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राजनीति

मुस्लिम पक्ष ने कहा 1992 में मस्जिद गिराने का असल मकसद था हकीकत को मिटाना

Prema Negi
21 Sep 2019 12:56 PM GMT
मुस्लिम पक्ष ने कहा 1992 में मस्जिद गिराने का असल मकसद था हकीकत को मिटाना
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मुस्लिम पक्ष ने 'बाबरनामा' के अलग-अलग संस्करण और अनुवाद से साबित करने की कोशिश की कि मस्जिद को बनवाया था बाबर ने, कोर्ट में उन दस्तावेजों को भी पढ़ा गया, जिनके मुताबिक विवादित संरचना पर अरबी और फारसी में लिखा था अल्लाह

जेपी सिंह की रिपोर्ट

योध्‍या मामले में 28वें दिन की सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ के समक्ष मुस्लिम पक्ष के वकील राजीव धवन ने 'बाबरनामा' के अलग-अलग संस्करण और अनुवाद से साबित करने की कोशिश की कि मस्जिद को बाबर ने ही बनवाया था। धवन ने उन दस्तावेजों को पढ़ा, जिसके मुताबिक विवादित संरचना पर अरबी और फारसी में अल्लाह लिखा था।

राजीव धवन ने कहा कि 1989 में न्यास ने मामले में दावेदारी पेश की और उन्ही दिनों कार सेवक सक्रिय हुए और फिर ढांचा तोड़ दिया गया, ताकि मंदिर बनाया जा सके। उन्‍होंने कहा कि जान—बूझकर मस्जिद तोड़ा गया, ताकि वहां मंदिर बनाया जा सके। न्यास के दावे के बाद ही कर सेवा शुरू किया गया और ढांचा तोड़ा गया।

वन ने कहा कि 1992 में बाबरी मस्जिद में गिराए जाने का मकसद हकीकत को मिटाया जाना था, इसके बाद हिन्दू पक्ष कोर्ट में दावा कर रहा है। सोची-समझी चाल के तहत इसके लिए बाकायदा 1985 में रामजन्मभूमि न्यास का गठन किया गया। 1989 में जहां इसको लेकर मुकदमा दायर किया, वहीं दूसरी ओर विश्व हिंदू परिषद ने देशभर में हिंदुओं से शिला इकट्ठी करने का अभियान शुरू कर दिया।

माहौल इस कदर खराब कर दिया गया कि उसका नतीजा 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के तौर पर सामने आया। धवन ने ये भी कहा कि श्रीराम जन्म स्थान के नाम से याचिका दाखिल करने का मकसद मुस्लिम पक्ष को ज़मीन से पूरी तरह बाहर करना था।

वन ने मामले के एक पक्षकार गोपाल सिंह विशारद की ओर से दायर केस में 22 अगस्त 1950 को एडवोकेट कमिश्नर बशीर अहमद की ओर से पेश रिपोर्ट का हवाला दिया। धवन के मुताबिक इस रिपोर्ट में विवादित ढांचे पर मौजूद कई शिलालेख का जिक्र था। इन शिलालेखों के मुताबिक बाबर के निर्देश पर उनके कमांडर मीर बाकी ने ही बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया था। इन शिलालेखों पर हिंदू पक्ष आपत्ति जता रहा है, लेकिन उनकी आपत्ति निराधार है।

शिलालेखों का वर्णन बकायदा विदेशी यात्रियों के यात्रा संस्मरण और गजेटियर जैसे सरकारी दस्तावेजों में है। धवन ने कहा कि अपनी दलीलों के समर्थन में इन्हीं यात्रा- संस्मरणों और शिलालेखों का हवाला देने वाला हिंदू पक्ष कैसे इन शिलालेखों को नकार सकता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इन शिलालेखों के बीच विरोधाभास को मानते हुए शिलालेखों को नकार दिया, जो सही नहीं है।

योध्या मामले में अगली सुनवाई सोमवार 23 सितंबर को होगी। सुप्रीम कोर्ट सोमवार को शाम 5 बजे तक सुनवाई करेगा। सुप्रीम कोर्ट ने के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद मामले में सोमवार से रोजाना एक घंटा अतिरिक्त सुनवाई करने का निर्णय किया है। यह समय इसलिए बढ़ाया गया है, ताकि अयोध्या मामले की सुनवाई 18 अक्टूबर तक पूरी की जा सके।

सके पहले सुनवाई के 27वें दिन आ धवन ने विवादित इमारत की मुख्य गुंबद के नीचे गर्भगृह होने के दावे को बाद में गढ़ा गया बताया। जजों ने इस पर उनसे कुछ सवाल किए। धवन ने सवाल कर रहे जज के लहजे को आक्रामक बताया। हालांकि बाद में उन्होंने अपने बयान के लिए माफी मांगी।

स बीच संविधान पीठ ने अयोध्या-बाबरी विवाद मामले की सुनवाई करते हुए वरिष्ठ वकील राजीव धवन द्वारा दायर अवमानना याचिका पर 88 वर्षीय प्रोफेसर एन. शनमुगम के खिलाफ कार्रवाई बंद कर दी, क्योंकि उन्होंने बिना शर्त माफ़ी मांग ली। गुरुवार 19 सितंबर को प्रोफेसर की ओर से संविधान पीठ को यह कहा गया कि इसके लिए वो अदालत और राजीव धवन से बिना शर्त माफी मांगते हैं। हालांकि इस दौरान चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा कि वो पहले ही 88 वर्ष के हैं। इस पर धवन की ओर से पेश वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि वो इस मामले में कोई सजा नहीं चाहते।

वन की मुख्य दलील इस पर आधारित थी कि विवादित इमारत के बाहर बना राम चबूतरा वह जगह है जिसे भगवान राम का जन्म स्थान कहा जाता था। उनका कहना था कि 1885 में महंत रघुवरदास की तरफ से दाखिल मुकदमे में यही कहा गया था। मुख्य गुंबद के नीचे असली गर्भगृह होने की धारणा को बाद में बढ़ाया गया। इसी वजह से 22-23 दिसंबर, 1949 की रात वहां गैरकानूनी तरीके से मूर्तियां रख दी गई।

1980 के बाद जन्मभूमि का सिद्धांत सामने आया है। जन्मभूमि और जन्मस्थान उसके बाद का ही कॉन्सेप्ट है। 1885 में तमाम कार्रवाई राम चबूतरा के लिए हुई थी। उस वक्त भगवान राम का जन्मस्थान वहीं बताया गया था। मस्जिद के बीच वाले गुंबद के नीचे के स्थान का जिक्र नहीं था।

वन ने ये भी कहा कि 1949 के केस के बाद ही तमाम गवाह सामने बयान के लिए आए हैं, लेकिन किसी गवाह के बयान से जाहिर नहीं होता कि रेलिंग के पास लोग पूजा के लिए क्यों जाते थे। इस बात का किसी को पता नहीं है। दरअसल बुधवार 18 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने सवाल किया था कि राम चबूतरा के पास बने रेलिंग के पास लोग पूजा के लिए क्यों जाते थे? गवाह के बयान हैं कि हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदाय के लोग प्रेयर करते थे। औरंगजेब के समय से ही दोनों समुदाय के लोग वहां प्रार्थना के लिए जाते थे। हिंदू पक्ष के एक गवाह के बयान से साफ है कि बीच वाले गुंबद के नीचे कोई मूर्ति नहीं थी वहां कोई पूजा नहीं होती थी। मूर्ति वहां 1949 में रखी गई।

वन ने बहस के दौरान एक बार फिर रामलला विराजमान की तरफ से याचिका दाखिल करने वाले रिटायर्ड जज देवकीनंदन अग्रवाल पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा, "अग्रवाल 1986 में राम जन्मभूमि न्यास के सदस्य बने। 1989 में उन्होंने खुद को भगवान का नेक्स्ट फ्रेंड बताते हुए याचिका दाखिल कर दी। सवाल यह है कि भगवान की तरफ से कौन याचिका दाखिल कर सकता है? जो उनकी पूजा कर रहा है या कोई भी? हाईकोर्ट ने अग्रवाल की याचिका स्वीकार कर ली। उनसे सवाल नहीं पूछे गए। असल में इस याचिका पर सुनवाई ही नहीं होनी चाहिए थी।

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