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विमर्श

राज दरबार में अपमानित केजरीवाल और नेताओं के उजड्ड व्यवहार की परंपरा

Janjwar Team
6 July 2018 9:55 AM IST
राज दरबार में अपमानित केजरीवाल और नेताओं के उजड्ड व्यवहार की परंपरा
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राजनीतिज्ञों के राजनीतिक व्यवहार को बता रहे हैं पूर्व आईपीएस वीएन राय

दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने लम्बी जद्दोजहद के बाद सुप्रीम कोर्ट में मोदी सरकार की मनमानी के विरुद्ध, लोकतंत्र की लड़ाई जीत ली है, लेकिन स्वयं अपनी पार्टी में केजरीवाल की भी हैसियत किसी एकछत्र राजा से कम नहीं। आंतरिक लोकतंत्र से शून्य ‘आप’ में उनका कहा हुआ ही सर्वमान्य कानून होता है। यहाँ तक कि पार्टी में वरिष्ठतम सहयोगी, योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को जब से बेहद तिरस्कार के साथ बाहर का रास्ता दिखाया गया, एक लोकतांत्रिक चूं भी नहीं सुनी गयी।

अनिल विज की हरियाणा सरकार में पहचान एक बातूनी स्वास्थ्य मंत्री और अड़ंगेबाज खेल मंत्री के रूप में है, जो वक्त-बेवक्त आरएसएस एजेंडे के मतलब से हिन्दुत्ववादी बयान देते मिल जायेंगे। उनकी तुनकमिजाजी ऐसी कि दो वर्ष में एक ही महिला एसपी का दो अलग-अलग जिलों से तबादला करा चुके हैं- एक बार इस लिए कि उनके गेट आउट कहने के बाद भी वह मीटिंग से बाहर नहीं गयीं और दूसरी बार इसलिए कि वह उनकी मीटिंग में आ नहीं सकीं।

तपन सिकदर कम लोगों को याद होंगे। अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में केन्द्रीय मंत्रिमंडल में एक जूनियर मंत्री और तब के पश्चिम बंगाल में भाजपा की कमान के मुख्य किरदार! राज्य में माकपा की सरकार होने के बावजूद सिकदर के गर्म साहबी मिजाज के कितने ही चर्चे सुने जा सकते थे।

उन्हीं के क्षेत्र में आयोजित वाजपेयी की एक चुनावी सभा में वे प्रतिबंधित सुरक्षा घेरे को तोड़ कर उजड्ड समर्थकों के साथ जबरदस्ती घुसने लगे। रोके जाने पर जोर-जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया। मंच से प्रधानमंत्री ने कई बार हाथ हिलाकर स्थिति को सम्हाला।

सभा के बाद हताश वाजपेयी ने सिकदर की अच्छी खासी क्लास ले डाली। बोले, इस व्यवहार से चुनाव लड़ चुके, एक भी सीट जीतने का ख्याल छोड़ दो। आपातकाल के बाद हरियाणा में जनता सरकार के कई मंत्री दफ्तर में दोनों पैर मेज पर रखकर चमचों और अफसरों से मिलने को अपनी नयी राजसी शान के अनुरूप मानते थे।

गुजरे इतवार, पंचकुला में दिव्यांग सम्मान समारोह के नाम पर नागरिक अपमान का एक तमाशा हरियाणा के राज्यपाल और राज्य रेड क्रॉस के अध्यक्ष कप्तान सिंह सोलंकी की उपस्थिति में सम्पन्न हुआ। किसी ने ध्यान नहीं दिया था कि पैरों से विकलांग महिला भेंट लेने मंच तक कैसे जायेंगी। आमंत्रित को किसी तरह हॉल से घिसटते-घिसटते मंच पर रखी व्हील चेयर तक पहुंचना पड़ा।

मिनटों तक आयोजक उनके रेंगने का यह नजारा सुखद अंदाज में देखते रहे। नहीं, मंच से या बाद में किसी ने उनसे इस बेहद अपमानजनक असुविधा के लिए माफ़ी नहीं माँगी। यदि महामहिम को भी इसमें कुछ गलत लगा हो तो उन्होंने न उस समय व्यक्त किया और न बाद में।

कुछ ही दिन हुए, लोकतंत्र में नागरिकों के वोट से निर्वाचित उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने किसी राजा की तरह आयोजित अपने ‘जनता दरबार’ से स्कूल शिक्षिका उत्तरा बहुगुणा पंत को रहमोकरम पर आश्रित प्रजा की तरह अपमानित कर बाहर फिंकवा दिया। पंत की दुर्गम स्थान से अपना तबादला कराने की जिद को रावत ने खुद की शाही शान में इतनी बड़ी ‘गुस्ताखी’ माना कि उन्होंने वहीं के वहीं पंत की गिरफ़्तारी और मुअत्तली का आदेश भी सुना डाला।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अजय बिष्ट उर्फ़ योगी आदित्यनाथ का भी ऐसी ही राजसी मानसिकता के तहत लोगों से मिलने के लिए दरबार लगता है। वहां आने वालों से उम्मीद की जाती है कि भगवाधारी को ‘महाराज जी’ कह कर संबोधित करें। दिल्ली में रिकॉर्ड मतों से चुनाव जीते अरविन्द केजरीवाल ने भी शुरू में लोकतान्त्रिक सरगर्मी से ‘जनता दरबार’ की शुरुआत की थी लेकिन एक-दो बार में ही इस पारदर्शिता से तौबा कर ली।

रावत, योगी और केजरीवाल तीनों में दरअसल विरासत से मिली एक सामंती परम्परा को ढोने की ही ललक मिलेगी, न कि लोकतान्त्रिक असर। रावत संघी कायदे से हैं, योगी मठाधीश के रंग में रंगे हुये और केजरीवाल जन आन्दोलन के छद्म से निकले व्यक्ति। तीनों परिपाटी में लोकतंत्र नदारद है। तभी तीनों ने शासन के शीर्ष पर बैठते ही अपने-अपने तरीके से ‘राज दरबार’ का रवैया सहज अपना लिया। हालाँकि, भारतीय लोकतंत्र में शासक और नागरिक के बीच असमान रिश्तों को उजागर करने वाले कोई ये ही अजूबे उदाहरण नहीं हैं!

दरअसल, ‘जनता दरबार’ को एक संस्थागत रूप देने का श्रेय इंदिरा गांधी की राजनीतिक बाध्यताओं को जाना चाहिए। पार्टी सिंडिकेट से सत्ता संघर्ष के दौर में उन्होंने नियोजित जनता दरबारों के माध्यम से सफलतापूर्वक मंचित किया कि पार्टी ढांचे से स्वतंत्र, जनता से उनका सीधा रिश्ता है। वे इसमें बेहद सफल भी रहीं।

राजीव गाँधी ने शाही नखरे से प्रधानमंत्री की अपनी पारी शुरू की। विदेश सचिव को खड़े पैर बदल दिया। अपने सुरक्षा चीफ को, मनमाफिक कार न होने पर, अंडमान से वापस चलता कर दिया। हैदराबाद हवाई अड्डे पर उनके हाथों अपमान के एनटीआर प्रकरण से तेलुगु देशम पार्टी का जन्म इतिहास में दर्ज हो चुका है। बाद में, बोफोर्स मामले में घिर जाने के बाद उन्होंने सरकारी रेस कोर्स रोड आवास काम्प्लेक्स में होने वाले प्रायोजित जनता दरबारों के माध्यम से मां जैसा ही सन्देश देने की असफल कवायद की।

वीपी सिंह की ‘बंद’ कार्यशैली के चलते, उनके प्रधानमंत्री बनने के चंद हफ़्तों में ही इस ‘अनावश्यक’ रूटीन को अपनी मौत मरने दिया गया। इसके बाद शायद ही किसी प्रधानमन्त्री ने जनता दरबार को नियमित या संस्थागत रूप देने की पहल की हो। बेशक, सोनिया गांधी ने गर्दिश के दिनों में दस जनपथ में जनता दरबार का एक अनियमित सिलसिला जरूर चलाये रखा। लेकिन सोनिया संचालित प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह और मीडिया निर्मित प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने इसे पूरी तरह दफ़न कर दिया।

हालाँकि, इस राजनीतिक दौर में भी कई महत्वाकांक्षी मुख्यमंत्रियों में अपनी स्वतंत्र या जन-प्रिय छवि गढ़ने के लिए इस जाने-पहचाने मार्ग पर चलने का दिखावा अवश्य मिल जायेगा।

उदार वैश्वीकरण के भारत में पैर जमाने का दौर, कॉर्पोरेट शैली के राज दरबारों के मजबूत होते जाने का भी दौर है। उसी अनुपात में, सत्ता समीकरण में कमजोर पड़ते लोक के अपमानित होने का भी परिदृश्य निरंतर प्रतिबिंबित होता है। उत्तरोत्तर, राजनेताओं के व्यक्तिगत जीवन की ऐंठन में भी और उनकी शासकीय स्वेच्छाचारिता में भी।

यूँ ही नहीं एक दीन पृष्ठभूमि से निकला प्रधानमंत्री का दस लाख का सूट अचानक चर्चा में आ गया। यूँ ही नहीं एक समाजवादी कहलाने वाले मुख्यमंत्री ने अपने निवास स्थान के सौन्दर्यीकरण पर करदाता का 63 करोड़ रुपया फूंक दिया। जयललिता का वार्डरोब और मायावती का इमेज मेकओवर, राजघरानों की परी कथा सरीखे लगते हैं। बुलेट ट्रेन और एम्फिबियन बस, पंच सितारा होटलों में इफ्तार दावत और पांच सौ करोड़ की शादी राज नेताओं की आम शैली बन चुकी हैं। सोचिये, ठोस वजह होगी कि दलित घरों में खाना खाने की होड़ अपमानजनक तरीके से संपन्न की जाती है।

बेशक, निरंकुश राजघरानों का सामंती जमाना चला गया हो, निरंकुश राज दरबारों का ‘लोकतान्त्रिक’ जमाना लम्बे दौर तक चलेगा।

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