स्वतः स्फूर्त आंदोलन को दक्षिणपंथी मान सिरे से ख़ारिज करना होगी वामपंथ की भूल
आकोपायी वाल स्ट्रीट और अरब की जैस्मिन क्रांति जैसे कई आंदोलन क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में सफल नहीं रहे। इनकी परिणति दक्षिणपंथ के उभार में हुई। भारत में भी जनलोकपाल बिल को लेकर हुए आंदोलन के बाद उग्र दक्षिणपंथी पार्टी भाजपा सत्ता में आयी...
अभिषेक आजाद की टिप्पणी
फ्रांस के पेरिस शहर से शुरू हुआ 'येलो वेस्ट प्रोटेस्ट' रुकने का नाम नहीं ले रहा। यह यूरोप के सभी देशों तक पहुंच चुका है। कुछ अति आशावादी वामपंथी इस आंदोलन को पूंजीवाद के खात्मे के रूप में देख रहे हैं, किन्तु पूंजीवादी व्यवस्था में इस तरह से सहज, स्वाभाविक और स्वतः स्फूर्त आंदोलन कोई नयी बात नहीं है। पूंजीवाद के खात्मे के लिए इस आंदोलन का संगठित और वैचारिकी से समृद्ध होना जरूरी है क्योंकि क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता।
वर्तमान दक्षिणपंथी-पूंजीवादी शोषणकारी व्यवस्था ने यह भ्रम फैला रखा है कि आंदोलन स्वतः स्फूर्त होना चाहिए। यह लोग वैचारिकी, नेतृत्व और रणनीति से निर्देशित संगठित आंदोलन को राजनीति से प्रेरित या कृत्रिम आंदोलन बताकर उसकी निंदा करते हैं।
शोषणकारी व्यवस्था के समर्थक हरसम्भव प्रयास करते हैं कि लोगों को संगठित होने से रोका जाए, क्योंकि इन्हें पता है कि अगर संगठित होकर विरोध किया जाए तो असमानता की पोषक वर्तमान व्यवस्था एक पल भी ठहर नहीं पायेगी। इस शोषणकारी व्यवस्था के समर्थक हरसंभव प्रयास करते हैं कि छात्रों तथा आमजन को राजनीतिक होने से रोका जाए।
यह छात्रों को व्यक्तिगत स्तर पर निजी प्रयास करने तथा सामूहिक प्रयास से बचने की सलाह देते हैं। ऐसे लोगों के अनुसार किसी भी राजनीतिक संगठन या विचारधारा से जुड़ना गलत है। ये समाज से अलग-थलग पड़े बुद्धिजीवियों को आदर्श के रूप में पेश करते हैं, क्योंकि इनको पता है कि निजी और व्यक्तिगत प्रयासों से वर्तमान व्यवस्था को कोई खतरा नहीं है।
यह निजी और व्यक्तिगत प्रयासों को प्रोत्साहन भी देते हैं, किन्तु जैसे ही लोग संगठित होना शुरू करते हैं, शोषक के जूठन पर पलने वाले परजीवी बुद्धिजीवी संगठित प्रयास की आलोचना करना शुरू कर देते हैं। उन्हें डर हमारे संगठित होने से लगता है क्योंकि संगठित होने से हमारी ताकत कई गुना बढ़ जाती है।
पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर स्वतः स्फूर्त आंदोलन कोई नई बात नहीं है। पूंजीवाद को इस तरह के आंदोलन से कोई खतरा नहीं है। स्वतः स्फूर्त आंदोलन वैचारिकी, रणनीति और नेतृत्व के अभाव में जनाक्रोश की अभिव्यक्ति मात्र बनकर रह जाता है। 21वीं सदी की शुरुआत में हमने आकोपायी वाल स्ट्रीट और अरब की जैस्मिन क्रांति जैसे कई आंदोलन देखे, किन्तु कोई भी आंदोलन क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में सफल नहीं रहा। अंततः इनकी परिणति दक्षिणपंथ के उभार में हुई। भारत में जनलोकपाल बिल को लेकर हुए आंदोलन के बाद उग्र दक्षिणपंथी पार्टी भाजपा सत्ता में आयी।
स्वतः स्फूर्त आंदोलन केवल तभी बड़ा परिवर्तन ला सकता है, जब वक्त रहते इसे नेतृत्व, वैचारिकी और रणनीति उपलब्ध हो। स्वतः स्फूर्त आंदोलन को अपने पक्ष में करना दक्षिणपंथी ताकतों के लिए आसान होता है और वे काफी हद तक इस काम में सफल भी रहे हैं।
स्वतः स्फूर्त आंदोलन को दक्षिणपंथी मान लेना या उसे सिरे से ख़ारिज करना वामपंथ की भूल होगी। स्वतः स्फूर्त आंदोलनकारियों को अगर वैचारिकी, रणनीति और नेतृत्व से समृद्ध किया जाए तो यह एक बड़े परिवर्तन का माध्यम बन सकता है। कोई भी आंदोलन बड़ा परिवर्तन तभी ला सकता है जब वह सुनियोजित, संगठित और निर्देशित हो।
जब हम संगठन, नियोजन और निर्देशन की बात करते हैं तो पार्टी, प्रोग्राम और रणनीति महत्वपूर्ण हो जाते हैं। जब तक हम किसी संगठन या वैचारिकी से न जुड़ें, हम कोई भी बड़ा परिवर्तन नहीं ला सकते। इसलिए जब भी कोई व्यक्ति संगठन या वैचारिकी से जुड़ता है तो दक्षिणपंथी शोषणकारी व्यवस्था के पोषक उससे नाराज़ हो जाते हैं। इन लोगों का इतना सा कहना है कि कुछ भी करो, किसी भी लेखक को पढ़ो, किन्तु संगठन और वैचारिकी से मत जुड़ो क्योंकि इनको पता है कि आप संगठन और वैचारिकी से जुड़कर ही कुछ कर सकते हैं। ये लोग आपको रोकने का हर संभव प्रयास करते हैं।
हमारा राजनीतिक और संगठित होना बहुत जरूरी है, ताकि हम इस दुनिया को बेहतर बना सकें। अगर हम दुनिया को बदलना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें राजनीतिक रूप से सक्रिय और संगठित होना पड़ेगा।
(अभिषेक आज़ाद दिल्ली विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग में शोधछात्र और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं।)