अयोध्या भूमि विवाद पर संविधान पीठ ने कहा 9 नवंबर के ऐतिहासिक फैसले पर पुनर्विचार का नहीं है कोई आधार
अधिकतर मामलों में उच्चतम न्यायालय वकीलों को दलील पेश करने का मौका दिए बगैर याचिकाओं को खारिज कर देता है, उसी के अनुरूप बंद चैंबर में पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने अयोध्या भूमि विवाद से संबंधित 18 अर्जियों पर सुनवाई की और सभी याचिकाएं सरसरी तौर पर खारिज कर दी गईं...
जेपी सिंह की रिपोर्ट
जैसा कि पहले से माना जाता है पुनरीक्षण याचिकाओं की सफलता की संभावना नहीं के बराबर होती है और अधिकतर मामलों में उच्चतम न्यायालय वकीलों को दलील पेश करने का मौका दिए बगैर याचिकाओं को खारिज कर देता है, उसी के अनुरूप बंद चैंबर में पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने अयोध्या से संबंधित 18 अर्जियों पर सुनवाई की और सभी याचिकाएं सरसरी तौर पर खारिज कर दी गईं।
इस मामले में 9 याचिकाएं पक्षकार की ओर से, जबकि 9 अन्य याचिकाकर्ता की ओर से दाखिल की गयीं गई थीं। संविधान पीठ ने कहा कि याचिकाओं में कोई मेरिट नहीं है। 9 नवंबर के फैसले पर पुनर्विचार करने का कोई आधार नहीं है।
उच्चतम न्यायालय जब यह मानकर चल रहा हो कि देश के सबसे पुराने और विवादास्पद धार्मिक विवाद को सिर्फ उसके दिए फैसले से ही सुलझाया जा सकता था तो ऐसी स्थितियों में अयोध्या फैसले में विसंगतियों के साफ संकेत मौजूद होने और इस मुद्दे के चर्चा में होने के बावजूद उच्चतम न्यायालय के पुनर्विचार के लिए राज़ी होने का प्रश्न ही नहीं था।
संविधान पीठ ने विचार के बाद यह पाया है कि याचिकाएं खुली अदालत में सुनवाई के लायक नहीं हैं। मूल पक्षकारों की याचिका में संविधान पीठ ने कोई नई बात नहीं पाई। वहीं नए लोगों को इजाज़त ही नहीं दी। संविधान पीठ ने कहा कि जो लोग पहले से इस केस में नहीं जुड़े थे उनकी याचिकाओं पर सुनवाई नहीं हो सकती।
इस मामले पर कल 12 दिसंबर को बंद कमरे में करीब 50 मिनट तक सुनवाई चली। अयोध्या में राम मंदिर विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए कुल 18 पुनर्विचार याचिकाएं डाली गई थीं। बंद चैंबर में पांच जजों की संवैधानिक बेंच ने 18 अर्जियों पर सुनवाई की और सभी याचिकाएं खारिज कर दी गईं। इस मामले में 9 याचिकाएं पक्षकार की ओर से, जबकि 9 अन्य याचिकाकर्ता की ओर से लगाई गई थी।
चीफ जस्टिस एसए बोबडे के साथ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस एस अब्दुल नजीर और संजीव खन्ना ने पुनर्विचार याचिकाओं पर फैसला लिया। इस पीठ में जस्टिस संजीव खन्ना नए सदस्य थे। पिछली पीठ की अगुवाई करने वाले तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई अब रिटायर हो चुके हैं। संजीव खन्ना ने उनकी जगह ली है।
गौरतलब है कि राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया था अयोध्या में यह विवाद सदियों से चला आ रहा था। तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुवाई में पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने फैसला सुनाते हुए विवादित जमीन का मालिकाना हक रामलला को दिया था। मुस्लिम पक्ष को अलग स्थान पर जगह देने के लिए कहा गया था। यानी सुन्नी वफ्फ बोर्ड को कोर्ट ने अयोध्या में ही अलग जगह 5 एकड़ जमीन देने का आदेश दिया था।
कोर्ट ने कहा था कि केंद्र या राज्य सरकार अयोध्या में उचित स्थान पर मस्जिद बनाने को जमीन दे।उच्चतम न्यायालय ने इसके साथ ही सरकार को एक नया ट्रस्ट बनाने का भी आदेश दिया था, जिसे वह जमीन मंदिर निर्माण के लिए दी जाएगी।
मुस्लिम पक्ष की तरफ से दाखिल पुनर्विचार याचिकाओं में कहा गया है था कि 9 नवंबर को आया फैसला 1992 में मस्जिद ढहाए जाने को मंजूरी देने जैसा, 1949 में अवैध रूप से जिस मूर्ति को रखा गया उसी के पक्ष में फैसला सुनाया गया। अवैध हरकत करने वालों को ज़मीन दी गई, हिंदुओं का कभी वहां पूरा कब्ज़ा नहीं था। मुसलमानों को 5 एकड़ जमीन देने का फैसला पूरा इंसाफ नहीं कहा जा सकता तथा उच्चतम न्यायालय 9 नवंबर के फैसले पर रोक लगाए, मामले पर दोबारा विचार करे।
मुस्लिम पक्ष की याचिकाओं में कहा गया था कि ये याचिकाएं शांति और सद्भाव में खलल डालने के लिए नहीं बल्कि न्याय हासिल करने के लिए दाखिल की गई हैं। मुस्लिम संपत्ति हमेशा ही हिंसा और अनुचित व्यवहार का शिकार हुई है। फैसले में 1992 में मस्जिद के ढहाए जाने का फायदा दिया गया है। अवैध रूप से रखी गई मूर्ति कानूनी रूप से वैध नहीं हो सकती और इसके पक्ष में फैसला सुनाया गया है।
उच्चतम न्यायालय का 9 नवंबर का फैसला बाबरी मस्जिद के विनाश, गैरकानूनी तरीके से घुसने और कानून के शासन के उल्लंघन की गंभीर अवैधताओं को दर्शाता है। निर्विवाद तथ्य यह है कि हिंदू कभी भी एक्सक्लूसिव कब्जे में नहीं रहा। अवैधता में पाए गए सबूतों के आधार पर हिंदूओं ने दावा किया है।
उच्चतम न्यायालय के पांच एकड़ जमीन देने के फैसले पर भी सवाल उठाया गया है और कहा गया है कि पूजास्थल को नष्ट करने के बाद ऐसा कोई "पुनर्स्थापन" नहीं हो सकता। यह कोई कमर्शियल सूट नहीं था, बल्कि सिविल सूट था। उच्चतम न्यायालय का ये निष्कर्ष त्रुटिपूर्ण है कि यह दिखाने के लिए सबूत हैं कि हिंदुओं ने मस्जिद के परिसर में 1857 से पहले पूजा की थी। यह दिखाने के लिए सबूत हैं कि मुस्लिम 1857 और 1949 के बीच आंतरिक आंगन के एक्सक्लूसिव कब्जे में थे। ये निष्कर्ष सही नहीं है कि मस्जिद पक्ष प्रतिकूल कब्जे को साबित करने में सक्षम नहीं रहा।
गौरतलब है कि संविधान पीठ ने फैसले में कहा था कि हिंदू पक्षकारों के पास ज़मीन पर कब्ज़े के टाइटल का बेहतर दावा था और केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए ट्रस्ट के तत्वावधान में 2.77 एकड़ के पूरे क्षेत्र में एक मंदिर के निर्माण की अनुमति दी थी। इसी समय संविधान पीठ ने स्वीकार किया कि 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस एक घिनौना कृत्य था और मस्जिद के निर्माण के लिए यूपी सुन्नी वक्फ बोर्ड को 5 एकड़ वैकल्पिक भूमि के अनुदान का निर्देश देकर मुस्लिम पक्ष को मुआवजा दिया। इसे न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत "पूर्ण न्याय" करने का आदेश दिया था।
अयोध्या केस में सारी पुनर्विचार याचिकाएं खारिज होने के बाद अब बचा है सिर्फ क्यूरेटिव पिटीशन का विकल्प। फैसले से नाखुश पक्ष अभी भी कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं। हालांकि क्यूरेटिव पिटीशन पुनर्विचार याचिका से थोड़ा अलग है। इसमें फैसले की जगह मामले में उन मुद्दों या विषयों को चिन्हित करना होता है जिसमें उन्हें लगता है कि इन पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है। इस क्यूरेटिव पिटीशन पर भी पीठ सुनवाई कर सकता है या फिर उसे खारिज कर सकता है। इस स्तर पर फैसला होने के बाद केस खत्म हो जाता है और जो भी निर्णय आता है वही सर्वमान्य हो जाता है।
चूंकि ये रिप्रेजेंटेटिव सूट यानी प्रतिनिधियों के जरिए लड़ा जाने वाला मुकदमा था, इसलिए सिविल यानी दीवानी प्रक्रिया संहिता(सीपीसी) के तहत पक्षकारों के अलावा भी कोई पुनर्विचार याचिका दाखिल कर सकता था। फैज़ाबाद कोर्ट के 1962 के आदेश के मुताबिक सीपीसी के ऑर्डर एक रूल आठ के तहत कोई भी नागरिक पुनर्विचार याचिका दाखिल कर सकता है।
पुनरीक्षण याचिका संविधान के अनुच्छेद 137 के तहत दायर की गई थी, जिसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 145 के तहत निर्मित नियम-कानून के प्रावधानों के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय को अपने किसी भी फैसले पर पुनर्विचार का अधिकार है। दीवानी मामलों में पुनरीक्षण याचिकाओं पर विचार करते हुए कोर्ट नागरिक संहिता प्रक्रिया के आदेश XLVII की शर्त I से निर्देशित होता है। इसमें पुनर्विचार की वजहों की व्याख्या है, जिनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है ‘रिकॉर्ड में परिलक्षित कोई गलती या त्रुटि’।
दरअसल 1997 के परसियां देवी बनाम सुमित्री देवी मामले से स्थापित है कि त्रुटि पाए जाने की वजह से किसी फैसले पर पुनर्विचार भले ही किया जा सकता है, पर किसी त्रुटिपूर्ण फैसले में भी दोबारा सुनवाई या संशोधन की अनुमति नहीं होती है। पने फैसले में कोर्ट ने कहा था, 'याद रहे कि पुनरीक्षण याचिका का सीमित उद्देश्य होता है और इसे प्रछन्न अपील बनने नहीं दिया जा सकता।अयोध्या फैसले में कोई त्रुटि नहीं है। इसमें बस ये हुआ है कि उच्चतम न्यायालय ने बहुसंख्यकों की भावनाओं को इस उम्मीद में तरजीह दी है कि अन्य मौजूद विवादित मस्जिदों की जगह मंदिर बनाए जाने की अब और मांग नहीं उठाई जाएगी।'