राजपूतों का खून तब क्यों नहीं खौला, जब रानी पदमावती आत्मदाह कर रही थीं
राजपूतों के पूर्वज उस वक्त कहां थे जब रानी पदमावती आत्मदाह कर रही थीं। उस वक्त उनका स्वाभिमान, आन बान शान कहां थी। जो गुस्सा अब आ रहा है, वो गुस्सा उस वक़्त क्यों नहीं आया...
हंसराज मीणा
संजय लीला भंसाली की ‘पद्मावती’ फिल्म अभी रिलीज़ होनी बाकी है, मगर रिलीज़ से पहले का हंगामा, प्रोपेगंडा और हिंदुवादियों द्वारा इस पर बैन की सिफारिश करना बिलकुल भी न्यायसंगत नहीं लग रहा है।
इतिहास से जनता भी उतनी ही वाकिफ है, जितना बताया गया। फिल्म के बारे में भी इतना ही जानता हूं जितना ट्रेलर में दिखाया गया। ट्रेलर देखकर मुझे कोई आपत्ति नहीं हुई, क्योंकि इस तरह की कोई आपत्तिजनक दृश्य नहीं दिखे ट्रेलर में।
बहरहाल, पूरा देश फिलहाल पदमावती के नाम पर बवाल काट रहा है। इस पर बैन की मांग लगातार बढ़ रही है। पर मेरे कुछ सवाल है, जो मैं उन हिंदूुवादियों—सेनाओं से पूछना चाहता हूं, जो इस पर बैन की मांग कर रहा है।
मैं आपको इतिहास में थोड़ा पीछे ले जाना चाहूंगा। रानी पदमावती के वक्त। खुद को एक बार महसूस कीजिए उस सीढ़ी पर खड़ा। अंतिम सीढ़ी पर रानी पद्मावती खड़ी हैं और करीब 16000 दासियों एवं रानियों के साथ आत्मदाह के लिए अंतिम कदम बढ़ाने वाली हैं। आपका खून नहीं खौला, आपको गुस्सा नहीं आया, बिल्कुल आया होगा। मुझे भी आया।
एक तानाशाह, एक साम्राज्यवादी राजा, जिसने दूसरे राज्य पर आक्रमण किया है उससे अपनी आबरू—इज्ज़त बचाने के लिए एक रानी आत्मदाह कर रही है, साहसी परन्तु लाचार वीरांगना आत्मदाह कर रही है।
मगर फिलहाल मेरा सवाल बवाल कर रहे राजपूतों से है कि वो उस वक्त कहां थे? या राजपूतों के पूर्वज उस वक्त कहां थे जब रानी पदमावती आत्मदाह कर रही थीं। उस वक्त उनका स्वाभिमान, आन बान शान कहां थी। जो गुस्सा अब आ रहा है, वो गुस्सा उस वक़्त क्यों नहीं आया?
भारत के सभी राजपूतों को एकत्रित होकर क्या रानी पदमावती को बचाना नहीं चाहिए था। उन्हें संगठित होकर मुगल शासकों से युद्ध नहीं लड़ना चाहिए था।
लेकिन नहीं, क्योंकि उसके लिए कलेजा चाहिए। बहुत बड़ा कलेजा। बैन की मांग करना आसान है। थोड़ा राजनीतिक दबाव बनाइए, एक आध दंगे फसाद कराइए। सेंसर बोर्ड और पुलिस जनभावना आहत न हो, इसलिए सर्टिफिकेट देने से मना कर देगी। थिएटर वाले तोड़फोड़ आगजनी के डर से फिल्म को अपनी स्क्रीन देने से मना कर देंगे और इस तरह फिल्म औंधे मुंह गिरेगी।
आखिर हम कर क्या रहे हैं, कहां जा रहे हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी कहां है। कला एवं संस्कृति की आज़ादी का क्या हुआ। इतिहास तय करने वाले हम कौन हो गए हैं। फिल्म आने दीजिए। जिन्हें देखना है देखेंगे। जिन्हें नहीं देखना है, वो स्वतंत्र हैं बहिष्कार के लिए।
(हंसराज मीणा स्वतंत्र युवा पत्रकार हैं।)