जब नजूल पर बसे लोग अवैध अतिक्रमणकारी है एवं चुनाव नहीं लड़ सकते, वोट नहीं मांग सकते, तो क्या नजूल पर रहने वाले लोग सिर्फ लाईनों में लगकर वोट देने के लिए रह गये हैं....
रुद्रपुर से मुकुल की रिपोर्ट
जनज्वार। उत्तराखंड में स्थानीय निकाय चुनाव 18 नवंबर को होने वाले हैं। 23 अक्टूबर तक प्रत्याशियों ने नामांकन भी दाखिल कर दिए है। इस बीच रुद्रपुर की जनता के एक हिस्से ने चुनाव बहिष्कार का नारा दिया है।
दरअसल पिछले दिनों नैनीताल हाईकोर्ट ने नजूल में बसे लोगों को उजाड़ने का आदेश जारी कर दिया। रुद्रपुर नगर निगम क्षेत्र में 1932 एकड़ यानी 70 फीसदी हिस्से की आबादी नजूल भूमि पर है। हाईकोर्ट ने अपने एक अलग आदेश में नजूल में रहने वालों को चुनाव लड़ने पर भी प्रतिबंध लगा दिया।
अब जनता का कहना है कि यदि हमें चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं है, तो वोट डालने का अधिकार कैसे हैं? इसलिए स्थानीय निकाय चुनाव के बहिष्कार का नारा दिया है।
दूसरी ओर रुद्रपुर का मुख्य बाजार इसी अतिक्रमण के नाम पर ध्वस्त किया जा चुका है। त्योहारी मौसम में मुख्य बाजार मलबे के ढेर में तब्दील हो गया है और व्यापारी बचे हुए हिस्से में पुनर्स्थापना का प्रयास कर रहे हैं।
ऐसे में व्यापारियों के एक हिस्से ने भी 'वोट मांग कर शर्मिंदा न करें' के जगह जगह होर्डिंग्स भी लगा दिए हैं।
चुनाव का बहिष्कार करने वाले लोगों का कहना है कि जब नजूल पर बसे लोग अवैध अतिक्रमणकारी है एवं चुनाव नहीं लड़ सकते, वोट नहीं मांग सकते, तो क्या नजूल पर रहने वाले लोग सिर्फ लाईनों में लगकर वोट देने के लिए रह गये हैं? किसी भी सरकार ने नजूल भूमि को मालिकाना हक नहीं दिया, जबकि पंतनगर की बेशकीमती कृषि भूमि अरबपतियों को सिर्फ 1/- स्कायर फुट में, 99 साल के लिए लीज पर दे दी, (यानी 200 गज का प्लाट सिर्फ 200/- रुपये में 99 साल के लिए)।
जारी अपील में कहा गया है कि आप चाहें तो यह सबसे बेहतरीन मौका है, चुनाव का पूर्ण बहिष्कार करें। जब तक सरकार नजूल भूमि को मालिकाना हक नहीं देगी, तब तक हम किसी पार्टी को वोट नहीं देंगे। हम अगर इस बार भी इन राजनीतिक पार्टियों के बहकावे में आ गये तो जल्दी ही इस नजूल भूमि को खाली करा लिया जायेगा और हम लोग कुछ नहीं कर पायेंगे।
दरअसल इस पूरे प्रकरण में पिछली कांग्रेस सरकार व वर्तमान भाजपा सरकार, दोनों ने ही उच्च न्यायालय में कमजोर पैरवी की और आदेश आने के बावजूद चुप्पी मार गई है। साफ है कि न्यायालय के आदेश की आड़ में सरकार जनता को उजड़ने पर आमादा है, जबकि पूंजीपतियों को जमीन देने के लिए रातो-रात कानून बन जाते हैं।
बहरहाल, चुनाव बहिष्कार की जनता के एक हिस्से की है पहलकदमी अलग अलग जातिगत या मोहल्ले के समूह द्वारा हुई है। यदि यह किसी संगठित प्रयास की आवाज बनती तो निश्चित ही यह ज्यादा कारगर होती?
अब देखना है कि मतदान तक के हालात बनते हैं?