमारे देश में पर्यावरण संरक्षण पर बातों के अलावा कुछ भी नहीं किया गया। तमाम सरकारी दावे किये गए, पर वायु प्रदूषण का स्तर दिन-पर-दिन बढ़ता रहा। तमाम रिपोर्टें बताती रहीं कि वायु प्रदूषण से सबसे अधिक मौतें भारत में होती हैं और दूसरी तरफ पर्यावरण मंत्री से लेकर तमाम अधिकारी इन रिपोर्टों को नकारने में समय बिताते रहे और इन रिपोर्टों को अंतरराष्ट्रीय राजनीति का हिस्सा बताते रहे।

कृषि अपशिस्ट जलाने से रोकने पर प्रधानमंत्री तक अपने पीठ थपथपाते रहे, और किसान बदस्तूर इसे अपने खेतों में जलाते रहे। प्रधानमंत्री और गंगा मंत्री लगातार गंगा सफाई का आश्वासन देते रहे और गंगा और प्रदूषित होती रही। इस वर्ष भी अन्य नदियों के प्रदूषण की कोई चर्चा भी नहीं की गयी और न ही दिल्ली के बाहर दूसरे शहरों में वायु प्रदूषण की कोई चर्चा नहीं की गयी। कचरा और शोर की कहीं नही चर्चा नहीं की गयी। कुछ ऐसा ही अमेरिका में भी हुआ, ट्रम्प लगातार अपनी सरकार की ही रिपोर्ट को गलत बताते रहे।

कुछ पॉजिटिव खबर पर्यावरण के सम्बन्ध में खोजनी पड़ती है। समतापमंडल के ओजोन छिद्र की भरपाई आरम्भ हो चुकी है। वनस्पतियों की 10 नई प्रजातियाँ खोजी गयीं और जमीन के नीचे एक नया जीवमंडल खोजा गया। सबसे बड़ी बात है कि इस वर्ष पर्यावरण की खबरें आम जनता में चर्चा का विषय बन गयीं हैं।

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