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विमर्श

राजनीतिक सत्ता से बड़ी न कोई विचारधारा न ही कोई बिजनेस - पुण्य प्रसून वाजपेयी 

Prema Negi
28 Aug 2018 10:31 PM IST
राजनीतिक सत्ता से बड़ी न कोई विचारधारा न ही कोई बिजनेस - पुण्य प्रसून वाजपेयी 
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धीरे-धीरे आजादी के बाद से लोकतंत्र की समूची खुशबू ही जिस तरह चुनावी राजनीति में जा सिमटी है, उसमें अब देश का मतलब चुनाव है और चुनाव का मतलब है सत्ता पाने की होड़...

वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी का वृहत विश्लेषण

क्या राजनीतिक सत्ता का खेल अब इस चरम पर पहुंच गया है, जहां देश में हर विचार सत्ता के लिये है। सत्ता का मतलब है सबसे ज्यादा मुनाफा। कारपोरेट हो या मीडिया, अदालत हो या औद्योगिक घराने, धंधा खनन का हो या इन्फ्रास्ट्रक्चर का, सभी को चलना सत्ता के इशारे पर ही है और अपने—अपने दायरे में सभी का मुनाफा राजनीतिक सत्ता से तालमेल बैठकर ही संभव है।

तो क्या राजनीतिक का अपराधीकरण या फिर माफिया राजनीतिक नैक्सस से आगे बात निकल चुकी है, जहां देश एक बाजार है और हर काम एक बिजनेस। सबसे बडा बिजनेस राजनीतिक सत्ता है, जिसके पास आ गई उसकी ताउम्र की लाटरी खुल गई। इसी लाटरी की जद्दोजहद ही देश में विचार भी है और विचारधारा भी।

जरा इसे सिलसिलेवार तरीके से परख लें। मसलन, केरल संकट को ऱाष्ट्रीय आपदा क्यों नहीं माना गया क्योंकि वहां बीजेपी की सरकार नहीं है? बिहार के मुजफ्फरपुर से लेकर आरा तक जो लड़कियों से लेकर महिला के साथ हुआ उसे जंगलराज नहीं माना सकता, क्योंकि वहां की सत्ता में बीजेपी साथ है?

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की सत्ता बीजेपी के लाउडस्पीकर की आवाज बंद कर देती है क्योंकि वह बीजेपी की नहीं हैं और बीजेपी से राजनीतिक तौर पर दो—दो हाथ कर रही हैं? यूपी में इनकाउंटर दर इनकाउंटर पर कोई सवाल जवाब नहीं करता, चाहे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ही आवाज क्यों न लगाये?

क्योंकि योगी की सत्ता संघ की मोदी की सत्ता का ही विस्तार है? किसान-मजदूर, स्वदेशी, महिला, आदिवासी सरीके दर्जनों समुदाय से जुड़े मुद्दे जो कल तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सेवा से जुड़े थे, अब उसको भी सत्ता की नजर लग गई है, यानी जो सत्ता करे वह ठीक? और ठीक का मतलब शिक्षा का क्षेत्र हो या हेल्थ का। रोजगार का सवाल हो या किसानी का। महिलाओं के खिलाफ बढते मामले हो या फिर दलित उत्पीड़न के मामले। हर सवाल का जवाब खोजना होगा तो राजनीतिक सत्ता के दरवाजे पर दस्तक देनी ही होगी।

चाहे अनचाहे सारे सवाल उस राजनीति से टकरायेंगे, ही जो मुद्दों के समाधान की जगह मुद्दों को हड़पकर सत्ता पाने या सत्ता ना गंवाने की दिशा को तय करेंगे। तो क्या दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश वाकई उसी लोकतंत्र को जी रहा है, जिसका नाम है चुनावी लोकतंत्र। चुनाव ही देश का सिस्टम बनाता है। चुनाव ही राजनीतिक दलों के भीतर रोजगार पैदा करता है। चुनाव में जीतने वाले का राजनीतिक घोषणापत्र ही देश का संविधान होता है।

चुनाव में सत्ता के लिये काम करना ही संवैधानिक संस्थाओं का मूल धर्म है। चुनावी तौर तरीके ही देश में कानून का राज बताने दिखाने के लिये काम करते हैं। दलित उत्पीड़न हो या मुस्लिम इनकाउंटर कानून चुनावी जोड़-घटाव करने वाले राजनीतिक सत्ता के सामने नजमस्तक होकर पूछता ही है, करना क्या है? यानी लकीर बारीक है, पर धीरे—धीरे आजादी के बाद से लोकतंत्र की समूची खुशबू ही जिस तरह चुनावी राजनीति में जा सिमटी है उसमें अब देश का मतलब चुनाव है और चुनाव का मतलब है सत्ता पाने की होड़।

यानी देश की विचारधारा, देश का धर्म, देश की संस्कृति, देश की पहचान, क्या ये सब मायने रखते हैं अगर इन शब्दों का इस्तेमाल राजनीति न करें। या फिर इन शब्दों के आसरे सत्ता न मिल पाये तो ये शब्द क्या मायने रखते हैं। नेहरू का समाजवाद हो या मार्क्स-लेनिन करते हुए वर्ग संघर्ष का सवाल उठाने वाली वामपंथी सोच या फिर हिन्दुत्व का नारा लगाते स्वयंसेवकों की टोली से निकली जनसंघ फिर बीजेपी, ध्येय सत्ता रही। हर राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता-नेताओं के लक्ष्य ने कुछ हद तक अपनी अपनी विचारधारा को राजनीतिक तौर पर मथने का वक्त देश की जनता को दिया।

पर जब विचार ही सत्ता पाना हो जाये तो क्या होगा। इमरजेंसी के बाद मोरारजी की सत्ता को उनके साथी सत्ताधारी ही चुनौती देते हैं, क्योंकि उन्हें आपातकाल के बाद के हालात को बदलना नहीं था बल्कि सत्ता पाना था। चरण सिंह, बाबू जगजीवन राम से लेकर जनता पार्टी से जुड़े स्वयंसेवकों की दोहरी सदस्यता सवाल उठाते हुये अपने अपने सत्ता के लक्ष्य की दिशा में बढ़ जाती है। वीपी सिंह बोफोर्स घोटाले की आग में हाथ सेंकते हुये सत्ता पाते हैं, पर देश को घोटाले या भ्रष्टाचार से आगे ले नहीं जा पाते। मंडल कमंडल की आग जाति-धर्म को वोट बैंक बना कर सत्ता पाने का खेल सिखा देती है।

क्षत्रपों की पूरी कतार ही राष्ट्रीय राजनीति करने वाले राजनीतिक दल और उनके नेताओं को हराने में इसलिए सक्षम हो जाती है क्योंकि विचारधारा किसी के पास बची नहीं या कहे सत्ता पाना ही प्रमुख विचारधारा बन गई। फिर सत्ता के करीब होकर सत्ता की मलाई पाना हो या सत्ता के जरिए अपने न्यूनतम काम कराना हो, इसे क्षत्रपों की राजनीति से बल मिला।

धीरे धीरे सत्ता ही सिस्टम हो गया और सिस्टम का काम करना ही सत्तानुकूल हो गया। कोई विचार बचा नहीं कि देश कैसे गढ़ना है। कोई सोच बची नहीं कि देश के सांस्कृतिक मूल्य भी मायने रखते हैं। तो फिर संस्थानों का सत्तानुकूल होना भर नहीं, बल्कि संस्थानों का ढहना भी शुरू हो गया।

सिर्फ संवैधानिक या स्वायत्त संस्धान मसलन सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग, सीवीसी, सीबीआई, आईसी, यूजीसी ही नहीं ढहे, बल्कि भविष्य के लिये कैसे भारत को गढ़ा जाये इस पर सीधे असर डालने वाली शिक्षा व्यवस्था भी उसी राह निकली। यानी कॉलेज-विश्वविघालय में क्या पढाया जाये और कौन पढाये तक सत्ता की निगरानी में आ गया। असर इसी का है मौजूदा वक्त में भारत दुनिया का नंबर एक देश है जहां से सबसे ज्यादा छात्र उच्च शिक्षा के लिये देश छोड़ रहे हैं। दूसरी तरफ भारत ही दुनिया का नंबर एक देश है, जो अपने ही भविष्य को यानी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा दे पाने में सक्षम हो नहीं पा रहा है।

तो लकीर वाकई महीन है कि सत्ता पाने की होड़ में फंसे देश में चुनाव क्यों कैसे महत्वपूर्ण हो गया और 2014 के बाद के हालात चरम पर तो नहीं पहुंच गये। क्योंकि 2014 में सिर्फ सत्ता पाने की बात थी। सत्ता के लिये क्या कुछ हुआ उसे दोहराने से अच्छा है कि अब 2019 से पहले कैसे सत्ता के बनाये कटघरे में ही सत्ता पाने के लिये हर राजनीतिक दल मचल रहा है। कोई भी जाति, धर्म, संप्रदाय से जुडा कोई भी मुद्दा हो या फिर शिक्षा, स्वस्थ्य, रोजगार से लेकर किसान-मजदूर, महिला, दलित अल्पसंख्यक का मुद्दा।

किसी राजनीतिक पार्टी के पास क्या कोई विचार है। क्या देश में कोई विचारधारा भारत को गढने के लिये है। क्या दुनिया को मौजूदा भारत अतीत के स्वर्णिम दौर के अलावे कोई संदेश दे सकता है कि आने वाले वक्त में कैसा भारत होगा। क्योंकि दुनिया के लिये भारत एक बाजार है। जहां जनसंख्या के लिहाज से एक तबका सबसे बड़ा उपभोक्ता है। दुनिया के लिये भारत का मतलब भारत डंपयार्ड है जहां प्रतिबंधित दवाई से लेकर हथियार बेचे जा सकते हैं।

दुनिया के लिये भारत सस्ते मजदूर। मुफ्त का इन्फ्रास्ट्रक्चर। खनिज की लूट का प्रतीक है। और ये सारे अधिकार किस सत्ता के पास होनेा चाहिये या फिर सत्ता कैसे इन अधिकारों को अपने हक में करने के लिये बैचेन है। ध्यान दीजिये तो मौजूदा वक्त में देश का विचार यही है विचारधारा यही है। क्योंकि राजनीति से बड़ा कोई बिजनेस है नहीं और सबसे मुनाफे वाले धंधे से बड़ा कोई विचार अभी दुनिया में है नहीं।

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