झारखंड में भात-भात कहते मर गयी थी भूख से बच्ची (file photo)
मोटका मांझी, रामचंद मुंडा और संतोषी कुमारी के मामले में ऐसा ही हुआ, घर के लोग चीखते रहे कि इन लोगों ने कई दिनों से कुछ नहीं खाया था, पर सरकारी फाइलें इनकी मौत को बता रही थीं स्वाभाविक...
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
दुनियाभर में हरेक सामाजिक समस्याओं को डिजिटल पद्धति से हल करने की मुहिम चल रही है। अमेरिका की पोलिटिकल साइंटिस्ट वर्जिनिया यूबंक्स के अनुसार 'दुनियाभर की सरकारें अपने वंचित समुदाय को बता रही हैं और आश्वस्त कर रही हैं कि डिजिटल टेक्नोलॉजी ही एक ऐसा तरीका है जिससे उनकी जिन्दगी सुखद हो सकती है। इससे भुगतान की प्रक्रिया तेज होगी, पारदर्शिता आयेगी, मानव क्षमता बढेगी और उनका जीवन सुखद हो जायेगा। इन आश्वासनों के बाद भी दुनियाभर की सामाजिक समस्याएं बढ़ती जा रही हैं और डिजिटल पद्धति ऐसी समस्याओं को जन्म दे रही है, जिनका कोई इलाज भी नहीं है।”
पिछले सप्ताह अमेरिका के मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील फिलिप अलिस्तों ने 34 देशों में (विकसित और विकासशील सभी) सामाजिक सरोकारों के डीजिटीकरण से होने वाले नुकसानों पर एक विस्तृत रिपोर्ट बनाकर संयुक्त राष्ट्र में प्रस्तुत की है। डिजिटल टेक्नोलॉजी से मानव के अस्तित्व को समाप्त करने की ही साजिश की जा रही है, इसमें एक आदमी का अस्तित्व केवल एक संख्या तक ही सिमट कर रह जाता है, जैसे हमारे देश में आधार कार्ड है, और पूरा मानव शरीर अंगूठे के निशान या आँखों की पुतलियों से पहचाना जाने लगता है।
लन्दन से प्रकाशित द गार्डियन ने हाल में ही अमेरिका, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और भारत में समाज के वंचित समुदाय की सरकारी सहायता के डिजिटलीकरण का अध्ययन कर एक लेख प्रकाशित किया है। इसका निष्कर्ष यह है कि दुनियाभर की सरकारें वंचित वर्ग को दी जाने वाली सहायता को टेक्नोलॉजी के हवाले करती जा रही हैं और यह समाज के सबसे पिछड़े वर्ग के लिए एक अभिशाप से कम नहीं है।
जो सहायता वंचित समूहों को मिलनी है वे अब समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक या फिर अर्थशास्त्री तय नहीं करते और न ही कोई इस पिछड़े वर्ग के बीच समस्याएं देखने जाता है, बल्कि यह सब अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और इंजिनियरों के बहुत छोटे समूह के हवाले कर दिया गया है, जो सरकारी संरक्षण में वातानुकूलित कमरे में बैठकर सब तय करते हैं। सरकारें अब इन सब पर बेतहाशा खर्च भी कर रही है। इन सबमें गलतियों की भरमार होती है जिसका खामियाजा वंचित समूह भुगतता है।
इंडियन स्कूल ऑफ़ बिज़नेस द्वारा झारखंड में किये गए अध्ययन से स्पष्ट होता है कि आधार कार्ड का सहारा लेकर जितने भी पेमेंट किये गए उसमें से 68 प्रतिशत गलत हाथों में गए। यानी जिस अकाउंट में पैसे जाने थे, उसमें न जाकर भुगतान गलत अकाउंट में कर दिया गया और इस सन्दर्भ में कोई भी सरकारी विभाग या फिर बैंक जिम्मेदारी को तैयार नहीं है, लोग परेशान हैं, हताश हैं और धक्के खा रहे हैं।
झारखंड में सक्रिय मानवाधिकार संगठनों के अनुसार कम के कम 13 लोगों की भुखमरी से मृत्यु हो चुकी है। इन सबके पास आधार कार्ड था पर अंगूठे की लकीरों के मिलान नहीं होने के कारण इन्हें राशन की दुकान से अनाज मिलाना बंद हो गया और भूख से इनकी मृत्यु हो गयी।
झारखंड में मोटका मांझी, रामचंद मुंडा और संतोषी कुमारी की भूख से मृत्यु पर बहुत चर्चा भी की गई थी। संतोष कुमारी 11 वर्ष की थी, उसके परिवार का राशन कार्ड खारिज कर दिया गया था, क्योंकि आधार कार्ड में कोई समस्या थी। राशन नहीं मिलने के कारण कई दिनों से भूखी रहने के बाद संतोष कुमारी ने दम तोड़ दिया। मोटका मांझी और रामचंद मुंडा दोनों अपने परिवार के मुखिया थे, और आधार कार्ड से अंगूठे की लकीरों के मिलान नहीं होने के कारण कई दिनों तक राशन की दुकान पर चक्कर मारने के बाद भी राशन नहीं ले पाए और अंत में भूख से मर गए।
सामाजिक कार्यकर्ता रीतिका खेरा के अनुसार इतनी समस्याओं के बाद भी सरकारी तंत्र और स्थितियों में कोई बदलाव इसलिए नहीं आता, क्योंकि सहायता वंचित समुदाय को मिलता है और इसकी आवाज सरकारी तंत्र या फिर सरकार तक पहुँचती ही नहीं। यही कारण है कि ऐसी सभी समस्याएं नीति निर्धारकों तक पहुँचती ही नहीं। मोटका मांझी, रामचंद मुंडा और संतोषी कुमारी के मामले में ऐसा ही हुआ, घर के लोग चीखते रहे कि इन लोगों ने कई दिनों से कुछ नहीं खाया था, पर सरकारी फाइलें मौत को स्वाभाविक बताती हैं।
आधार कार्ड को राशन कार्ड से जोड़ने के तुरंत बाद झारखंड सरकार ने दावा किया था कि लगभग 10 लाख जाली राशन कार्ड पकडे गए। जब मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने निरस्त किये गए तथाकथित जाली राशन कार्डों में से 135 कार्डों का निरीक्षण किया तब स्पष्ट हुआ कि इसमें से केवल 2 राशन कार्ड जाली थे और 3 राशन कार्ड दुहरे थे। शेष सभी जाली राशन कार्ड ऐसे थे जिनके मालिकों के पास जो आधार कार्ड थे उसमें कुछ समस्याएं थीं।
ऐसी सभी सामाजिक योजनाओं में कभी सभी जरूरतमंद जनता को फायदा मिलता भी नहीं है। झारखंड में आज के दिन सुविधाएं वर्ष 2000-2001 में किये गए सामाजिक सर्वेक्षण के आधार पर की जा रही हैं। ऐसी ही स्थिति पूरे देश में हैं, जबकि साल-दर-साल आबादी बढ़ती हैं और आबादी की आर्थिक हालत भी बदलती है।
हरेक सहायता के डिजिटलीकरण का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि एक भी गलत कैलकुलेशन से लाखों लोग प्रभावित होते हैं और ऐसी गलतियाँ हरेक जगह होती हैं, बार-बार होती हैं। ऑस्ट्रेलिया में एक ऐसी गलती की वजह से हाल में ही जिन्हें सरकार आर्थिक सहायता देती थी, उन सबके पास उससे दुगुनी राशि वापस करने का आदेश पहुँच गया था।
आज हम विकास के उस दौर में खड़े हैं जहां मानव का विकास पीछे जाने लगा है और रोबोट्स और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का विकास तेजी से हो रहा है। मनुष्य और समाज तो बस चिप के हवाले रह गया है। यह बहुत खतरनाक स्थिति इसलिए भी है, क्योंकि इसकी और कोई ध्यान नहीं दे रहा है और सरकारें अपने फायदे के लिए इसे बढ़ावा देती जा रही हैं।