Begin typing your search above and press return to search.
संस्कृति

पोर्न से भरी हैं जब मोबाइलें तो किस काम का सेंसर बोर्ड

Janjwar Team
30 Sept 2017 5:56 PM IST
पोर्न से भरी हैं जब मोबाइलें तो किस काम का सेंसर बोर्ड
x

बोर्ड सदस्य कहते हैं अर्धशिक्षित समाज में सेंसरशिप जरूरी है, नहीं तो बात मार काट तक पहुँच जाएगी। 21वीं सदी के सूचना प्रौद्योगिकी युग में हर हाथ मोबाइल की स्क्रीन पर होते हुए उनका यह कथन गैर जरूरी मालूम पड़ता है...

मनीष जैसल

सेंसर बोर्ड के पास अपनी सेंसर की हुई फिल्मों से जुड़े दस्तावेज़ तो नहीं हैं, लेकिन अधिनियम अंग्रेज़ों के जमाने का ही सहेज कर चल रहे हैं।

बीते 3 सालों से सेंसर बोर्ड की गतिविधियों को देखें तो लीला सैमसन के समय फिल्म 'विश्वरूपम' को लेकर हुए विवाद और उनके इस्तीफे से लेकर पहलाज निहलानी की नियुक्ति और फिर उनका विवादित अपूर्ण कार्यकाल भी हमने इन्हीं सालों में देख लिया।

बोर्ड के मौजूदा अध्यक्ष मोदी जी को अच्छे दिन के स्लोगन को देने वाले प्रसून जोशी हैं। इनके आते ही निर्देशक शैलेंद्र कुमार पांडे की फिल्म 'जेडी' को लेकर विवाद इन दिनों चरम है।

आखिर सेंसर बोर्ड विवादों में क्यों रहता है? इसे जस्टीफाई करना मुश्किल है। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड जिसे 1981 में केंद्रीय सेंसर बोर्ड से हटा कर नया नाम दिया गया था। प्रमाणन के लिए बनाए गए बोर्ड की स्थापना ही अंग्रेज़ों के बनाए क़ानूनों पर आधारित है। तभी तो बोर्ड की पूर्व सदस्य प्रोफेसर नंदिनी सरदेसाई ने कहा कि सेंसर बोर्ड हो, लेकिन अंग्रेज़ों के जमाने जैसा नहीं।

पुलिस की भूमिका अब मॉरल पुलिसिंग में बदलने भर से नए भारत का उदय नहीं हो जाएगा। नग्नता और हिंसा को प्रमुखता से देखने वाला प्रमाणन बोर्ड भी सिनेमा माध्यम को मनोरंजन माध्यम से अधिक नहीं मानता। सिने अध्येता भी ऐसी फिल्में जिसमें पारंपरिक लय और दृश्य नहीं दिखते, उन्हें लीक से हटकर बनने वाला सिनेमा कहकर अपना पल्ला झाड़ते हुए देखे गए हैं।

अंग्रेज़ों के जमाने में बने अधिनियम में टीपीओ कॉर्नर द्वारा प्रस्तावित 43 कोड ऑफ मोरालिटी को हमने 1952 में भी अपना लिया। 1978 में 10 तथा 2009 में 10 और मोरलिटी भंग होने वाले बिंदुओं को उसमें जोड़ा गया, जिससे हमारे सेंसर बोर्ड के और भी प्रगाढ़ होने की संभावनाओं को समझा जा सकता है।

जिन कोड्स के आधार पर फिल्मों को सर्टिफ़ाई किया जाता है वो नग्नता और धार्मिक भावनाओं के खतरे को ज्यादा आँकते हुए दिखाई देते हैं। लेकिन यह प्रश्न कहीं उठते हुए नहीं दिखता कि समय समय पर जो लोग फिल्मों को प्रमाणित करने वाली समिति में रहे हैं, उनकी अर्हता क्या रही है।

वो ड्राइवर, कुली, नेता, बदमाश, दुकानदार आदि कोई भी ऐसा व्यक्ति हो सकता है जिसका फिल्म से कोई सीधा संबंध नहीं होता। ऐसे में फिल्मों के प्रमाणन के बाद लगाए जाने वाले नोट को पढ़कर हास्यास्पद स्थिति बनती है तो इसमे कोई अचरज नहीं होना चाहिए।

बोर्ड के पास तो अपने स्थापना के वर्ष के बाद के फिल्मों को प्रमाणित किए जाने वाले, उनमें लगाए गए कट्स की सूची तथा अन्य जरूरी सूचनाएं ही नहीं हैं। लेकिन बोर्ड ब्रिटिश काल के सेंसरशिप नियम बड़ी ही संजीदगी से इस्तेमाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा।

बोर्ड सदस्यों की नियुक्ति के बाद उन्हें एक ऐसी नोटबुक पकड़ा दी जाती है जिसमें सबकुछ पहले से ही तय है कि फिल्म में क्या होना चाहिए, क्या नहीं। बिलकुल ब्रिटिश फिल्म सेंसर बोर्ड की तर्ज पर। कई बोर्ड सदस्यों की मानें तो वो वे कहते हैं कि अर्धशिक्षित समाज में सेंसरशिप जरूरी है, नहीं तो बात मार काट तक पहुँच जाएगी। 21वीं सदी के सूचना प्रौद्योगिकी युग में हर हाथ मोबाइल की स्क्रीन पर होते हुए उनका यह कथन गैर जरूरी मालूम पड़ता है। एक सर्वेक्षण और विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि अधिकतर मोबाइल में आपको पोर्न की टैब खुली आसानी से मिल जाएगी।

बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष विजय आनद भी इसी आधार पर पोर्न फिल्मों के लिए अलग से थियेटर की मांग करते रह गए, लेकिन धार्मिकता के आड़ में सरकारों ने इस ओर कोई प्रयास नहीं किए। अन्तत; उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था।

बोर्ड को चाहिए की अपने आप को पहले लोकतांत्रित बनाए। उसकी प्रक्रिया पारदर्शी बनाए। फिल्मों में क्या रहेगा क्या नहीं, से ज्यादा फिल्म को सही आयु वर्ग में विभाजित करने पर ध्यान दें। यह सब तभी हो सकता है जब फिल्म को प्रमाणित करने वाले लोगों की नियुक्ति के लिए जरूरी अर्हता को लागू किया जाएगा, नहीं तो मानसिक बीमार लोगों को माँ का स्तनपान कराना भी अश्लील लगेगा और अश्लीलता बेच रही कॉमेडी फिल्में मनोरंजन का प्रमुख साधन।

बाकी दर्शक को सेंसरशिप के पहलुओं से जोड़ने के लिए सर्वेक्षण की जरूरत अब महसूस होने लगी है। दर्शक के लिए ही राज्यों की सरकारों ने एक लंबे अरसे से रोटियाँ सेंकने का काम किया है। अब उसे बदलने की जरूरत है।

दर्शक ही तय करें कि उन्हें क्या देखना है क्या नहीं। 25 लोगों का बोर्ड 125 करोड़ लोगों के फैसले लेगा तो दिक्कतें आएँगी ही। ऊपर से उनके ही चयन का आधार खुद ही बहुत फूहड़ और राजनीतिक है।

(मनीष जैसल वर्धा से 'सेंसरशिप के नैतिक मानदंड और हिन्दी सिनेमा' पर पीएचडी कर रहे हैं।)

Janjwar Team

Janjwar Team

    Next Story

    विविध